नई दिल्ली: अयोध्या में विवादित ज़मीन आखिर किसकी है? 491 साल से चले आ रहे इस विवाद पर कल से सुप्रीम कोर्ट निर्णायक सुनवाई शुरू करेगा. 2010 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने ज़मीन को तीन हिस्सों में बांटने का फैसला दिया था. दो तिहाई हिस्सा हिन्दू पक्ष को मिला था और एक तिहाई सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड को. लेकिन कोई भी पक्ष इस फैसले से संतुष्ट नहीं हुआ. सबने सुप्रीम कोर्ट में अपील दाखिल की. जिस पर अब सुनवाई होने जा रही है. आइये जानते हैं क्या है अयोध्या भूमि विवाद.


491 साल से विवाद


1526 में बाबर ने दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी को हराया और दिल्ली की गद्दी पर काबिज़ हो गया. इसके बाद उसने भारत में अपना साम्राज्य फ़ैलाने की मुहिम शुरू की. इसी के तहत उसके सिपहसालार मीर बाक़ी ने अवध को कब्ज़े में ले लिया. मीर बाक़ी ने 1528 में अयोध्या के रामकोट में एक मस्जिद तामील की. जिसे मस्जिद-ए-जन्मस्थान और बाबरी मस्जिद के नाम से पुकारा गया.


मस्जिद के बनने के साथ ही आस-पास के हिन्दू उसे भगवान राम का जन्मस्थान तोड़ कर बनाया गया बता कर अपने कब्ज़े में लेने की कोशिश करने लगे. मस्जिद के बाहरी हिस्से में हिन्दू पूजा-अर्चना करने लगे. अंदर मुसलामानों ने नमाज पढ़ना जारी रखा.


ब्रिटिश शासन में भी हुई कोशिश


अंग्रेजों के दौर में भी हिन्दू पक्ष की तरफ से कई बार मस्जिद को अपने कब्ज़े में दिए जाने की गुहार लगायी गयी. लेकिन फैज़ाबाद के कमिश्नर ने इसे ये कहते हुए ठुकरा दिया कि भले ही मस्जिद की जगह पर पहले मंदिर रहा हो. लेकिन अब सदियों बाद इस स्थिति में बदलाव नहीं किया जा सकता. उस दौर में हिंदुओं की तरफ से विवादित ज़मीन की मालगुज़ारी चुकाए जाने के भी सबूत हैं.


आज़ादी के बाद नया मोड़


देश की आजादी के साथ ही अयोध्या भूमि विवाद ने नए मोड़ लेने शुरू किये.


-- दिसंबर 1949, मस्जिद के अंदर, मुख्य गुम्बद के नीचे रात के वक़्त राम लला और सीता की मूर्तियां रख दी गयीं.


-- इसके बाद जनवरी 1950 में गोपाल सिंह विशारद ने फैजाबाद कोर्ट में पहला मुकदमा दाखिल किया और पूजा की अनुमति मांगी


-- दिसंबर 1950 में दूसरा मुकदमा दाखिल हुआ. इस बार राम जन्मभूमि न्यास की तरफ से महंत परमहंस रामचंद्र दास ने भी पूजा की अनुमति मांगी.


-- दिसंबर 1959 में निर्मोही अखाड़े ने मुकदमा दाखिल किया. अखाड़े ने कहा कि ऐतिहासिक रूप से वही अयोध्या में राम मंदिर की देख भाल करता रहा है. अखाड़े ने इस आधार पर विवादित जगह को अपने कब्ज़े में दिए जाने की मांग की.


-- मस्जिद में मूर्तियां रखे जाने के 12 साल बाद दिसंबर 1961 में सुन्नी सेन्ट्रल वक़्फ बोर्ड ने फैज़ाबाद की कोर्ट में अर्ज़ी लगाई. बोर्ड ने मूर्तियों को हटाने और मस्जिद पर कब्ज़े की मांग की.


-- अप्रैल 1964 में फैज़ाबाद कोर्ट ने सभी 4 अर्जियों पर एक साथ सुनवाई का फैसला किया.


हाई कोर्ट ने मामला अपने पास लिया


हालांकि, ये मामला फैज़ाबाद कोर्ट में चलता रहा. 1989 में इलाहाबाद हाई कोर्ट के रिटायर्ड जज देवकी नंदन अग्रवाल ने रामलला विराजमान की तरफ से याचिका दाखिल की. जो लोग खुद मुकदमा दाखिल नहीं कर सकते, उनके लिए क़ानून में दिए गए प्रावधान के मुताबिक उन्होंने ये याचिका दाखिल की. खुद को रामलला का प्रतिनिधि बताया और सारी ज़मीन रामलला को सौंपने की मांग की.


-- अग्रवाल की अर्ज़ी पर 1989 में इलाहबाद हाई कोर्ट ने अब तक दाखिल सभी 5 दावों पर खुद सुनवाई करने का फैसला किया. इस सुनवाई के लिए तीन जजों की विशेष बेंच का गठन किया गया.


2002 में हाई कोर्ट ने मामले की सुनवाई शुरू की. हाई कोर्ट ने हिन्दू पक्ष के दावे की पुष्टि के लिए विवादित जगह पर खुदाई कराने का फैसला किया. खुदाई का ज़िम्मा आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया को सौंपा गया. एएसआई ने अपनी रिपोर्ट में बाबरी मस्जिद वाली जगह पर भव्य हिन्दू मंदिर होने की बात कही.


हाई कोर्ट का आदेश


करीब 90 दिन की सुनवाई के बाद हाई कोर्ट के 30 सितम्बर 2010 को हाई कोर्ट के 3 जजों जस्टिस सुधीर अग्रवाल, एस यू खान और डी.वी. शर्मा की बेंच का फैसला आया. बेंच ने आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया की तरफ से विवादित ज़मीन पर कराई गई खुदाई के नतीजों के आधार पर ये माना कि बाबरी मस्जिद से पहले वहां पर एक भव्य हिन्दू मंदिर था. रामलला के वर्षों से मुख्य गुम्बद के नीचे स्थापित होने और उस स्थान पर ही भगवान राम का जन्म होने की मान्यता को भी फैसले में तरजीह दी गई.


हालांकि, कोर्ट ने ये भी माना कि इस ऐतिहासिक तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती कि वहां साढ़े चार सौ सालों तक एक ऐसी इमारत थी जिसे मस्जिद के रूप में बनाया गया था. बाबरी मस्जिद के बनने के पहले वहां मौजूद मंदिर पर अपना हक़ बताने वाले निर्मोही अखाड़े के दावे को भी अदालत ने मान्यता दी.


इन तमाम बातों के मद्देनज़र बेंच ने विवादित 2.77 एकड़ ज़मीन को तीन बराबर हिस्सों में बांटने का आदेश दिया.


-- बेंच ने ये तय किया कि जिस जगह पर रामलला की मूर्ति स्थापित है उसे रामलला विराजमान को दे दिया जाए.


-- राम चबूतरा और सीता रसोई वाली जगह निर्मोही अखाड़े को दिया जाए.


-- बचा हुआ एक तिहाई हिस्सा सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड को दिया जाए.


अब सुप्रीम कोर्ट सुनेगा मामला


हाई कोर्ट ने अपने फैसले में सभी पक्षों के दावों में संतुलन बनाने की कोशिश की लेकिन कोई भी पक्ष इस आदेश से संतुष्ट नहीं हुआ. पूरी ज़मीन पर अपना दावा जताते हुए रामलला विराजमान की तरफ से हिन्दू महासभा ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की. दूसरी तरफ सुन्नी सेंट्रल वक़्फ़ बोर्ड ने भी हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी.


बाद में कई और पक्षों ने भी सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की. इन याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 9 मई 2011 को हाई कोर्ट के आदेश पर रोक लगा दी. सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर हैरानी भी जताई कि जब किसी पक्ष ने ज़मीन के बंटवारे की मांग नहीं की थी तो हाई कोर्ट ने ऐसा फैसला कैसे दिया.


इसके बाद से इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई शुरू नहीं हो पाई है. मुकदमे से जुड़े करीब 19,950 पन्नों के दस्तावेज 7 भाषाओं हिंदी, संस्कृत, पंजाबी, अंग्रेज़ी, उर्दू, अरबी और फ़ारसी में हैं. इनके अनुवाद को लेकर लंबे समय तक पेंच फंसा रहा. इसके बाद इस्लाम में नमाज़ के लिए मस्ज़िद की अनिवार्यता न होने के कोर्ट के एक पुराने फैसले पर दोबारा विचार की मांग उठी. फिर इस साल मार्च में कोर्ट ने मामले को बातचीत से सुलझाने के लिए मध्यस्थता कमिटी बना दी. इस प्रयास के बेनतीजा रहने के बाद कोर्ट अब सुनवाई शुरू करने जा रहा है. 5 जजों की बेंच की अध्यक्षता चीफ जस्टिस रंजन गोगोई कर रहे हैं. उन्हें इसी साल 17 नवंबर को रिटायर होना है. ऐसे में मामले का फैसला इससे पहले आने की उम्मीद जताई जा रही है.