नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने बाबरी मस्जिद विध्वंस से जुड़े 2 मुकदमे एक साथ चलाने के संकेत दिए हैं. एक मामला लखनऊ में है, दूसरा रायबरेली में. कोर्ट ने कहा है कि रायबरेली के मुकदमे को भी लखनऊ की कोर्ट में ट्रांसफर किया जा सकता है.
आज सुप्रीम कोर्ट ने 25 साल तक मामले के खिंचने पर सवाल उठाए. कोर्ट ने कहा हम मामले में रोज़ाना सुनवाई करने और उसे 2 साल के भीतर निपटाने का आदेश दे सकते हैं.
क्या होगा असर ?
दोनों मामले साथ चलने से लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, कल्याण सिंह समेत कई बड़े नेताओं पर साज़िश करने की धारा बहाल हो जाएगी. ये सभी नेता मुकदमा चलाने में हुई तकनीकी गलतियों के चलते आपराधिक साजिश की गंभीर धारा से बच गए थे.
क्या तकनीकी गलती थी ?
1992 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद 2 एफआईआर दर्ज हुई. एफआईआर संख्या 197 लखनऊ में दर्ज हुई. ये मामला ढांचा गिराने के लिए अनाम कारसेवकों के खिलाफ था. एफआईआर संख्या 198 को ललितपुर में दर्ज किया गया. इसे बाद में रायबरेली ट्रांसफर किया गया. इस एफआईआर में 8 बड़े नेताओं के ऊपर मंच से हिंसा भड़काने का आरोप था. ये बड़े नेता थे- लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, साध्वी ऋतम्भरा, गिरिराज किशोर, अशोक सिंहल, विष्णु हरि डालमिया, उमा भारती और विनय कटियार.
बाद में इन दोनों मामलों को लखनऊ की कोर्ट में ट्रांसफर कर दिया गया. सीबीआई ने जांच के दौरान साज़िश के सबूत पाए. उसने दोनों एफआईआर के लिए साझा चार्जशीट दाखिल की. इसमें बाल ठाकरे समेत 13 और नेताओं के नाम जोड़े गए. कुल 21 नेताओं के खिलाफ आपराधिक साजिश की धारा 120b के आरोप लगाए गए.
2001 में इलाहबाद हाई कोर्ट ने पाया कि एफआईआर 198 को लखनऊ की स्पेशल कोर्ट में ट्रांसफर करने से पहले चीफ जस्टिस से इसकी इजाज़त नहीं ली गयी थी. ऐसा करना कानूनन ज़रूरी था. इस वजह से लखनऊ की कोर्ट को एफआईआर 198 पर सुनवाई का अधिकार नहीं था.
हाई कोर्ट ने इस निष्कर्ष के आधार पर दोनों मामलों को अलग चलाने का आदेश दिया. इस फैसले को बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी सही ठहराया. दोनों मामले अलग होने के चलते सीबीआई की साझा चार्जशीट बेमानी हो गयी. 8 नेताओं का मुकदमा रायबरेली वापस पहुंच गया. बाद में इसी को आधार बनाकर वो 13 नेता भी मुकदमे से बच गए जिनका नाम साझा चार्जशीट में शामिल था. इसका सबसे बड़ा असर ये हुआ कि किसी भी नेता के ऊपर आपराधिक साजिश की धारा बची ही नहीं.
13 नेताओं को मुकदमे से अलग करने का हाई कोर्ट का फैसला 2011 में आया. सीबीआई ने इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. आज सुप्रीम कोर्ट में इसी मामले की सुनवाई हो रही थी.
क्या थीं दलीलें ?
सीबीआई ने तकनीकी आधार पर नेताओं के बचने का विरोध किया. एडिशनल सॉलिसिटर जनरल नीरज किशन कौल ने कहा कि जब एजेंसी को जांच में साज़िश के सबूत मिले तो उसे इसके तहत मुकदमा करने का अधिकार मिलना चाहिए.
इसका विरोध करते हुए लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी की तरफ से पेश वरिष्ठ वकील के के वेणुगोपाल ने कहा कि सीबीआई ने मामले में लगातार कोताही बरती है. उसे अगर साज़िश की बात सही लगती है तो एडिशनल चार्जशीट दाखिल करनी चाहिए थी. दोनों मामले अलग करने के फैसले को सुप्रीम कोर्ट खुद सही ठहरा चुका है.
मामले में अर्ज़ी दाखिल करने वाले एक शख्स हाजी महमूद के वकील कपिल सिब्बल ने कहा कि सीबीआई की कई कमियां गिनाईं जा सकती हैं. लेकिन ये इंसाफ के आड़े नहीं आ सकता. सुप्रीम कोर्ट को ऐसे मामलों में विशेष शक्तियां हासिल हैं.
कोर्ट का रुख ?
जस्टिस पी सी घोष और रोहिंटन नरीमन की बेंच पहले भी कह चुकी है कि महज़ तकनीकी वजहों से किसी आरोपी का बचना गलत है. जजों ने आज भी कहा कि न्याय के हित में फैसला लेने के लिए वो अनुच्छेद 142 के तहत मिली विशेष शक्ति का इस्तेमाल कर सकते हैं.
वरिष्ठ वकील वेणुगोपाल ने इसका पुरज़ोर विरोध किया. उन्होंने कहा कि ऐसा करना कानूनन गलत होगा. बेंच ने सभी वकीलों की जिरह सुनने के बाद आदेश सुरक्षित रख लिया. सभी पक्षों को लिखित तरीके से अपनी बात रखने के लिए मंगलवार, 11 अप्रैल तक का समय दिया गया है.