Avtar Singh Sandhu Pash: अमेरिकी एनिमेटर फिल्म निर्माता वाल्टर एलियास डिज्नी का मशहूर कथन है कि यदि आप सपना देख सकते हैं, तो आप उसे पूरा भी कर सकते हैं. उन्होंने खुद एक सपना देखा और उसे पूरा भी किया. ये वही वाल्टर डिज्नी हैं जो पहले ‘ओस्वाल्ड’ और फिर ‘मिकी माउस’ जैसे कार्टून-पात्रों के जरिए नई पीढ़ी के घरों में घुसे और सभी इन्हें जानने लगे. अब आप कहेंगे कि आज अचानक वाल्टर डिज्नी का जिक्र क्यों कर रहे हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि आज 23 मार्च है....ये वो तारीख है जब दो बड़े क्रातिकारी जिन्होंने पूरी युवा पीढ़ी को सपना देखना और उस सपने का महत्व सिखाने का प्रयास किया वो दुनिया से रुख्सत हो गए थे.


23 मार्च 1931 को शहीद-ए-आजम भगत सिंह क्रांति की लौ जलाकर चले गए तो इसी तारीख को साल 1988 में खालिस्तानी आतंकवादियों की गोली लगने से शहीद भगत सिंह को अपना हीरो मानने वाले पाश की भी मौत हो गई. वही पाश जिनका पूरा नाम अवतार सिंह संधु है. वही पाश जिनकी कविता मे सच्चाई की वो 'भीषण गंध' है जो फिज़ाओं में आज भी महकती है. कभी जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में तो कभी अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में, कभी सड़क पर तो कभी संसद में एक हुंकार गूंजती है और अपनी बात कहने वाला पाश को कोट करते हुए कहता है- 'सबसे खतरनाक है सपनों का मर जाना...'


पाश की कविताएं हमें सपने दिखाती हैं, लड़ने के लिए तैयार करती हैं और संघर्ष में साथी की तरह साथ होती हैं. जिंदा लाशों के देश मे पाश न सिर्फ सोचते और बोलते रहे बल्कि वो जिंदगी और इंसानियत के लिए लड़ते भी रहे. आज पाश हमारे बीच नहीं हैं लेकिन आज भी पाश की आवाज लोगो के जमीर को झकझोरती है. पाश की आवाज मे विद्रोह है, प्रेम है, आंचलिकता है, विषाद है, दर्द है, गुस्सा है लेकिन कविता का मूल भाव मे आशा की किरण है.



कविताएं लिखने मात्र से क्या होता है? ये सवाल कई बार युवा लड़के लड़कियां पूछते हुए दिख जाते हैं.  लिखने मात्र से क्या हो सकता है इसका एकमात्र सटीक उदाहरण है अवतार सिंह संधू उर्फ पाश... हर दौर में दो तरह के लेखक पैदा होते हैं.. एक जो व्यवस्थाओं की गोद में बैठकर तमगे लूटने वाले होते हैं तो दूसरे वह जो अपने साहित्य के जरिये समाजिक और राजनीतिक चेहरों पर वार करते है और उनके वार से घिनौने चेहरे वाले लोग इतना तिलमिला जाते हैं कि उस जन-कवि की गोली मारकर हत्या कर दी जाती हैं. ऐसा ही पाश के साथ भी हुआ.


पाश उन कवियों की तरह नहीं थे जिनकी किताबों की लंबी लिस्ट है और प्रभाव बिल्कुल नहीं. पाश ने जितना भी लिखा वह सब आज भी हमें याद है. न तो वह अपनी कविताओं में ऐसे शब्दों का प्रयोग करते थे जिसे समझने में कोई दिक्कत हो या कोई ऐसी पंक्ति लिखते थे जिसमें कई अर्थ छिपे हो. उनकी लेखनी में सपाटबयानी थी और वे स्वीकार करते हैं


'मैं शायरी में क्या समझा जाता हूं
जैसे किसी उत्तेजित मुजरे में
कोई आवारा कुत्ता आ घुसे'


जब सत्ता के शोसन का विरोध करते हुए पाश लिखते हैं कि 


'हाथ यदि हों तो
जोड़ने के लिए ही नहीं होते
न दुश्मन के सामने खड़े करने के लिए ही होते हैं
यह गर्दनें मरोड़ने के लिए भी होते हैं'


कई लोग कह उठते हैं...अरे पाश तो नक्कसली है. उनकी कविताओं को पाठ्यक्रम से हटाने के लिए सरकार की तरफ से फरमान आ जाता है, मुझे तभी मुन्नवर राना की पंक्ति याद आती है-


समाजी बेबसी हर शहर को मक़तल बनाती है,
कभी नक्सल बनाती है कभी चम्बल बनाती है


'सबसे खतरनाक सपनों का मर जाना होता' है


पाश को आप नाजिम हिकमत, पाब्लो नेरुदा और मुक्तिबोध के कैम्प का कवि कह सकते हैं. उनकी कविता में वह हमे कई चीजों के बारे में आगह करते हुए बताते हैं कि 'सबसे खतरनाक सपनों का मर जाना होता' है न कि और कोई अन्य चीज...


मेहनत की लूट सबसे खतरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे खतरनाक नहीं होती
गद्दारी-लोभ की मुट्ठी सबसे खतरनाक नहीं होती
सबसे खतरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
न होना तड़प का सब सहन कर जाना
घर से निकलकर काम पर
और काम से लौटकर घर जाना
सबसे खतरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना


जब देश में अपातकाल लगा तो उस दौर में भी कई कवि दरबार के कसीदे पढ़ रहे थे लेकिन एक तरफ जहां नागार्जुन ने लिखा 


इन्दु जी क्या हुआ आपको 
सत्ता की मस्ती में
भूल गई बाप को?
इन्दु जी, इन्दु जी, क्या हुआ आपको?
बेटे को तार दिया, बोर दिया बाप को!
क्या हुआ आपको?


तो वहीं दूसरी तरफ पाश ने अपातकाल के समय गरीबी से जूझ रही जनता के लिए लिखा


जिन्होने देखे हैं
छतो पर सूखते सुनहरे भुट्टे
और नही देखे
मंडियो मे सूखते दाम
वे कभी न समझ पाएंगे
कि कैसी दुश्मनी है
दिल्ली की उस हुक्मरान औरत की
नंगे पांवो वाली गांव की उस सुंदर लड़की से...


पाश अपने विचारों को लेकर कितने बेवाक थे इसका अंदाजा इसी बात से लगा लीजिए कि एक कविता में, उन्होंने मशहूर कवियत्री अमृता प्रीतम को 'अज्ज आखां वारिस शाह नू' से आगे बढ़ने के लिए कहा और उनसे विद्रोह की भाषा लिखने के लिए कहा. इतना ही नहीं उनसे जब कहा गया कि वो ये सब क्यों नहीं लिखते जो उनके समकालीन कवि लिखते हैं तो उन्होंने कहा- मैं फूलों, महिलाओं, अच्छे संगीत के बारे में नहीं लिखूंगा बल्कि गांव के मोची के अंधेपन, लोहार की फटी त्वचा या उस महिला के बारे में लिखूंगा जिसके हाथ बर्तन धोने से फट गए हैं...


पाश की कविता मे सच्चाई की भीषण गंध है, एक गंध जो जले हुए लोहे से आती है जो आज भी फिज़ाओं में फैली हुई है. खालिस्तानी उग्रवादियों द्वारा 23 मार्च 1988 को पाश के शरीर को गोलियों से छलनी कर दिया गया लेकिन पाश मरने के बाद और खतरनाक हो गए आज पाश हर जगह मौजूद हैं. विश्वविद्यालय के परिसर में, मेहनतकश कारखानों में, उम्मीद की फसल बोते किसानों में, मुझमें और आपमें... आज पाश के नाम पर सैंकड़ों सोशल मीडिया के पेज हैं. आज पाश को जगह जगह कोट किया जाता है. ऐसा लगता है कि उस खलिस्तानी की गोली का कोई वजूद ही नहीं था जो पास के सीने में लगी थी क्योंकि पाश तो अमर हैं..