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अयोध्या विवाद पर कल सुप्रीम कोर्ट में अहम सुनवाई, कोर्ट नियुक्त कर सकता है मध्यस्थ

दरअसल, पिछले हफ्ते अयोध्या मामले की सुनवाई यूपी सरकार की तरफ से कराए गए दस्तावेजों के अनुवाद पर विवाद के चलते अटक गई थी.

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट बुधवार को अयोध्या विवाद का हल बातचीत के जरिए निकालने के लिए मध्यस्थ की नियुक्ति कर सकता है. कोर्ट ने पिछले हफ्ते इसके संकेत दिए थे. कोर्ट ने कहा था कि मुख्य मामले की अगली सुनवाई में करीब 8 हफ्ते का वक्त है. बेहतर होगा इस समय का इस्तेमाल सभी पक्ष बातचीत के जरिए किसी हल तक पहुंचने के लिए करें.

दरअसल, पिछले हफ्ते अयोध्या मामले की सुनवाई यूपी सरकार की तरफ से कराए गए दस्तावेजों के अनुवाद पर विवाद के चलते अटक गई थी. मुस्लिम पक्ष ने मांग की थी कि वो दस्तावेजों को देखकर बताएगा कि अनुवाद सही है या नहीं. कोर्ट ने इसकी इजाज़त देते हुए सुनवाई टाल दी थी. इसी दौरान बेंच के सदस्य जस्टिस एस ए बोबडे ने कहा था, "हम मध्यस्थता पर गंभीरता से विचार कर रहे हैं. अगर मामले से जुड़े पक्षों के साथ बैठने से समाधान की एक फीसदी भी गुंजाइश है, तो ऐसा ज़रूर होना चाहिए."

बेंच के इस सुझाव पर मामले के मुख्य पक्षकारों में से एक, निर्मोही अखाड़ा ने सहमति जताई थी. मुस्लिम पक्ष के वकीलों ने भी कहा था कि अगर बंद कमरे में गंभीरता से चर्चा हो, इस दौरान हुई बातों को मीडिया में लीक न किया जाए तो हो सकता है कि कुछ नतीजे निकलें.

हालांकि, रामलला विराजमान पक्ष की तरफ से मध्यस्थता को बेकार की कोशिश कहा गया था. रामलला विराजमान के वकील सी एस वैद्यनाथन और हिंदू पक्ष के एक और वकील रंजीत कुमार ने विरोध करते हुए कहा था कि इससे कुछ नहीं होगा. मध्यस्थता की कई कोशिशें असफल हो चुकी हैं. कोर्ट सुनवाई कर मामले पर फैसला दे.

उस दिन सभी पक्षों को सुनने के बाद 5 जजों की बेंच की तरफ से चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने ये आदेश लिखवाया था, "हमारी सोच ये है कि 8 हफ्ते के समय का इस्तेमाल आपसी चर्चा के लिए हो तो अच्छा रहेगा. कुछ पक्ष तैयार नज़र आ रहे हैं, कुछ नहीं. अगले मंगलवार को हम सिर्फ इसी पहलू पर बात करने के लिए बैठेंगे. अगर सही लगा तो अपनी कानूनी शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए हम किसी मध्यस्थ की नियुक्ति कर देंगे."

जानकारों का मानना है कि कोड ऑफ़ सिविल प्रोसीजर (CPC) की धारा 89 के तहत कोर्ट को ये अधिकार है कि वो किसी दीवानी मामले को मध्यस्थता के लिए भेज सके. ये ज़रूरी नहीं कि मामला तभी मध्यस्थता के लिए भेजा जाएगा, जब सभी पक्ष इसके लिए सहमत हों.

हालांकि, यहां ये समझना जरूरी है कि मध्यस्थता के लिए किसी मामले को भेजने का मतलब ये नहीं है कि उस पर आगे कोर्ट सुनवाई नहीं करेगा. न इसका मतलब ये है कि सभी पक्षों के लिए ये ज़रूरी है कि वो किसी एक हल पर सहमत हो ही जाएं. अगर मध्यस्थता में कोई ऐसा हल निकलता है जो सबको मंज़ूर है, तो कोर्ट उसे औपचारिक आदेश की शक्ल दे देता है. अगर हल नहीं निकलता तो मामले की अदालती सुनवाई जारी रहती है.

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