Atique Ahmed Profile:: ये कहानी उस वक्त की है, जब प्रयागराज इलाहाबाद हुआ करता था. उस शहर में 17 साल का एक लड़का था. पिता फिरोज रेलवे स्टेशन पर तांगा चलाते थे, लेकिन लड़के की ख्वाहिश राजा बनने की थी. इस ख्वाहिश को पूरा करने के लिए वो जरायम की दुनिया में ऐसा पैवस्त हुआ कि अब वो माफिया बन चुका है. इतना बड़ा माफिया बन चुका है कि फिलहाल उत्तर प्रदेश की पूरी राजनीति उसके ही इर्द-गिर्द घूमने लगी है.


ये बात है माफिया अतीक अहमद की. जिसके नाम को लेकर सपा-बसपा और बीजेपी के बीच राजनीति हो रही है, लेकिन कहीं भी जिक्र उस कांग्रेस का नहीं हो रहा है, जिसके एक सांसद की वजह से ही हाई स्कूल फेल अतीक अहमद उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े माफिया की लिस्ट में शुमार हो गया और जिसने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ चुनाव लड़कर अपनी जमानत जब्त करवा ली.


साल 1979 में इलाहाबाद के चकिया के रहने वाले फिरोज तांगेवाले का बेटा अतीक हाई स्कूल में फेल हो गया था. उस साल उस पर हत्या का एक केस दर्ज हो गया. हत्या के इसी आरोप ने हाई स्कूल फेल 17 साल के लड़के को इलाके में इतना मशहूर कर दिया कि उसकी रंगदारी चल निकली, लेकिन यही वो वक्त था, जब इलाहाबाद के पुराने इलाके में चांद बाबा का सिक्का चलता था. चांद बाबा का असली नाम तो शौक इलाही था, लेकिन लोग उसे चांद बाबा ही कहते थे. पब्लिक तो छोड़िए, पुलिस को भी चांद बाबा के नाम से दहशत होती थी. इलाहाबाद की पुलिस के साथ ही स्थानीय नेताओं को भी अतीक अहमद के नाम में वो रोशनी दिखी, जो चांद बाबा की दहशत को खत्म कर सकती थी. लिहाजा अतीक अहमद को शह मिलती गई. छह-सात साल के अंदर ही अतीक अहमद ने अपने चकिया इलाके से चांद बाबा के नाम की दहशत को खत्म कर दिया और खुद की बादशाहत कायम कर ली.


अतीक अहमद एनकाउंटर से कैसे बचा? 
अब पुलिस के सामने चांद बाबा से भी बड़ी चुनौती अतीक अहमद था. साल  वो साल था 1986. तब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हुआ करते थे कांग्रेसी नेता वीर बहादुर सिंह तो एक दिन पुलिस ने अतीक अहमद को उठा लिया. न कोई केस न मुकदमा न कोई लिखा पढ़ी, लेकिन पता सबको था कि उठाया पुलिस ने है. ऐसे में चकिया के लोगों ने कांग्रेस के टिकट पर पहली बार चुनाव जीते एक सांसद को फोन कर दिया, जो मुस्लिम समुदाय से ही ताल्लुक रखते थे और प्रधानमंत्री राजीव गांधी के बेहद करीबी थे.


कांग्रेस सांसद को फोन करने का नतीजा ये हुआ कि दिल्ली से फोन आया लखनऊ और लखनऊ से फोन आया इलाहाबाद. फिर दिन बीतते-बीतते अतीक अहमद रिहा हो गया. कुछ घंटे के लिए ही सही, पुलिस की कस्टडी में रहने के दौरान अतीक अहमद को इतना तो पता चल गया था कि अब उसके और पुलिस के बीच की आंख-मिचौली का खेल लंबा नहीं चलना है. अतीक को पता था कि पुलिस उसे यूं ही नहीं छोड़ेगी और कभी भी उसका एनकाउंटर हो जाएगा. एक दिन वो वेश बदलकर पहुंच गया इलाहाबाद कचहरी.  पुराने केस में जमानत तुड़वाकर जेल चला गया. इससे वो एनकाउंटर से तो बच गया, लेकिन पुलिस ने अपनी खुंदक निकाली और अतीक के खिलाफ मुकदमों की बौछार कर दी. इन मुकदमों में एनएसए यानी कि नेशनल सिक्योरिटी एक्ट जैसा भारी भरकम मुकदमा भी था. ऐसे मुकदमों से किसी आम अपराधी का पूरा जीवन बर्बाद हो जाता है, लेकिन अतीक अहमद ने इन मुकदमों के जरिए खुद के लिए सहानुभूति जुटा ली. इलाहाबाद के अपने इलाके में उसने खुद को पुलिस से प्रताड़ित युवा के तौर पर पेश किया, जिसमें उसकी मदद की उसी कांग्रेसी सांसद ने उसे एनकाउंटर से बचा लिया था.


राजनीति के मैदान में क्यों और कब आया? 
एक साल बाद जब वो जेल से बाहर आया तो इलाके में उसके लिए सहानुभूति की लहर थी. इस सहानुभूति को कैश करने के लिए  अतीक अहमद राजनीति के मैदान में उतर गया. साल 1989 में हो रहे विधानसभा चुनाव में अतीक अहमद ने इलाहाबाद पश्चिम की विधानसभा सीट से निर्दलीय ही विधायकी का पर्चा भर दिया. इस चुनाव में उसके सामने उतरा वो प्रत्याशी, जो जरायम की दुनिया में भी उसका प्रतिद्वंदी था. शौक इलाही उर्फ चांद बाबा. नतीजे आए तो पता चला कि शौक इलाही उर्फ चांद बाबा चुनाव हार गए. महज 9281 वोट ही मिले. वहीं 25906 वोटों के साथ अतीक अहमद ने वो चुनाव निर्दलीय ही जीत लिया. इस जीत के चंद दिनों के अंदर ही भरे बाजार चांद बाबा की हत्या हो गई. फिर धीरे-धीरे करके चांद बाबा का पूरा गैंग ही खत्म हो गया और इलाके में इकलौती बादशाहत हो गई अतीक अहमद की.


'अतीक अहमद के बुरे दिनों शुरू हो गए'
खौफ इतना कि 1991 और 1993 के विधानसभा चुनाव में मुख्यधारा की पार्टियों को प्रत्याशी तक नहीं मिल रहे थे और अतीक अहमद ने लगातार दोनों चुनाव निर्दलीय ही जीत लिए. साल 1996 वो पहला विधानसभा चुनाव था, जब अतीक अहमद को एक बड़ी राजनीतिक पार्टी का साथ मिला. पार्टी थी समाजवादी पार्टी, जिसके मुखिया मुलायम सिंह यादव तब तक दो बार यूपी के मुख्यमंत्री बन चुके थे तो सपा ने दे दिया अतीक अहमद को टिकट और अतीक अहमद लगातार चौथी बार इलाहाबाद पश्चिमी से विधानसभा का चुनाव जीत गया. फिर उसने समाजवादी पार्टी का दामन छोड़ सोनेलाल की बनाई पार्टी अपना दल का हाथ थाम लिया. साल था 1999. उस साल उसे अपना दल का प्रदेश अध्यक्ष भी बना दिया गया. 2002 के विधानसभा चुनाव में उसे फिर से टिकट मिल गया इलाहाबाद पश्चिमी से वो फिर से जीत गया. लगातार पांच बार ऐसा ही हुआ. जरायम की दुनिया से निकला अतीक अहमद अब पांच बार का माननीय विधायक था.  


केशव प्रसाद मौर्य का क्यों आया नाम? 
ऐसा विधायक, जो विरोधियों को अपने सामने खड़े भी नहीं होने देता था. महंगी गाड़ियों और विदेशी हथियारों के शौक ने माननीय विधायक के रुतबे को इलाहाबाद में और बढ़ा दिया. इस बीच उत्तर प्रदेश की सियासत ने करवट बदली और साल 2003 में  मुलायम सिंह यादव एक बार फिर से प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए. अतीक अहमद की समाजवादी पार्टी में वापसी हो गई. कद और भी बड़ा हो गया. और इस बड़े कद के साथ उसे बड़ा पद भी चाहिए था.  साल 2004 के लोकसभा चुनाव में वो इलाहाबाद से सटी फूलपुर लोकसभा सीट से समाजवादी पार्टी का उम्मीदवार बन गया.


उसे जीत भी मिली और वो अब माननीय विधायक से बन गया माननीय सांसद. इसी के साथ अतीक अहमद के बुरे दिनों की शुरुआत हो गई. जिस इलाहाबाद पश्चिमी सीट से अतीक अहमद लगातार पांच बार विधायक बना था, वो सीट उसके सांसद बनने की वजह से खाली हो गई थी. इस सीट पर उसने अपने भाई खालिद अजीम उर्फ अशरफ को प्रत्याशी बना गिया. पार्टी थी समाजवादी पार्टी. अशरफ के खिलाफ बसपा ने राजू पाल को उतारा, जो कभी अतीक अहमद का बेहद करीबी रह चुका था, लेकिन अब वो खुदमुख्तार बनने की कोशिश कर रहा था. उस उपचुनाव में एक और नाम था, जो अपनी राजनीतिक किस्मत आजमा रहा था. नाम था केशव प्रसाद मौर्य. बीजेपी के उम्मीदवार. वही, जो अब उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री हैं.


राजू पाल को क्यों मारा गया?
उस उपचुनाव में पांच बार के विधायक से माननीय सांसद बन चुके अतीक अहमद के भाई खालिद अजीम उर्फ अशरफ चुनाव हार गए. अब इलाहाबाद पश्चिमी के नए विधायक थे राजू पाल. अतीक को भाई की हार बर्दाश्त नहीं हुई. तीन महीने बीतते-बीतते इलाहाबाद पश्चिमी के विधायक राजू पाल को बीच चौराहे पर गोलियों से भून दिया गया. पोस्टमॉर्टम में राजू पाल के शरीर से 19 गोलियां बरामद हुईं.


इस हत्याकांड में राजू पाल की पत्नी पूजा पाल ने सीधे तौर पर अतीक अहमद और उसके भाई खालिद अजीम उर्फ अशरफ का नाम लिया. केस भी दर्ज हुआ, लेकिन सरकार समाजवादी पार्टी की थी, तो पुलिस ने इन्हें हाथ भी नहीं लगाया. विधायक की मौत हुई तो सीट पर उप चुनाव भी हुए. और उपचुनाव में अतीक अहमद के नाम की इतनी दहशत थी कि बसपा के टिकट पर अशरफ के सामने चुनाव लड़ने उतरीं राजू पाल की पत्नी पूजा पाल चुनाव हार गईं और राजू पाल की हत्या का आरोपी खालिद अजीम उर्फ अशरफ बन गया माननीय विधायक


ऑपरेशन अतीक क्या है? 
फिर आया साल 2007. उत्तर प्रदेश की राजनीति में बदलाव हुआ और मुख्यमंत्री बनीं मायावती. तब तक विधानसभा चुनाव में अतीक अहमद की पुरानी सीट इलाहाबाद पश्चिमी से मारे गए राजू पाल की पत्नी पूजा पाल बसपा के टिकट पर चुनाव जीतकर विधायक बन गई थीं. मायावती ने सत्ता संभालने के साथ ही शुरू किया ऑपरेशन अतीक. और इसके साथ ही अतीक अहमद के साम्राज्य का किला दरकना शुरू हो गया. यूपी पुलिस ने अतीक अहमद के गैंग को नाम दिया इंटर स्टेट 227.


अतीक अहमद अब 20 हजार का इनामी अपराधी बन गया था. अकेले गैंगस्टर एक्ट में ही उसके खिलाफ 10 से ज्यादा केस दर्ज हो गए. उसके गैंग में 100 से ज्यादा अपराधी थे. सब पुलिस की रडार पर आ गए. करोड़ों की संपत्ति सीज कर दी गई. अवैध कब्जा कर बनाए गए कई आलीशान मकान ध्वस्त कर दिए गए. और माननीय सांसद अतीक. वो फरार था, क्योंकि वो यूपी पुलिस का इनामी अपराधी था. उसकी धरपकड़ के लिए यूपी पुलिस ने पूरे देश में अलर्ट जारी कर दिया था. समाजवादी पार्टी ने भी माफिया अतीक अहमद से पल्ला झाड़ लिया और उसे पार्टी से बेदखल कर दिया.


फिर एक दिन उत्तर प्रदेश पुलिस के पास फोन आया. ये फोन दिल्ली पुलिस का था, जिसने दावा किया कि उसने माफिया अतीक अहमद को दिल्ली के पीतमपुरा इलाके से गिरफ्तार कर लिया है.  यूपी पुलिस आई और अतीक अहमद को उठाकर जेल में डाल दिया. मायावती ने अतीक अहमद के साम्राज्य के ध्वस्तीकरण की शुरुआत कर दी थी.


अतीक अहमद की आखिरी उम्मीद कब खत्म हुई? 
फिर आया साल 2012. यूपी में फिर से विधानसभा चुनाव आए. अतीक अहमद को फिर साथ मिला अपना दल का. उसने फिर से अपनी पुरानी सियासी ज़मीन तलाशने की कोशिश की.  फिर पहुंच गया उसी इलाहाबाद पश्चिमी सीट पर, जहां से उसने अपना राजनीतिक करियर शुरू किया था और जिसके उपचुनाव ने उसे अर्श से फर्श पर पहुंचा दिया था, लेकिन 2012 के उस चुनाव में अतीक अहमद के सामने प्रत्याशी थीं पूजा पाल. अतीक अहमद और उसके भाई के हाथों मारे गए राजू पाल की पत्नी. चुनाव लड़ने के लिए अतीक ने जेल से पर्चा तो भर दिया, लेकिन प्रचार के लिए उसे जेल से बाहर आना था तो उसने हाई कोर्ट में जमानत की अर्जी दी, लेकिन उसकी दहशत इतनी थी कि हाई कोर्ट के 10 जजों ने बारी-बारी से खुद को अतीक अहमद के केस की सुनवाई से अलग कर लिया. फाइनली 11वें जज ने उसे जमानत दी और चुनाव लड़ने वो बाहर आ गया. चुनाव का नतीजा आया तो अतीक अहमद की बची खुची सियासी साख भी खत्म हो गई. भाई को हराने के बाद पूजा पाल ने अतीक अहमद को भी करीब 9 हजार वोटों से हरा दिया.


'मुझे इसका अफसोस नहीं'
मायावती की सत्ता में वापसी नहीं हो पाई थी. सरकार बनी थी समाजवादी पार्टी की. मुख्यमंत्री बने थे अखिलेश यादव तो अतीक अहमद की एक बार फिर से सपा के साथ नजदीकियां बढ़नी शुरू हो गईं. इतनी नज़दीकियां बढ़ीं कि मुलायम सिंह यादव ने साल 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए सुल्तानपुर से अतीक अहमद को समाजवादी पार्टी का प्रत्याशी बना दिया. इसका पार्टी के अंदर ही विरोध हो गया, लेकिन नेताजी अतीक पर मुलायम बने रहे. फिर बीच का रास्ता निकला. और अतीक अहमद को सुल्तानपुर की बजाय श्रावस्ती से टिकट दे दिया गया. उस चुनाव में प्रचार के दौरान अतीक अहमद ने खुले मंच से कहा कि मेरे ऊपर 188 केस दर्ज हैं और मैंने अपना आधा जीवन जेल में बिताया है, लेकिन मुझे इसका अफसोस नहीं है.


वो मोदी लहर का दौर था तो अतीक अहमद श्रावस्ती से चुनाव हार गया. जीत मिली बीजेपी के दद्दन मिश्रा को. इसी के साथ अखिलेश यादव से भी अतीक के रिश्ते खराब हो गए. अखिलेश उसे सपा से बाहर निकालते तो मुलायम सिंह उसे पार्टी में फिर से शामिल कर लेते. ये करते-करते आ गया साल 2016. उस साल के आखिर-आखिर में मुलायम परिवार का आपसी झगड़ा दुनिया के सामने आ गया था, लेकिन मुलायम सिंह यादव और शिवपाल यादव के कहने पर अतीक अहमद अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी का प्रत्याशी था. विधानसभा थी कानपुर कैंट.


क्यों अतीक अहमद जेल में गया? 
दिसंबर, 2016 में वो कानपुर पहुंच गया चुनाव प्रचार करने. 500 गाड़ियों के काफिले के साथ. पूरे यूपी में उस दिन उसी के काफिले की चर्चा थी, लेकिन इससे पहले वो एक और कांड को लेकर चर्चा में आया था. उसने इलाहाबाद के शियाट्स कॉलेज में अधिकारियों के साथ मारपीट की थी, जिसका वीडियो वायरल हो गया था. हाई कोर्ट ने संज्ञान लिया. पुलिस को फटकार लगाई और अतीक की गिरफ्तारी का आदेश दे दिया. फिर तो अखिलेश को भी मौका मिल गया. उन्होंने अतीक को समाजवादी पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया. और इलाहाबाद की पुलिस ने फरवरी, 2017 में अतीक अहमद को गिरफ्तार कर लिया.


इस गिरफ्तारी को 6 साल का वक्त बीत चुका है. अतीक अहमद जेल से बाहर नहीं आ पाया है, लेकिन जेल से उसके कारनामे बाहर आते रहते हैं. 2017 चुनाव में जब बीजेपी की सरकार बनी तो उस चुनाव में फूलपुर के सांसद केशव प्रसाद मौर्य को डिप्टी सीएम बनाया गया. फूलपुर में उपचुनाव हुए तो अतीक ने जेल से ही निर्दलीय पर्चा भर दिया. सांसदी लड़ी और हार गया. फिर देवरिया जेल में बंद अतीक अहमद एक बिजनेस मैन को किडनैप करवाता है. उसकी पिटाई करवाता है और उसका वीडियो भी वायरल होता है. तो अतीक की जेल बदली जाती है. देवरिया से वो बरेली भेजा जाता है. बरेली जेल ने अतीक जैसे माफिया को अपने पास रखने से इन्कार कर दिया तो उसे इलाहाबाद की नैनी जेल भेजा गया. लेकिन फिर सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अतीक को यूपी से बाहर गुजरात की साबरमती जेल भेज दिया जाता है.  


पीएम मोदी के खिलाफ लड़ा चुनाव
अतीक अहमद का खौफ कम नहीं होता है. न ही उसकी ख्वाहिश कम होती है. लिहाजा 2019 के लोकसभा चुनाव में वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ वाराणसी से निर्दलीय ही चुनाव लड़ जाता है. और उसे वोट मिलते हैं महज 855. जमानत भी नहीं बचती. और वो साबरमती जेल से बाहर नहीं आ पाता है. अभी हाल ही में 24 फरवरी को राजू पाल हत्याकांड के चश्मदीद गवाह रहे उमेश पाल की दिन दहाड़े गोली मारकर हत्या की गई है. इस केस का मास्टरमाइंड भी अतीक अहमद ही है, लेकिन इस केस ने उसके बेटों को भी बड़ा अपराधी बना दिया है, क्योंकि इस हत्याकांड में अतीक के साथ ही अतीक के गुर्गे और उसके बेटे भी शामिल हैं. 


इसी वजह से यूपी की राजनीति के केंद्र में फिलहाल वो अतीक अहमद है, जो करीब चार साल से साबरमती की जेल में बंद है. उमेश पाल की हत्या में शामिल 13 शूटरों में से एक की एनकाउंटर में मौत भी हुई है, जो अतीक का ही गुर्गा है. अतीक के दो लोग गिरफ्तार भी हुए हैं और सीएम योगी आदित्यनाथ ने विधानसभा के पटल पर ऐलान किया है कि माफिया को मिट्टी में मिला देंगे. तो मिट्टी में मिलाने का भी काम शुरू हो गया है. अतीक के करीबियों पर बुलडोजर गरज रहा है. अतीक के कई ठिकानों पर बुलडोजर चल चुका है. और भी कई ठिकानों पर बुलडोजर चलना बाकी है.


रही बात राजनीति कि तो वो भी हो रही है. सपा आरोप लगा रही है भाजपा पर. भाजपा आरोप लगा रही है सपा पर. बसपा आरोप लगा रही है भाजपा और सपा दोनों पर. हालांकि कांग्रेस खामोश है. जबकि हकीकत ये है कि अतीक का उभार ही कांग्रेस की वजह से हुआ. फिर कई सरकारें आईं और गईं. अतीक पर मुकदमे पर मुकदमे लदते गए. एक वक्त में उसके उपर करीब 250 मुकदमे थे. लेकिन करीब 45 साल के वक्त में अतीक अहमद को एक भी मामले में सजा नहीं हो पाई है.


साल 2001, 2003 और 2004 में तो सरकार ने डकैती के दौरान हत्या, एससी-एसटी ऐक्ट, बलवा, अवैध वसूली और गैंगस्टर एक्ट के चार मुकदमे खुद ही वापस ले लिए. गवाहों के मुकरने और साक्ष्य न मिलने की वजह से 14 मुकदमों में अतीक को बरी कर दिया गया. छह मामलों में पुलिस ने ही फाइनल रिपोर्ट लगा दी. एक मामले में तो पुलिस ने ही कह दिया कि गलती से अतीक पर केस हो गया है. आर्म्स एक्ट के एक मामले में तो पुलिस ने तय वक्त में चार्जशीट ही दाखिल नहीं किया तो केस रफा-दफा हो गया, लेकिन आज की तारीख में अतीक अहमद पर दर्ज हुए पांच केस की जांच चल रही है, जो योगी सरकार के सत्ता में आने के बाद दर्ज हुए हैं.


एक कारोबारी के अपहरण का मामला सीबीआई जांच कर रही है. अतीक के खिलाफ 25 ऐसे केस हैं, जिनमें कोर्ट में उसकी हाजिरी हो रही है. 11 मुकदमों में उसके खिलाफ सबूत पेश किए जा रहे हैं. योगी सरकार के सत्ता में आने के बाद अतीक की कुल 1168 करोड़ रुपये की संपत्ति कुर्क हो चुकी है. उसके भाई अशरफ पर 53 मुकदमे दर्ज हैं. पत्नी शाइस्ता पर चार केस हैं, तीन बेटों में से एक अली पर पांच, उमर पर दो और असद के खिलाफ एक केस दर्ज है. कुल मिलाकर अब अतीक अहमद का आपराधिक साम्राज्य चंद दिनों का मेहमान है. पूरे परिवार पर केस दर्ज है और पुलिस बुलडोजर लेकर अतीक के हर उस ठिकाने को कुचलने को तैयार है, जिसे उसने बंदूक की नोक पर बनाया था.


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