नई दिल्ली: अयोध्या के राम मंदिर विवाद ने तब एक बड़ा मोड़ ले लिया था जब छह दिसंबर 1992 को लाखों कारसेवकों की भीड़ ने बाबरी मस्जिद का विवादित ढांचा गिरा दिया गया. उस वक्त उत्तर प्रदेश में बीजेपी की सरकार थी और कल्याण सिंह मुख्यमंत्री थे.
अयोध्या राम जन्मभूमि विवाद को लेकर आज से सुप्रीम कोर्ट में सबसे बड़ी सुनवाई
दरअसल छह दिसंबर 1992 को अयोध्या में जो हुआ उसकी नींव 1990 में आडवाणी की रथयात्रा से ही पड़ गई थी. तब ये नारा दिया गया था कि ‘कसम राम की खाते हैं मंदिर वहीं बनाएंगे’ यानी जहां बाबरी मस्जिद का विवादित ढांचा खड़ा था वहीं पर मंदिर बनेगा.
जानें- अयोध्या विवाद पर क्या था इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला?
पांच दिसंबर 1992 को पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के एक बयान ने हवा का रुख बदल दिया. उन्होंने कहा था, ‘’उस जगह को समतल तो करना पड़ेगा.’’ वाजपेयी के इस भाषण के अगले ही दिन अयोध्या में लाखों कारसेवकों की भीड़ जुट चुकी थी. इस भीड़ के साथ-साथ बीजेपी, विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल के तमाम नेता ढांचे के पास बने मंच पर मौजूद थे.
अयोध्या विवाद: राम मंदिर के लिए फॉर्मूलों पर क्यों नहीं बनी बात?
उस दिन सुबह करीब 11 बजे कुछ कारसेवक ढांचे के आसपास बनी रेलिंग को फांदकर अंदर घुसने की कोशिश करने लगे. अंदर तैनात पीएसी के जवानों ने उन्हें रोका तो उन पर पथराव शुरू हो गया.किसी के हाथ में फावड़े तो कोई हथौड़े लेकर विवादित ढांचे की तरफ बढ़ा चला जा रहा था.
यही नहीं ढांचे को गिराने के लिए बड़ी-बड़ी रस्सियों का इंतजाम भी पहले से कर लिया गया था. इतनी तैयारी के साथ आई कारसेवकों की भीड़ में से कुछ लोग जल्द ही गुंबद तक पहुंच गए और फिर देखते ही देखते गुंबद को गिरा दिया गया.