जब दफ्तर पहुंचते ही वाजपेयी ने पूछा- दीवार पर लगी पंडित नेहरू की तस्वीर कहां है?
Atal Bihari Vajpayee Died: अटल बिहारी वाजपेयी अपने शुरुआती राजनीति से ही पंडित जवाहर लाल नेहरू की कद्र करते थे. वे पहली बार 1957 में संसद पहुंचे. तब वे बैक बैंचर हुआ करते थे. लेकिन उनके भाषणों ने कुछ ही दिनों में देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरू की नजर में ला दिया.
नई दिल्ली: बात 1977 की है. आजाद भारत में पहली बार केंद्र में गैर कांग्रेसी जनता दल की सरकार बनी. इमरजेंसी के ठीक बाद बनी इस सरकार में नौकरशाह नए नवेले मंत्रियों के दफ्तरों से कांग्रेस पार्टी से जुड़ी पहचान को खत्म करने में लगे थे. लेकिन ये बात राजनीतिक शिष्टाचार के धनी और जिंदादिल इंसान अटल बिहारी वाजपेयी को खल गई. बतौर विदेश मंत्री जब पहली बार दफ्तर पहुंचे तो उन्होंने दीवार पर एक खालीपन देखा. वाजपेयी ने तुरंत कहा, ''इस जगह पर तो पंडित जी (जवाहर लाल नेहरू) की तस्वीर लगी होती थी.'' उन्होंने तुरंत अपने सेक्रेटरी से कहा, ''मुझे याद है की मैं जब पहले इस कमरे में आया था तो नेहरू की तस्वीर दीवार पर लगी थी. कहां गया? मैं चाहता हूं कि फिर से लगा दिया जाए.''
वाजपेयी आजीवन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) से जुड़े रहे. वो आरएसएस जिसपर देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरू ने कभी प्रतिबंध लगाया था. वो संगठन जो नेहरू पर आज तक प्रो माइनोरिटी, कश्मीर में पैदा हालात को लेकर सवाल उठाती रही है. उसके एक अनुशासित कार्यकर्ता ने जब नेहरू की तस्वीर दोबारा दीवार पर लगवा दी तो ये आम घटना तो नहीं ही माना जा सकता है. यही वजह है कि वाजपेयी के विपक्षी तो बहुत हुए लेकिन विरोधी कोई नहीं हुआ.
एक दिन प्रधानमंत्री बनेंगे वाजपेयी वाजपेयी अपने शुरुआती राजनीति से ही नेहरू की कद्र करते थे. वे पहली बार 1957 में संसद पहुंचे. तब वे बैक बैंचर हुआ करते थे. लेकिन उनके भाषणों ने कुछ ही दिनों में देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरू की नजर में ला दिया. नेहरू बहुत ध्यान से वाजपेयी द्वारा उठाए गए मुद्दों को सुना करते थे.
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नेहरू वाजपेयी से काफी प्रभावित हुए. एक बार नेहरू ने भारत यात्रा पर आए ब्रिटेन के एक प्रधानमंत्री से अटल बिहारी वाजपेयी को मिलवाते हुए कहा था, "इनसे मिलिए, ये विपक्ष के उभरते हुए युवा नेता हैं. हमेशा मेरी आलोचना करते हैं, लेकिन इनमें मैं भविष्य की बहुत संभावनाएं देखता हूं." यही नहीं नेहरू ने एक दफे वाजपेयी की तारीफ करते हुए कहा था की एक दिन ये देश के भावी प्रधानमंत्री बनेंगे.
इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने एक लेख में नेहरू और वाजपेयी की सियासी तल्खी और आदर का जिक्र किया है. गुहा एक लेख में लिखते हैं, मई 1964 के तीसरे सप्ताह में नेहरू और वाजपेयी शेख अब्दुल्ला की रिहाई और उन्हें पाकिस्तान भेजे जाने (वो पाकिस्तान जिसे जनसंघ दुश्मन मानती रही है) को लेकर आमने-सामने होते हैं. वाजपेयी ने नेहरू के कदम की जमकर आलोचना की. उन्होंने कहा कि शेख की रिहाई से नुकसान होगा. वाजपेयी ने शेख अब्दुल्ला पर कश्मीर को अलग मुल्क बनवाने का इल्जाम लगाया. रामचंद्र गुहा लिखते हैं, इन सब के बावजूद शेख अब्दुल्ला 27 मई को अब्दुल्ला मुज्जफराबाद की तरफ रवाना होते हैं. अचानक उन्हें खबर मिलती है कि नेहरू की दिल्ली में मौत हो चुकी है. अचानक अब्दुल्ला फूट-फूटकर रोने लगते हैं.
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'एक लौ बुझ गई' नेहरू के निधन पर तब वाजपेयी ने श्रद्धांजलि देते हुए कहा था जिस दिन भारत मजबूत हो जाएगा वही नेहरू की सच्ची श्रद्धांजलि होगी. उन्होंने कहा था, "एक सपना अधूरा रह गया, एक गीत मौन हो गया और एक लौ बुझ गई. दुनिया भर को भूख और भय से मुक्त कराने का सपना, गुलाब की खुशबु और गीता के ज्ञान से भरा गीत और रास्ता दिखाने वाली लौ. कुछ भी नहीं रहा."
वाजपेयी ने आगे कहा, "यह एक परिवार,समाज या पार्टी का नुकसान भर नहीं है. भारत माता शोक में है, क्योंकि उसका सबसे प्रिय राजकुमार सो गया. मानवता शोक में है क्योंकि उसे पूजने वाला चला गया. दुनिया के मंच का मुख्य कलाकार अपना आखिरी एक्ट पूरा करके चला गया. उसकी जगह कोई नहीं ले सकता." गुरुवार को वाजपेयी ने अंतिम सांस ली. कांग्रेस ने वाजपेयी को भारत मां का बेटा करार देते हुए कहा कि पूरा देश उन्हें मिस करेगा.
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