नई दिल्ली: सैकड़ों साल पुराने अयोध्या विवाद पर बुधवार को सुनवाई पूरी हुई. अब सभी को सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार है. शीर्ष अदालत ने 40 दिनों तक सुनवाई की. बहस के दौरान सभी पक्षों ने सैकड़ों साल पुराने इतिहास का जिक्र आया. आस्था की बात हुई और कानून का सहारा लिया गया. एबीपी न्यूज़ आपको यह बताने जा रहा है कि 40 दिन चली सुनवाई में आखिर क्या क्या हुआ?
बहस की शुरुआत हिंदू पक्ष की तरफ से हुई. सबसे पहले सवाल उठा आस्था का. हिंदू पक्ष के वकील ने कहा, ''भगवान राम के जीवन काल में लिखी गई वाल्मीकि रामायण में अयोध्या को उनका जन्म स्थान बताया गया है. महाभारत काल में लिखे गए स्कंद पुराण में भी कहा गया है कि सुबह सुबह सरयू नदी पर नहा कर राम जन्मस्थान के दर्शन से पुण्य मिलता है. आज हजारों सालो बाद नक्शा दिखा कर यह नहीं बताया जा सकता कि जन्म की सही जगह क्या है. लेकिन हमें आस्था को देखना पड़ेगा. हजारों सालों से हिंदुओं की अटूट आस्था है कि जिस जगह पर विवादित इमारत थी, वही भगवान राम का जन्म स्थान है.''
मुस्लिम पक्ष के वकील ने कहा, ''अदालत में मुकदमा कानून और सबूतों के आधार पर लड़ा जाना चाहिए. धार्मिक ग्रंथों में लिखी गई बातों के आधार पर नहीं. जिसपर हिंदू पक्ष के वकील ने कहा, ''हजारों सालों से हिंदुओं की अटूट आस्था उसी जगह के जन्म स्थान होने को लेकर है. सैकड़ों सालों से हिंदू पूरी भूमि की परिक्रमा करते रहे हैं. वहां पूजा करते रहे हैं. इस आस्था को अदालत की मान्यता मिलनी चाहिए.''
मुस्लिम पक्ष ने कहा, ''हम हिंदुओं की आस्था पर सवाल नहीं उठा रहे हैं. लेकिन यह साबित नहीं हो पाया है कि मस्जिद की गुंबद के नीचे ही राम का जन्म हुआ था. अयोध्या में 3 ऐसी जगह है, जिनके जन्म स्थान होने का दावा किया जाता रहा है. अगर सवाल आस्था का ही है तो मुसलमान भी मस्जिद में आस्था रखते हैं. वह यह मानते हैं कि मस्जिद अल्लाह का घर है. उसे किसी और को नहीं सौंपा जा सकता.'' इसके बाद हिंदू पक्ष ने कहा, ''शरीयत के हिसाब से वह इमारत मस्ज़िद नहीं थी. पैगम्बर मोहम्मद ने कहा था कि किसी का घर जबरन तोड़ कर मस्ज़िद नहीं बनाई जा सकती. अगर ऐसा हुआ हो तो ज़मीन तुरंत लौटा दी जानी चाहिए.''
आस्था का सवाल उठा हिंदू पक्ष ने जगह पर अपना मजबूत दावा जताने की कोशिश की. जमीन पर मालिकाना हक साबित करने के लिए जिन सबूतों या कागजात की जरूरत पड़ती है वह इस मामले में किसी के पास नहीं है. लेकिन आस्था, विश्वास या मान्यता को साबित करने के लिए इनकी ज़रूरत नहीं पड़ती. अगर किसी धर्म के मानने वालों की आस्था को खारिज नहीं कर सकता. मुस्लिम पक्ष को यह पता था कि इस आधार पर उसका दावा कमजोर पड़ जाता है. इसलिए उसने ऐसी दलील दी कि अयोध्या में भगवान राम का जन्म हुआ हिंदुओं के इस विश्वास पर वह सवाल नहीं उठाना चाहता है. लेकिन उसी जगह को जन्म स्थान माना जाए, इसका कोई सबूत नहीं है.
इसके बाद बहस का अगला विषय था इतिहास:-
हिंदू पक्ष ने दावा किया कि 1610 के आसपास कई बार अयोध्या जाने वाले अंग्रेज़ व्यापारी विलियम फिंच ने भी जन्मभूमि का जिक्र किया था. बाद में अयोध्या जाने वाले विदेशी यात्रियों जोसेफ टाइफेनथेलर, मोंटगोमरी मार्टिन ने भी स्थान को लेकर हिंदुओं की आस्था का ज़िक्र किया है. इन लोगों के पास झूठ बोलने की कोई वजह नहीं थी.
जिसपर मुस्लिम पक्ष ने कहा ''इससे कुछ साबित नहीं होता. वहां घूमने गए लोगों ने जो सुना वह लिख दिया.'' हिंदू पक्ष ने कहा, ''विलियम फिंच ने किसी मस्ज़िद का ज़िक्र नहीं किया. सिर्फ जन्मस्थान के बारे में लिखा, उसे ध्वस्त स्थिति में बताया.'' मुस्लिम पक्ष, ''इटली का यात्री मार्को पोलो जब चीन गया तो उसने चीन की महान दीवार के बारे में नहीं लिखा. तो क्या हम यह मान लें कि दीवार का अस्तित्व नहीं था.''
हिंदू पक्ष ने कहा, ''विवादित इमारत को कब और किसने बनवाया, यही साफ नहीं है. खुद बाबर की आत्मकथा ‘बाबरनामा’ में इसका जिक्र नहीं है.'' मुस्लिम पक्ष ने इस दलील पर कहा, ''बाबरनामा के 2 पन्ने उपलब्ध नहीं हैं. उन्हीं पन्नों में मस्ज़िद का ज़िक्र था. मस्ज़िद बाबर के आदेश पर उसके सेनापति मीर बाकी ने बनवाई थी.''
हिंदू पक्ष ने कहा कि 19वीं सदी तक उस जगह को बाबर से जुड़ा नहीं कहा गया. 1838 में पहली बार उसे बाबर के आदेश पर बनी मस्ज़िद कहा गया. मकसद इमारत को ऐतिहासिक दिखाना लगता है. 1854 के ईस्ट इंडिया कंपनी के गजेटियर में भी अयोध्या में भगवान राम के किले की मौजूदगी की बात कही गई है.
मुस्लिम पक्ष ने कहा कि अंग्रेज़ तब भारत में नए थे. उन्होंने लोगों से जो सुना, वही गजेटियर में दर्ज कर लिया. इस पर भरोसा नहीं किया जा सकता. जिसपर हिंदू पक्ष ने कहा, ''इसके कुछ सालों बाद ही 1862 में पहली बार अलेक्जेंडर कनिंघम के नेतृत्व में पुरातत्व सर्वे हुआ. कनिंघम ने भी लिखा कि विवादित इमारत के हिंदू मंदिर के अवशेषों से बनाए जाने के सबूत हैं.''
विदेशी यात्रियों के यात्रा विवरण और अंग्रेजो की तरफ से दर्ज बातों से हिंदू पक्ष की कोशिश यह बताने की थी कि ऐतिहासिक सबूत भी हिंदुओं के पक्ष में है. क्योंकि मुगल काल में भी अयोध्या जाने वाले विदेशी यात्री विवादित जगह को जन्म स्थान ही बता रहे थे. यही बात अंग्रेजों ने भी अपने गजेटियर में दर्ज की. विवादित जगह को ऐतिहासिक मस्जिद बताने वाला मुस्लिम पक्ष इस बात पर अड़ा रहा कि मस्जिद के नीचे ही जन्म स्थान होने का कोई सबूत नहीं है. विदेशी यात्रियों ने जो लिखा, सुनी सुनाई बातों के आधार पर लिखा. अदालत में इसे सबूत के तौर पर नहीं देखा जा सकता.
इस बीच निर्मोही अखाड़ा के वकील ने रामलला पक्ष और सुन्नी वक्फ बोर्ड का दावा खारिज कर ज़मीन खुद को दिए जाने की मांग कर डाली.
निर्मोही के वकील ने कहा, ''विवादित इमारत के बाहरी हिस्से में राम चबूतरा, सीता रसोई और भंडारगृह थे. वह हिस्सा हमारे कब्ज़े में था. असली विवाद अंदर के हिस्से का है. जिसे भगवान राम का जन्मस्थान माना जाता है. मस्ज़िद बनने से पहले वह जगह भी निर्मोही अखाड़े के ही नियंत्रण में थी. हम सदियों से भगवान राम की सेवा कर रहे हैं, पूरी ज़मीन हमें मिलनी चाहिए.''
जिसपर मुस्लिम पक्ष ने कहा, ''इनके सेवादार होने के दावे से मना नहीं किया जा सकता. लेकिन यह जो कुछ भी कर रहे थे, इमारत के बाहर बने चबूतरे पर कर रहे थे. इमारत पर इनका कोई दावा नहीं बनता.'' वहीं रामलला के वकील ने कहा, ''इनका दावा तो सेवक होने का है. जमीन का मालिक होने का नहीं. इन्होंने 1959 में सेवा की बात कहते हुए ही मुकदमा दाखिल किया था. अब ज़मीन पर दावा कैसे कर सकते हैं. जगह का मालिक देवता के अलावा कोई नहीं हो सकता.''
निर्मोही के वकील ने कहा, ''मंदिर तोड़ कर बने इस मस्ज़िद को पुराने रिकॉर्ड में मस्ज़िद ए जन्मस्थान लिखा जाता रहा है. मस्ज़िद बनने के बाद भी बाहर के हिस्से में निर्मोही साधु पूजा करवाते रहे. हम सेवक हैं तो रामलला की तरफ से कोई और मुकदमा कैसे कर सकता है? एक रिटायर्ड जज ने याचिका की और कोर्ट ने उसे स्वीकार कर लिया. ऐसा नहीं होना चाहिए था. ज़मीन रामलला को भी मिले तो हमारे नियंत्रण में हो.''
मुस्लिम पक्ष ने कहा, ''इनका दावा ही गलत है. इमारत मस्ज़िद थी. भीतर किसी और का कब्ज़ा नहीं था.'' निर्मोही के वकील ने कहा, ''मुसलमानों ने 1934 में आखिरी बार वहां 5 वक्त की नमाज पढ़ी. उसके बाद हर हफ्ते बस जुमे की नमाज होती थी. 16 दिसंबर 1949 के बाद से वह भी बंद हो गई. वह जगह मस्ज़िद कैसे हो सकती है? वहां तो नमाज़ से पहले हाथ-मुंह धोने के लिए वुज़ू की जगह तक मौजूद नहीं है. साफ है कि इमारत को कब्जे में दिखाने के लिए वहां यूं ही नमाज़ पढ़ी जाती थी.''
यह बात सही है कि निर्मोही अखाड़े ने कभी ज़मीन पर मालिकाना हक के लिए मुकदमा नहीं किया. मामले के टाइटल सूट यानी मालिकाना हक के मुकदमे में तब्दील होने के बाद उसके लिए रणनीति में बदलाव ज़रूरी था. इसी आधार पर हाई कोर्ट ने उसे 1 तिहाई ज़मीन दी थी. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट में उसके इस दावे पर भी सवाल उठे कि मस्ज़िद बनने से पहले और उसके बाद वहां उसका नियंत्रण था. इसे साबित करने के लिए अखाड़ा कोई ठोस सबूत नहीं दे पाया.
इसके बाद बहस बाबरी मस्जिद कही जाने वाली इमारत में मौजूद मंदिर के सबूतों पर हुई:-
हिंदू पक्ष के वकील ने कहा, ''ढांचा गिरने से 2 साल पहले 1990 में ली गई तस्वीरों को देखिए. कसौटी के काले पत्थर वाले खंभे साफ नजर आ रहे हैं. इन खंभों पर तांडव मुद्रा में शिव, हनुमान, कमल, शेर, गरुड़ जैसी आकृतियां हैं. यह आकृतियां इस्लामिक नहीं हैं. इनकी मौजूदगी मस्जिद में कैसे हो सकती है? वहां मंदिर के ऊपर जबरन बनाई गई एक इमारत थी, कोई मस्ज़िद नहीं.''
मुस्लिम पक्ष ने कहा, ''कमल जैसी बहुत सी आकृतियां इस्लाम में भी इस्तेमाल होती हैं, बौद्ध, जैन जैसे धर्मों में भी. यह साबित होना ज़रूरी है कि वहां किसी मंदिर को गिरा कर मस्ज़िद बनाई गई. इमारत में कई जगह पर अरबी और फ़ारसी में अल्लाह लिखा था. यह मस्जिद की निशानी है.''
हिंदू पक्ष ने कहा, ''इमारत पर कब-कब अल्लाह लिखा गया, इस पर भी सवाल हैं. अंग्रेज़ों के समय में वहां का मुआयना करने वाले अधिकारियों ने भी इस पर रिपोर्ट दी थी. लेकिन वहां पाए गए खंभों पर बनी आकृति शुरू से थी. कई मुस्लिम गवाहों ने भी कोर्ट में इसे माना था.''
हिंदू पक्ष के दूसरे वकील ने कहा, ''तस्वीर को देखिए. यह उस शिलालेख की है जो इमारत के दक्षिणी गुंबद से तब मिली, जब 1992 में इमारत गिराई गई थी. पुरातत्व विभाग इसे असली करार दे चुका है. इसमें साफ लिखा है कि 12वीं सदी में साकेत मंडल के राजा गोविंद चंद्र ने वहां विष्णु मंदिर बनवाया था. असल में उसी विष्णु मंदिर को गिरा कर विवादित इमारत बनाई गई. ढांचे के मलबे से मंदिर की कई और कलाकृतियां मिली थीं.'' मुस्लिम पक्ष ने कहा कि हम इसे स्वीकार नहीं करते. इमारत खाली जमीन पर बनाई गई थी.
इमारत में मिली आकृतियों के बौद्ध जैन जैसे धर्मों से जुड़े होने को लेकर मुस्लिम पक्ष ने भी सवाल उठाया और कोर्ट ने भी. हिंदू पक्ष के वकील का जवाब था कि बौद्ध और जैन धर्मों को हिंदू धर्म से अलग करके नहीं देखा जा सकता. एक समय इन धर्मों का भारत पर बड़ा असर था. बाद में उनके कई गुणों को समाहित कर हिंदू धर्म का फिर से उत्थान हुआ. गुप्त वंश के शासन में विशाल हिंदू मंदिर बने.
इमारत से मिले सबूतों पर जिरह के बाद बहस की दिशा वहां ज़मीन के नीचे से मिले पुरातात्विक सबूतों की तरफ जाना लाज़िमी था. हाईकोर्ट ने खुदाई में मिले सबूतों को अपने फैसले में एक बड़ा आधार बनाया था. वहां मंदिर की मौजूदगी की बात मानी थी. लेकिन ताज्जुब की बात यह रही कि सुप्रीम कोर्ट में इस रिपोर्ट को हिंदू पक्ष से ज्यादा मुस्लिम पक्ष ने प्रमुखता से उठाया.
मुस्लिम पक्ष ने कहा कि हाईकोर्ट ने अपने फैसले में आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की खुदाई को मुख्य आधार बनाया है. हमारा मानना है कि आर्कियोलॉजी कोई विज्ञान नहीं है. इसके निष्कर्ष अलग अलग हो सकते हैं. जिसपर हिंदू पक्ष ने कहा, ''यह बात गलत है. पुरातत्व अपने आप में एक विज्ञान है. रिपोर्ट में साफ-साफ लिखा गया है कि वहां 50 गुना 30 मीटर आकार का विशाल मंदिर था. उस मंदिर के 50 से भी ज्यादा खंभे थे.''
मुस्लिम पक्ष ने कहा, ''वहां पर एक रचना जरूर मिली है. लेकिन आर्कियोलॉजिकल सर्वे की टीम ने उसे मंदिर कैसे मान लिया. उस रचना के पश्चिमी हिस्से में बड़ी दीवार है. ऐसा ईदगाह में होता है. हम मानते हैं कि वहां मस्जिद बनने से पहले ईदगाह थी, जिसमें लोग ईद की नमाज पढ़ने जमा होते थे.''
जिसपर जस्टिस ने कहा, ''लेकिन आपने तो पहले कहा था कि मस्जिद खाली जमीन पर बनाई गई थी. अब कह रहे हैं कि वहां पहले ईदगाह थी.'' मुस्लिम पक्ष ने कहा, ''वह दलील हमने तब दी थी जब मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाए जाने की बात कही जा रही थी. अब खुदाई में मिली रचना की बात हो रही है. हम यही कह रहे हैं कि वह रचना मंदिर हो ऐसा जरूरी नहीं. वैसे भी वहां पर खंभों के जो आधार मिले हैं उनकी गहराई अलग-अलग हैं. फिर एएसआई ने अपनी रिपोर्ट में ऐसा कैसे कह दिया कि वह खंभे एक ही इमारत के हैं.''
जस्टिस ने कहा, ''खंभों के आधार की गहराई का जो अंतर है वह 8 से 10 इंच तक का ही है. यह बहुत बड़ी बात नहीं है. आप इतनी पुरानी इमारत में आधुनिक इंजीनियरिंग के सिद्धांत नहीं लगा सकते.'' मुस्लिम पक्ष ने कहा, ''वहां पर मिली रचना में चूना और सुरखी जैसी सामग्री का इस्तेमाल हुआ. इनका इस्तेमाल मुसलमान किया करते थे. इनका इस्तेमाल मंदिर में नहीं हो सकता.''
जस्टिस ने कहा, ''ऐसा कौन सा नियम है कि चूना और सुरखी का इस्तेमाल मुसलमान ही कर सकते हैं. हमें नहीं लगता कि आप यह साबित कर पा रहे हैं कि वहां पर पहले इस्लाम से जुड़ी कोई इमारत थी.'' हिंदू पक्ष ने कहा, ''हम यह भी बताना चाहते हैं कि वहां सिर्फ एक विशाल रचना नहीं मिली. शिवलिंग के साथ बना परनाला भी मिला. और कई आकृतियां मिलीं जो हिंदू मंदिरों में ही होती हैं. खुदाई में इस बात के भी सबूत मिले कि 12 वीं सदी के उस मंदिर के नीचे और भी मंदिरों के अवशेष हैं. वहां 2000 साल पहले भी मंदिर था.''
मुस्लिम पक्ष ने कहा, ''किसी भी जगह की खुदाई में पुरानी इमारत के अवशेष मिल सकते हैं. उस जगह को मंदिर ही कैसे मान लिया जाए? एएसआई ने जो कहा वह सिर्फ उसकी टीम में शामिल विशेषज्ञों की राय थी. इसे सबूत के तौर पर नहीं देखा जा सकता है. हाईकोर्ट में एएसआई टीम को बुलाकर उससे पूछताछ की जानी चाहिए थी.''
जस्टिस ने कहा, ''तो ऐसा करने से आपको किसने रोका था? आप ने हाईकोर्ट में उन्हें पूछताछ के लिए क्यों नहीं बुलाया? अब इन दलीलों का क्या मतलब?'' मुस्लिम पक्ष ने कहा, ''हम फिर भी यही कहेंगे कि इस बात का कोई सबूत नहीं है कि मस्जिद बनाने के लिए किसी मंदिर को तोड़ा गया था. हो सकता है कि इस्तेमाल में न आ रहे किसी खंडहर के ऊपर मस्जिद बनाई गई हो.''
एएसआई की रिपोर्ट हाई कोर्ट के फैसले के पीछे एक बड़ा आधार थी. मुस्लिम पक्ष ने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की कि इस रिपोर्ट को अविश्वसनीय साबित किया जाए. ऐसा करना मुस्लिम पक्ष की रणनीति के हिसाब से बहुत जरूरी था. हालांकि हिंदू पक्ष ने भी ASI रिपोर्ट का पुरजोर बचाव किया. इन सब से अलग मामले में कई तकनीकी दलीलें भी रखी गई. दोनों पक्षों ने एक दूसरे की याचिका खारिज करने के लिए तकनीकी बिंदु उठाए. जैसे रामलला विराजमान पक्ष ने कहा कि मुस्लिम पक्ष की याचिका देर से दाखिल होने के चलते खारिज कर दी जानी चाहिए.
हिंदू (रामलला) पक्ष ने कहा, ''हाईकोर्ट ने सिविल मुकदमा दायर करने के लिए लगने वाले समय सीमा के आधार पर निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड की याचिकाओं को निरस्त किया था. 1949 में विवादित इमारत में रामलला की मूर्तियां पाई गई. 1950 में गोपाल सिंह विशारद ने वहां पूजा का अधिकार मांगने के लिए याचिका दाखिल कर दी. लेकिन निर्मोही अखाड़ा 10 साल बाद 1959 में कोर्ट पहुंचा. सुन्नी वक्फ बोर्ड तो 12 साल से भी ज्यादा समय के बाद 1961 में कोर्ट पहुंचा. एडवर्स पोजेशन के सिद्धांत के हिसाब से अब वह जगह रामलला की है.''
मुस्लिम पक्ष ने कहा, ''यह गलत है. 1934 के बाद से मुसलमानों को वहां जाने से रोका जाने लगा. 1949 में वहां गैर कानूनी तरीके से मूर्तियां रख दी गई. फिर हमें जाने से पूरी तरह रोक दिया गया. मामला कोर्ट और सरकार के पास था. इसलिए हमने तुरंत याचिका दाखिल नहीं की.'' निर्मोही अखाड़ा ने कहा, ''यह कैसे कहा जा सकता है कि हमने समय सीमा का पालन नहीं किया. 1955 में जगह को प्रशासन के कब्जे में दे दिया गया. हमने इसके 4 साल के भीतर याचिका दाखिल कर दी. समय 1949 से नहीं गिना जा सकता.''
एडवर्स पोजेशन संपत्ति से जुड़े मामलों में दुनियाभर में प्रचलित एक सिद्धांत है. इसके मुताबिक अगर कोई किसी की संपत्ति पर रहने लगे; और संपत्ति का मालिक एक तय समय सीमा के भीतर इसे कोर्ट में चुनौती न दे तो वहां रहने वाले को संपत्ति का मालिकाना हक मिल जाता है. 10 साल और 12 साल के बाद दाखिल मुकदमों को हाईकोर्ट ने लिमिटेशन के आधार पर निरस्त कर दिया था. इसके बावजूद सुन्नी वक्फ बोर्ड और निर्मोही अखाड़े को सिर्फ इस आधार पर एक-एक तिहाई ज़मीन दे दी गई थी कि उनका दावा ऐतिहासिक है.
अगर सुप्रीम कोर्ट भी लिमिटेशन के इस नियम को मानता है तो निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड का दावा बहुत कमजोर पड़ जाएगा. वैसे हिंदू पक्ष ने एडवर्स पजेशन और लिमिटेशन का मसला उठाया तो मुस्लिम पक्ष ने भी एक तकनीकी पहलू उठा दिया. उसने 1886 में आए फैजाबाद कोर्ट के फैसले का हवाला दिया और कहा अब हिंदू पक्ष के दावे पर सुनवाई नहीं होनी चाहिए.
मुस्लिम पक्ष ने कहा, ''रेस ज्यूडिकाटा. यह कानून का एक अहम सिद्धांत है जिसे हाईकोर्ट ने अनदेखा कर दिया. 1885 में महंत रघुवर दास ने इमारत के बाहर राम चबूतरा पर एक मंदिर बनाने की इजाजत मांगी थी. 1886 में फैजाबाद के जिला जज ने उन्हें मना कर दिया. कहा कि वहां 350 साल से एक इमारत है. जगह की स्थिति में किसी बदलाव की इजाज़त नहीं दी जा सकती. इससे तनाव हो सकता है. जब एक बार कोर्ट ने स्थिति में कोई बदलाव न करने का आदेश दे दिया था तो उसके साथ 70 साल बाद दाखिल याचिकाओं का कोई मतलब नहीं रह जाता है. रेस ज्यूडिकाटा के नियम के तहत उन पर सुनवाई नहीं होनी चाहिए थी.''
हिंदू पक्ष ने कहा, ''महंत रघुवर दास ने व्यक्तिगत रूप से याचिका दाखिल की थी. उन्हें हिंदू समाज ने अधिकृत नहीं किया था. उनकी याचिका के खारिज होने से रेस ज्यूडिकाटा का नियम लागू नहीं हो सकता.'' मुस्लिम पक्ष ने कहा, ''रघुवर दास के नाम के आगे महंत लगा था. इसका मतलब यही होता है कि वह एक अखाड़े के महंत थे. हिंदू समाज की नुमाइंदगी कर रहे थे. वह मंदिर अपने लिए तो नहीं बनाना चाहते थे.''
हिंदू पक्ष, ''हाईकोर्ट इस दलील को खारिज कर चुका है. किसी एक व्यक्ति की याचिका के आधार पर भगवान राम में आस्था रखने वाले करोड़ों लोगों को नहीं रोका जा सकता. वैसे भी फैज़ाबाद के जिला जज ने सांप्रदायिक तनाव की आशंका के चलते स्थिति में बदलाव से मना किया था. उन्होंने खुद माना था कि जगह हिंदुओं के लिए पवित्र और पूज्य है.''
रेस ज्युडिकाटा का नियम यह कहता है कि जब कोई कोर्ट किसी मसले पर अंतिम फैसला कर दे तो उसे दोबारा नहीं उठाया जा सकता. 1886 के बाद 1950 में जब गोपाल सिंह विशारद की याचिका दाखिल हुई, तब तक परिस्थिति बदल चुकी थी. रघुवरदास बाहर चबूतरे पर एक मंदिर बनाना चाहते थे, विशारद अंदर विराजमान देवता की पूजा की इजाज़त मांग रहे थे.
रघुवरदास की याचिका को बाकी सभी हिंदुओं की याचिका भी नहीं कहा जा सकता था. ऐसी तमाम वजह रही जिसके चलते हाई कोर्ट ने याचिकाओं पर सुनवाई न करने की मांग नहीं मानी. सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भी इसका असर पड़ने की उम्मीद कम ही है. इस दलील के अलावा मुस्लिम पक्ष ने पूरी 2.77 एकड़ जमीन को पूजा की जगह बताए जाने का भी विरोध किया. कहा कि ऐसा कर के हिंदू पक्ष उसे बाहर कर देना चाहता है.
मुस्लिम पक्ष ने कहा, ''हिंदुओं के मस्जिद में पूजा करने का कोई सबूत नहीं है. उन्होंने बाद में मस्जिद को असली जन्मस्थान कहना शुरू कर दिया.'' जस्टिस ने कहा, ''आप कह रहे हैं कि हिंदुओं ने अंदर कभी पूजा नहीं की. लेकिन 1857 के सिपाही विद्रोह की घटनाओं को दर्ज करने वाले कार्नेगी ने लिखा था कि उस समय हिंदू और मुसलमान मस्जिद के भीतर प्रार्थना किया करते थे.''
मुस्लिम पक्ष ने कहा, ''हम यही जानते हैं कि पहली बार कोई गैर मुस्लिम अंदर दाखिल हुआ तो वह सिख थे. 1858 में कुछ सिख अंदर घुस आए थे.'' जस्टिस ने कहा, ''सिख भी भगवान राम में आस्था रखते हैं.'' हिंदू पक्ष ने कहा, ''28 नवंबर 1858 को करीब 25 निहंग सिख इमारत में घुस गए थे. उन्होंने वहां जगह-जगह राम लिख दिया. हिंदू धार्मिक झंडा फहरा दिया. अंदर ही हवन और पूजा करने लगे. कई दिनों बाद पुलिस उन्हें वहां से निकाल पाई.''
मुस्लिम पक्ष ने कहा, ''इस घटना के बाद राम चबूतरा और मस्जिद के बीच अंग्रेज़ों ने रेलिंग लगवा दी.'' जस्टिस ने कहा, ''हिंदू रेलिंग के पास जाकर इमारत की तरफ मुंह कर पूजा क्यों करते थे? क्या उन्हें विश्वास था कि असली जन्मस्थान इमारत के अंदर की जगह है.''
मुस्लिम पक्ष ने कहा, ''हम नहीं कह सकते कि वह लोग रेलिंग के पास पूजा क्यों करते थे. महंत रघुवरदास ने 1885 में राम चबूतरा पर मंदिर बनाने का मुकदमा किया था. हो सकता है वही जगह राम का जन्मस्थान हो. मस्ज़िद के गुंबद के नीचे ही जन्मस्थान होने का कोई सबूत नहीं.'' जस्टिस ने कहा, ''लेकिन हम लोगों को ऐसा विश्वास करने से तो नहीं रोक सकते.''
सिखों का इमारत में घुस कर जगह जगह राम नाम लिख देना. रेलिंग लग जाने के बाद हिंदुओं का रेलिंग के पास बैठ कर पूजा करना. यह ऐसी बातें थीं, जिन्होंने कोर्ट में बैठे लोगों को भी चौंकाया. इन तथ्यों का महत्व इसलिए है क्योंकि यह विवादित इमारत के भीतर भगवान राम का जन्मस्थान होने के हिंदुओं के विश्वास की पुष्टि करते हैं. मुख्य पक्षकारों के अलावा कुछ और पक्षों ने भी अपनी बात रखी. इनमें से शिया वक्फ बोर्ड ने तो ज़मीन हिंदुओं को सौंपने की ही पेशकश कर डाली.
शिया वक्फ बोर्ड के वकील ने कहा, ''मस्ज़िद बनवाने वाले मीर बाकी शिया था. इसलिए वह शिया मस्ज़िद थी. हम चाहते हैं कि जगह हिंदुओं को सौंप दें.'' जस्टिस ने कहा, ''आप यह दावा 1946 में ही हार चुके हैं. तब कोर्ट ने जगह पर सुन्नी वक्फ बोर्ड के अधिकार को माना था.''
इसपर शिया बोर्ड के वकील ने कहा, ''हमने उस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे रखी है. वहां शिया वक्फ बोर्ड का नियुक्त मुतवल्ली था. शियाओं के साथ सुन्नी भी नमाज़ पढा करते थे. हमने उनकी सुविधा के लिए सुन्नी इमाम रखा. कोर्ट ने इमाम को देखते हुए जगह को सुन्नियों की मस्जिद मान लिया. जगह असल में हमारी है. हम देश के अमन-चैन और सौहार्द के लिए उसे हिंदुओं को देना चाहते हैं.''
शिया वक्फ बोर्ड के इस बयान का मुकदमे पर शायद ही कोई असर पड़ेगा. मामले के 3 ही मुख्य पक्षकार हैं – रामलला विराजमान, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड. हाई कोर्ट ने तीनों को एक-एक तिहाई हिस्सा दिया था. लेकिन हर पक्ष पूरी ज़मीन खुद को दिए जाने की मांग कर रहा है. 40 दिनों तक चली सुनवाई के दौरान कई बार वकील बातों को दोहराते नज़र आए, लेकिन 5 जजों की बेंच ने पूरे धैर्य से उन्हें सुना. हफ्ते में 5 दिन सुनवाई की. रोज़ाना 1 घंटा ज़्यादा सुनवाई की.
अदालतों का काम-काज इस अवधारणा पर चलता है कि इंसाफ न सिर्फ होना चाहिए, होता हुआ नजर भी आना चाहिए. सुनवाई के दौरान कोर्ट ने यह सुनिश्चित किया कि किसी पक्ष को ऐसा न लगे कि उसे मौका नहीं दिया गया. सभी पक्ष इससे संतुष्ट नज़र आए. उम्मीद है कि यही संतोष फैसले के बाद भी नज़र आए. सदियों पुराने इस विवाद पर ऐसा फैसला आए जिसकी सदियों तक मिसाल दी जाए.