अयोध्या विवाद: स्वामी बोले- ‘मुस्लिम समाज मान ले हमारा प्रस्ताव नहीं तो 2018 में लाएंगे कानून’
नई दिल्ली: अयोध्या मंदिर विवाद पर बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने कहा है कि मुस्लमि समाज हमारा प्रस्ताव मान ले नहीं तो 2018 में जब राज्यसभा में बीजेपी का बहुमत होगा तो कानून बनाकर मंदिर बनाया जाएगा. कल ही सुप्रीम कोर्ट ने बातचीत से मसले को सुलझाने की सलाह दी थी.
क्या लिखा है सुब्रमण्यम स्वामी ने
आज सुबह सुब्रमण्यम स्वामी ने ट्वीट कर लिखा, ‘’सरयू नदी के उस पार मस्जिद बनाने का मेरा प्रस्ताव मुस्लिम समाज को मान लेना चाहिए. अगर मुस्लिम समाज हमारा प्रस्ताव नहीं मानता है तो साल 2018 में राज्यसभा में बहुमत होने के बाद मंदिर बनाने के लिए कानून बनाएंगे.’’
Muslim should accept my proposal for a masjid across Saryu. Or else in 2018 on getting the RS majority we will enact a law to build temple
— Subramanian Swamy (@Swamy39) March 21, 2017
कल सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा था ?
सुब्रमण्यम स्वामी- भूमि विवाद पर हाईकोर्ट का फैसला आये 6 साल हो गए लेकिन अबतक कुछ नहीं हुआ. आप जल्द से जल्द फैसला करें.
चीफ जस्टिस खेहर- मामला काफी संवेदनशील है. इस तरह के मसलों का हल आपसी सहमति से होना चाहिए. अगर दोनों पक्ष, बातचीत के लिए तैयार हो जाएं तो मध्यस्थता के लिए मैं खुद भी तैयार हूं.
सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी का बीजेपी और सरकार ने भी स्वागत किया, लेकिन बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी ने कहा कि उसे इस बात का कतई भरोसा नहीं है कि कोर्ट के बाहर उसे इंसाफ मिल सकेगा लिहाजा इस विवाद में सुप्रीम कोर्ट ही आखिरी फैसला करे. मतलब अयोध्या विवाद फिर से उसी मुकाम पर पहुंच गया जहां 6 साल पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद पहुंचा था.
हाईकोर्ट ने क्या फैसला सुनाया था?
हाईकोर्ट ने अपने फैसले में विवादित 2.77 एकड़ भूमि को तीन बराबर हिस्सों में बांटने का फैसला सुनाया था. कोर्ट के फैसले के मुताबिक राम मूर्ति वाला हिस्सा रामलला विराजमान को, राम चबूतरा और सीता रसोई का हिस्सा निर्मोही अखाड़ा को और तीसरा हिस्सा सुन्नी वक्फ बोर्ड को देने का आदेश दिया था.
अटका हुआ है मामला!
हाईकोर्ट के फैसले के बाद अयोध्या विवाद का मसला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और उसी सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट ने इस विवाद को कोर्ट से बाहर सुलझाने का सुझाव दिया लेकिन नतीजा सिफर.
अयोध्या विवाद के बाद बनने वाले देश के हर प्रधानमंत्री ने इस मसले को कोर्ट से बाहर आपसी सहमति के आधार पर सुलझाने की कोशिश की है, लेकिन मामला इतना पेचीदा और संवेदनशील है कि विवाद से जुड़े दोनों पक्ष कभी एक राय पर नहीं पहुंच पाए.
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