अयोध्या केसः मुस्लिम पक्ष ने 1886 में फैजाबाद कोर्ट के फैसले को आधार बताकर कहा- अब सुनवाई ज़रूरी नहीं
मुस्लिम पक्ष ने फैजाबाद कोर्ट के 1886 के फैसले को आधार बनाकर कहा कि एक बार अगर किसी मामले का कोर्ट में निपटारा हो जाए तो उसे बार-बार नहीं उठाया जा सकता.
नई दिल्लीः अयोध्या मामले पर सुप्रीम कोर्ट में चल रही सुनवाई के 33वें दिन आज मुस्लिम पक्ष ने मामले में दाखिल याचिकाओं पर हुई सुनवाई को गैरजरूरी बताया. मुस्लिम पक्ष ने 1886 में फैजाबाद की कोर्ट से आए फैसले को आधार बनाते हुए यह दलील दी है. तब कोर्ट ने कहा था कि 350 साल से ज्यादा समय से वहां बनी मस्जिद के चलते स्थिति में अब बदलाव नहीं किया जा सकता. मुस्लिम पक्ष के वकील शेखर नाफड़े ने कहा कि इस फैसले के 70 साल बाद दाखिल हुई याचिकाओं पर फैजाबाद कोर्ट या हाई कोर्ट को सुनवाई नहीं करनी चाहिए थी.
क्या है 1886 का फैसला 1885 में महंत रघुवर दास ने विवादित इमारत के बाहर राम चबूतरा पर एक छोटा मंदिर बनाने की मांग की थी. उनका कहना था कि इससे वहां आने वाले लोगों को सुविधा होगी. फैज़ाबाद के जिला जज ने इस पर फैसला देते हुए मंदिर बनाने की इजाज़त देने से मना कर दिया था. जज ने माना था कि मस्ज़िद हिंदुओं के लिए पवित्र जगह पर बनी है. लेकिन उनका कहना था कि 350 साल बाद स्थिति में बदलाव नहीं किया जा सकता.
हाई कोर्ट खारिज कर चुका है दलील मुस्लिम पक्ष की दलील कानून के ‘रेस ज्यूडिकाटा’ सिद्धांत पर आधारित है. इसके तहत एक बार अगर किसी मामले का कोर्ट में निपटारा हो जाए तो उसे बार-बार नहीं उठाया जा सकता. हालांकि, यही दलील मुस्लिम पक्ष ने इलाहाबाद हाई कोर्ट में भी दी थी. वहां तीनों जजों ने इस दलील को खारिज कर दिया था. हाई कोर्ट ने माना था कि रघुवर दास ने याचिका व्यक्तिगत रूप से की थी. उनकी याचिका को पूरे हिंदू समाज की याचिका नहीं कहा जा सकता. इसलिए, बाद में दाखिल याचिकाओं पर सुनवाई बंद करने की कोई वजह नहीं थी.
सुप्रीम कोर्ट ने भी किया सवाल सुप्रीम कोर्ट ने भी आज शेखर नाफड़े से यही सवाल किया. कोर्ट ने पूछा, “आप यह कैसे कह सकते हैं कि रघुवर दास की याचिका पूरे हिंदू समाज की तरफ से दाखिल की गई थी. उन्होंने तो व्यक्तिगत रूप से याचिका दाखिल की थी और कहा था कि उन्हें चबूतरे पर मंदिर का निर्माण करने दिया जाए?” नाफ़ड़े का जवाब था, “रघुवर दास के नाम के आगे महंत लगा था. महंत का मतलब होता है किसी अखाड़े का प्रतिनिधि या पूरे समाज का प्रतिनिधि. ऐसे में उनकी मांग के खारिज होने का मतलब है, हिंदुओं की मांग का खारिज हो जाना.“
दलीलों में देरी पर कोर्ट नाराज़ हालांकि कोर्ट शेखर नाफड़े की इन दलीलों से बहुत आश्वस्त नजर नहीं आया. आज उनकी दलीलें अधूरी रहीं. उन्होंने सोमवार को भी जिरह करने की अनुमति मांगी. दिन की कार्रवाई खत्म होते वक्त 5 जजों की बेंच की अध्यक्षता कर रहे चीफ जस्टिस ने इस पर नाराजगी जताई. उन्होंने कहा, “कुछ भी शेड्यूल के हिसाब से नहीं हो रहा है.“
दरअसल, कोर्ट यह साफ कर चुका है कि सुनवाई 18 अक्टूबर तक ही चलेगी. यह टाइमलाइन सभी पक्षों की रजामंदी से तय की गई थी. टाइमलाइन तय होते वक्त मुस्लिम पक्ष ने शुक्रवार 27 सितंबर तक अपनी जिरह पूरी कर लेने की बात कही थी. लेकिन अभी उसके वकीलों की दलील बची है. नाफ़ड़े के बाद मुस्लिम पक्ष की तरफ से वकील निजाम पाशा को भी जिरह करनी है. पाशा की दलील इस बात पर होंगी कि विवादित इमारत शरीयत के हिसाब से मस्जिद थी. उसे किसी और को नहीं दिया जा सकता.
एएसआई रिपोर्ट को फिर अविश्वसनीय बताया आज दिन की शुरुआत में मुस्लिम पक्ष की वकील मीनाक्षी अरोड़ा ने अपनी कल की बातों को आगे बढ़ाया. करीब 1 घंटे तक उन्होंने कोर्ट में दलील दी कि अयोध्या में विवादित जमीन पर हुई खुदाई की रिपोर्ट विश्वसनीय नहीं है. उन्होंने कहा, “पुरातत्व कोई विज्ञान नहीं है. एक ही खोज पर अलग-अलग पुरातत्वविदों की राय अलग-अलग हो सकती है. एएसआई ने जो रिपोर्ट हाई कोर्ट को सौंपी थी, उसे सिर्फ उस जांच टीम की राय माना जाना चाहिए. किसी पुख्ता सबूत के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए.“
मीनाक्षी अरोड़ा ने आगे कहा, “जमीन के नीचे किसी रचना के मिलने से यह साबित नहीं हो जाता कि वह जगह मंदिर ही थी. वह किसी भी धर्म से जुड़े लोगों की जगह हो सकती है. हिंदुओं का दावा रहा है कि वहां पर गुप्त काल में विशाल मंदिर बनाया गया था. लेकिन खुदाई में मिली रचना 12 वीं सदी की थी. ऐसे में एसआई की रिपोर्ट के आधार पर कोई फैसला नहीं किया जा सकता. कोर्ट ने कहा, “कई बार किसी मामले में फैसला लेने की सुविधा के लिए कोर्ट विशेषज्ञों की मदद लेता है. हाई कोर्ट ने भी एएसआई को खुदाई का ज़िम्मा इसलिए दिया था. हम फैसला लेते वक्त सभी पहलुओं को देखेंगे.