'वो जो हममें तुममें क़रार था...' ग़ज़ल की शमा रौशन कर आफताब बन चमकती हैं बेगम अख्तर
जब दर्द शब्दों के जरिए गले के निकलता है तो कमाल कर जाता है. अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी ने भी अपनी गायकी का कुछ ऐसा जादू चलाया कि दुनिया भर में मल्लिका-ए-ग़ज़ल बेगम अख़्तर के नाम से मशहूर हो गईं.
ग़ज़ल न महबूब के जिस्म का इश्तहार है न लफ्ज़ों से बनाई गई कोई बेतुकी फिल्म. ग़ज़ल तो इश्क़ का वो पाक़ीज़ा ज़ज्बा है जो औरत के आंचल के बोसे के लिए भी इंतिज़ार में सारी उम्र गुज़ार देता है. गज़ल की इस परिभाषा को न सिर्फ आवाज़ देने, बल्कि जी कर भी जिस एक शख्स ने दिखाया वो नाम है अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी. वही अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी जिन्हें हम सब मल्लिका-ए-ग़ज़ल बेगम अख़्तर के नाम से जानते हैं.
बेगम अख़्तर ने जब-जब हारमोनियम पर हाथ चलाया और मखमली आवाज में गाया तो लोगों के दिल, धड़कन और सांसों में वो आवाज उतर गई.. शकील बदायूंनी की लिखी यह ग़ज़ल उनकी आवाज़ में आज भी लोग सुनते हैं तो यह मानने को मज़बूर हो जाते हैं कि बेग़म अख्तर ने ठुमरी, दादरा और ग़ज़ल को शास्त्रीय संगीत के बराबर लाकर खड़ा किया और बड़े-बड़े दिग्गज उस्तादों से अपनी गायिकी का लोहा मनवाया.
ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया
जाने क्यों आज तेरे नाम पे रोना आया
यूँ तो हर शाम उम्मीदों में गुज़र जाती थी
आज कुछ बात है जो शाम पे रोना आया
बेगम अख़्तर उन गायिकाओं में हैं जिनका हाथ हारमोनियम पर पानी की तरह चलता था. कहते हैं कि आज़ाद पंक्षी की तरह गाने वाली बेगम ने अपनी गायकी को अपनी तन्हाई का साथी बना लिया था. आज उसी मल्लिका-ए-ग़ज़ल बेगम अख़्तर की जयंती है. संगीत को एक नए अंजाम पर पहुंचाने वाली अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी के नाम के आगे बेशक 'बेगम' लगा हो लेकिन उनकी ज़िंदगी के साथ ग़म का नाता ऐसा रहा जैसे धड़कन और सांसों का रहता है.
वो कहते हैं ना जब दर्द शब्दों के जरिए गले के निकलता है तो कमाल कर जाता है. अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी ने भी अपनी गायकी का कुछ ऐसा जादू चलाया कि दुनिया भर में मल्लिका-ए-ग़ज़ल बेगम अख़्तर के नाम से मशहूर हो गईं. बेगम अख्तर का जन्म 7 अक्टूबर 1914 को उत्तर प्रदेश के फैजाबाद में हुआ था. उन्हें बचपन से ही गायिका बनना था लेकिन परिवार वाले उनकी इस इच्छा के सख्त खिलाफ थे.
हालांकि अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी के चाचा ने उनके शौक को आगे बढ़ाने की सोची और यहीं से अख्तरी बाई के संगीत का सफर शुरु हो गया. उन्हें संगीत से प्यार सात साल की उम्र में थियेटर अभिनेत्री चंदा का गाना सुनकर हुआ था. उस जमाने के जाने माने संगीत उस्ताद अता मुहम्मद खान, अब्दुल वाहिद खान और पटियाला घराने के उस्ताद झंडे खान से उन्हें भारतीय शास्त्रीय संगीत की दीक्षा दिलाई गई.
जब बेगम अख़्तर ने कहा- संगीत नहीं सीखना
बेगम के बचपन का एक किस्सा काफी मशहूर है. उस वक्त वह संगीत सीखने उस्ताद मोहम्मद खान के पास जाया करती थी. शुरुआती दिनों में बेगम अख़्तर सुर नहीं लगा पाती थी, जिसकी वजह से उस्ताद मोहम्मद खान ने एक बार उन्हें डांट दिया. इसपर बेगम अख़्तर रोने लगीं और कहा कि उन्हें संगीत नहीं सिखना. इसके बाद उनके उस्ताद ने उन्हें प्यार से समझाते हुए कहा, ''बस इतने में ही हार मान गयी, ऐसे हिम्मत नहीं हारते, मेरी बहादुर बिटिया चलो एक बार फिर से सुर लगाने में जुट जाओ,'' बस फिर क्या था बेगम अक़्तर ने एक बार फिर कोशिश की और आज दुनिया उन्हें उनके सुर साधना के लिए जानती है.
बेगम अख्तर को बचपन से ही बेहतरीन गायिका के रूप में तैयार किया था. 15 साल की उम्र में उन्होंने अपनी पहली प्रस्तुति दी थी. यह कार्यक्रम साल 1930 में बिहार में आए भूकंप के पीड़ितों के लिए आर्थिक मदद जुटाने के लिए आयोजित किया गया था, जिसकी मुख्य अतिथि कवयित्री सरोजनी नायडू थीं. सरोजनी नाडयू बेगम अख्तर के गाने से इतनी प्रभावित हुईं कि उन्होंने उपहार के तौर पर एक साड़ी भेंट कर दी.
संगीत सिखाने के बहाने की थी गलत हरकत
कहते हैं बेगम अख़्तर की आवाज़ में यह जादू एक गहरे और विभत्स्य अंधेरे के बाद आई थी. उन्होंने कई उस्तादों से संगीत की तालीम ली. सात साल की उम्र में उनके जीवन में एक बड़ी दर्दनाक और अमानवीय घटना घटी. उनके एक उस्ताद ने संगीत सिखाने के बहाने उनके कपड़े उठाकर अपना हाथ उनकी जांघ पर सरका दिया था. बेगम अख्तर की जीवनी लिखने वाली रीता गांगुली ने अपनी किताब में इस बात का जिक्र भी किया है. उन्होंने कहा है कि उस्ताद द्वारा किए गए इस हरकत के बाद इस घटना के बाद बेगम अख्तर ने संगीत सीखने वाली करीब 200 लड़कियों से उन्होंने बात की और लगभग सभी ने अपने उस्तादों को लेकर इस प्रकार की शिकायत की.
13 साल की उम्र में बनीं बिन ब्याही मां
इस हादसे के अलावा उनकी जिंदगी में एक और हादसा घटा, जिससे वह कभी नहीं उबर पाईं. यह हादसा 13 साल की उम्र में हुआ था. उस वक्त बिहार का एक राजा उनका कदरदान बन गया था. उसने उन्हें अपने यहां गाना गाने का न्योता दिया. इसके बाद उस राजा ने बेगम अख़्तर के साथ बलात्कार किया. इस घटना की वजह से वह प्रेग्नेंट हो गईं और एक बच्ची को जन्म दिया जिसका नाम शमीमा रखा गया. बहुत बाद में लोगों को उनके साथ हुए इस हादसे के बारे में पता चला, लेकिन इस क्रूर हादसे के बावजूद बेगम अख्तर ने दोबारा खुद को समेटा और जीवन को नए सिरे से शुरू किया.
इश्तिआक अहमद अब्बासी से निकाह
बेगम अख़्तर ने साल 1945 में इश्तिआक अहमद अब्बासी नाम के शख्स से निकाह किया था. अब्बासी पेशे से एक वकील थे. उनसे निकाह करने के बाद ही वह अख़्तरी बाई फ़ैज़ाबादी से बेगम अख़्तर बन गयीं. वहीं निकाह के बाद बेगम ने संगीत छोड़ दिया. हालांकि 1949 में वह गायकी में वापस आईं. उन्होंने तीन ग़ज़ल और एक दादरा गया. इनके गायकी का सिलसिला उनके आखिरी सांस तक जारी रहा.
सबसे मशहूर ग़ज़ल -
''वो जो हममे तुममें क़रार था, तुम्हें याद हो के न याद हो, वही यानी वादा निभाह का तुम्हे याद हो के न याद हो'' बेगम साहिबा का मकान लखनऊ में भले ही आज भी वीरान पड़ा है लेकिन वहां कि फिज़ाओं में आज भी मानो यह ग़ज़ल गूंजती है. यह उनकी सबसे प्रसिद्ध गज़ल है. इसे मोमिन ख़ां मोमिन ने लिखा है.
चर्चित लेखक और संगीत अध्येता यतीन्द्र मिश्र ने भी उनके जीवन पर एक किताब प्रस्तुत की है. इस किताब का नाम 'अख़्तरी : सोज़ और साज़ का अफ़साना'. इस पुस्तक में उन्होंने बेगम अख़्तर के बारे में लिखा है, ''उस दौर में बेगम अख़्तर ने अपनी पूरी रवायत को इज़्ज़त दिलवायी. ठुमरी, दादरा और ग़ज़ल को शास्त्रीय संगीत के बराबर लाकर खड़ा किया और बड़े-बड़े दिग्गज उस्तादों से अपनी गायिकी का लोहा मनवाया. उनके गाने के बाद से ग़ज़ल के लिए कभी किसी ने कोई छोटी बात नहीं कही. यह बेगम अख़्तर की सफलता थी.''
यतीन्द्र मिश्र लिखते हैं, ''तमाम अन्य तवायफ़ों के अफ़सानों से अलग है. यहां मीर, ग़ालिब, मोमिन से लेकर ठुमरी, ग़ज़ल, कजरी के साथ पुराना फ़ैज़ाबाद, पुराना लखनऊ और पुरानी दिल्ली भी देखने को मिलती है.''
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