नई दिल्ली: अयोध्या के धन्नीपुर गांव में बनने वाली मस्जिद और अस्पताल का नाम स्वतंत्रता सेनानी और क्रांतिकारी मौलवी अहमदउल्लाह शाह फैजाबादी के नाम पर रखने का फैसला किया गया है. 164 साल पहले उनका निधन हो गया था. मस्जिद निर्माण के लिए बने इंडो इस्लामिक कल्चरल फाउंडेशन ने शनिवार को इसका एलान किया था. रामजन्मभूमि को लेकर लंबे समय से चल विवाद का निपटारा करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या में मस्जिद बनाने के लिए पांच एकड़ जमीन देने का फैसला सुनाया था.
इतिहासकारों के मुताबिक स्वतंत्रता सेनानी और क्रांतिकारी मौलवी अहमदुल्ला शाह फैजाबादी हिंदू मुस्लिम एकता के बड़े पैरोकार थे. उन्हें फैजाबाद की गंगा जमुनी तहजीब का पैरोकार माना जाता था. उन्होंने अवध को ब्रिटिश सरकार के आजाद करवाने के लिए आंदोलन चलाया था.
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान उनकी बहादुरी के किस्से भी कम नहीं हैं. ब्रिटिश सेना में उनके खौफ का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है, उनकी मौत के बाद उनका सिर और धड़ अलग अलग जगह दफनाया गया था. अंग्रेजों को डर था कि लोग कहीं उनकी कब्र पर मकबरा ना बना दें.
मौलवी अहमदउल्लाह शाह फैजाबादी ने 1857 में आजादी के पहले आंदोलन के दौरान कई राजघरानों की मदद भी की. इनमें कानपुर के नाना साहिब और बिहार के आरा के कुंअर सिंह का नाम शामिल है. आजादी के आंदोलन में उनके असीम सहयोग और साहस के लिए उन्हें 'लाइट हाउस आफ इंडिपेंडेंस' की उपाधि से भी नवाजा गया.
धोखे से हुई थी हत्या
मौलवी अहमदउल्लाह शाह फैजाबादी के हौसले इतने बुलंद थे कि उन्हें मारने की हिम्मत भी नहीं कर पाए. उन्हें मारने के लिए अंग्रेजों ने धोखे और छल का सराहा लिया. दरअसल शाहजहांपुर के जमींदार राजा जगन्नाथ सिंह आंदोलन में मदद लेना चाहते थे. इसके लिए वे 5 जून 1858 को उनके महल मिलने के लिए पहुंचे. गेट पर पहुंचने पर, उन्होंने जगन्नाथ सिंह के भाई और अनुचरों की गोलियों से उनका स्वागत किया गया. मौलवी की मौके पर ही मौत हो गई.
शहीदी दिवस पर नाम रखने का फैसला, 164 साल बाद मिलेगा हक- आईआईसीएफ
इंडो-इस्लामिक कल्चरल फाउंडेशन के सचिव अतहर हुसैन ने कहा कि, "उनके शहीद दिवस पर उनके नाम पर पूरी परियोजना का नाम रखने का फैसला किया है. जनवरी में, हमने मौलवी फैजाबादी को शोध केंद्र समर्पित किया, जो हिंदू-मुस्लिम भाईचारे का प्रतीक थे. 160 साल भी आजादी के पहले युद्ध के बाद, अहमदुल्ला शाह फैजाबादी को भारतीय इतिहास के इतिहास में अभी तक उनका हक नहीं मिला है. मस्जिद सराय, फैजाबाद, जो 1857 के विद्रोह के दौरान मौलवी का मुख्यालय था, एकमात्र जीवित इमारत है जो उनके नाम को संरक्षित करती है."