Bhola Paswan Shastri: पंजाब में चरनजीत सिंह चन्नी मुख्यमंत्री क्या बन गए, पंजाब समेत चुनावी राज्यों की सियासत में दलित वोट बैंक को लेकर अलग से बहस ही चल पड़ी है. कुछ महीनों पहले बीजेपी और आम आदमी पार्टी ने कहा था कि पंजाब में सरकार बनने पर दलित को मुख्यमंत्री बनाएंगे तो कांग्रेस ने उससे पहले ही दलित मुख्यमंत्री बना दिया. हरीश रावत कह रहे हैं कि वो चाहते हैं कि उत्तराखंड में भी दलित ही मुख्यमंत्री बने तो अब मायावती और उनकी पार्टी बीएसपी इसको ड्रामा करार दे रही है. यूपी सीएम योगी तो दलित को इमारत की नींव बता रहे हैं, लोग इसके लिए भी उन्हें घेर रहे हैं. लेकिन याद करिए देश के पहले दलित मुख्यमंत्री भोला पासवान शास्त्री को, जो तीन-तीन बार एक बड़े राज्य के मुख्यमंत्री रहे, लेकिन जब उनकी मौत हुई तो परिवार के पास इतने भी पैसे नहीं थे कि ठीक से अंतिम संस्कार तक कर सकें.


देश को पहले दलित मुख्यमंत्री मिलने की तारीख थी 22 मार्च 1968. राज्य था बिहार और मुख्यमंत्री का नाम था भोला पासवान शास्त्री. यूं तो उनका नाम भोला पासवान ही था, लेकिन बनारस से उन्होंने साल 1939 में संस्कृत में शास्त्री की उपाधि हासिल की थी और तभी से उनका नाम भोला पासवान शास्त्री हो गया था. उन्होंने अपनी सियासत की शुरुआत तो कांग्रेस से ही की थी, लेकिन 1967 में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के हारने और फिर कांग्रेस का बाहर से समर्थन देकर वीपी मंडल को मुख्यमंत्री बनाने को लेकर जो सियासी ड्रामा हुआ, उससे कांग्रेस टूट गई. विनोदानंद झा के नेतृत्व में भोला पासवान शास्त्री समेत कुल विधायकों ने पार्टी तोड़कर नई पार्टी बनाई और नाम रखा लोकतांत्रिक कांग्रेस.



संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, जन क्रांति दल, जनसंघ और निर्दलीय विधायकों के समर्थन से भोला पासवान शास्त्री 22 मार्च, 1968 को बिहार के मुख्यमंत्री और देश के पहले दलित मुख्यमंत्री बने. मुख्यमंत्री बनने के बाद भी उन्हें अपने गांव जाने के लिए बैलगाड़ी का ही सहारा लेना पड़ता था क्योंकि गांव में सड़क तक नहीं थी. उनका गांव पूर्णिया जिले में पड़ता था, जिसका नाम था बैरगाछी. भोला पासवान शास्त्री की खुद की कोई औलाद नहीं थी तो उनके भतीजे विरंची पासवान ने उनसे कहा कि वो अपने गांव में एक सड़क बनवा दें ताकि लोगों को आने-जाने में सुविधा हो सके. भोला पासवान शास्त्री ने कहा था- अगर मैं अपने गांव में सड़क बनवा दूंगा तो मेरे ऊपर एक दाग लग जाएगा.


हालांकि भोला पासवान शास्त्री अपने पद पर महज तीन महीने ही रह सके. सिर्फ 17 विधायकों वाली पार्टी के नेता का लंबे समय तक मुख्यमंत्री पद पर बने रहना मुश्किल ही था और यही हुआ. जून महीना खत्म होते-होते उन्होंने इस्तीफा दे दिया और फिर 29 जून 1968 को बिहार में पहली बार राष्ट्रपति शासन लगाया गया. फरवरी 1969 में बिहार में मध्यावधि चुनाव हुए और बिहार के सियासी इतिहास में ये पहली बार था, जब मध्यावधि चुनाव करवाए जा रहे थे. इस मध्यावधि चुनाव के बाद भी किसी दल को बहुमत नहीं मिला. कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी थी, लेकिन बहुमत नहीं था तो उसने दूसरी पार्टियों और निर्दलियों के सहारे सरदार हरिहर सिंह को मुख्यमंत्री बना दिया. लेकिन सरकार नहीं ही चलनी थी तो नहीं चली. सरदार हरिहर सिंह के इस्तीफे के बाद फिर से भोला पासवान शास्त्री मुख्यमंत्री बने और फिर से 13 दिन के अंदर ही उन्हें इस्तीफा देना पड़ गया.


फिर से प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लग गया. फर्क इतना था कि विधानसभा भंग नहीं हुई थी तो चुनाव की नौबत नहीं आई थी. कांग्रेस ने कोशिश करके दरोगा प्रसाद राय को मुख्यमंत्री बना दिया. सरकार नहीं चली तो फिर गैर कांग्रेसी दलों ने कर्पूरी ठाकुर को मुख्यमंत्री बना दिया. ये सरकार भी नहीं चली और फिर से भोला पासवान शास्त्री के नेतृत्व में लोकतांत्रिक कांग्रेस की सरकार बनी क्योंकि तब तक लोकतांत्रिक कांग्रेस के संस्थापक विनोदानंद झा इंदिरा गांधी वाली कांग्रेस के साथ लौट चुके थे और भोला पासवान शास्त्री लोकतांत्रिक कांग्रेस को लोकतांत्रिक दल के नाम से चला रहे थे. इंदिरा वाली कांग्रेस भोला पासवान शास्त्री को समर्थन दे ही रही थी.


तब तक देश में दल बदल जैसा कानून नहीं था तो पार्टी बदलना और पार्टी का नाम बदलकर सरकार में बने रहना आसान था. इस बीच इंदिरा वाली कांग्रेस के नेताओं ने जिद्द कर दी कि भोला पासवान शास्त्री को अपनी पार्टी का कांग्रेस के साथ विलय कर देना चाहिए. भोला पासवान शास्त्री नहीं माने और तब उनकी सरकार में कांग्रेस के कोटे से बने मंत्रियों ने इस्तीफा दे दिया. नतीजा ये हुआ कि सरकार फिर गिर गई और भोला पासवान शास्त्री ने विधानसभा को भी भंग करने की सिफारिश कर दी, जिसके बाद बिहार में फिर से विधानसभा के चुनाव हुए.


हालांकि सरकार गिरने के बाद भोला पासवान शास्त्री ने अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय कर लिया. इंदिरा गांधी ने उन्हें राज्यसभा में भेज दिया और वहां केंद्र में उन्हें शहरी विकास और आवास मंत्री बना दिया गया. 1978 में जब जनता पार्टी की सरकार बनी तो संविधान के अनुच्छेद 338 के तहत अनुसूचित जाति और जनजाति आयोग बनाया गया. तब कांग्रेस का नेता होने के बावजूद भोला पासवान शास्त्री को आयोग का पहला अध्यक्ष बनाया गया.


अब आप उनकी प्रोफाइल देखिए. बिहार जैसे प्रदेश का तीन बार का मुख्यमंत्री, इंदिरा सरकार में केंद्रीय मंत्री और फिर एससी-एसटी आयोग का अध्यक्ष, लेकिन 9 सितंबर, 1984 को जब उनका देहांत हुआ तो परिवार के पास इतने भी पैसे नहीं थे कि उनका श्राद्ध किया जा सके. आज की तारीख में भी उनका परिवार झोपड़ी में रहता है और मनरेगा के तहत मजदूरी करता है और जब ऐसी दशा एक मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री के परिवार की है तो आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि दलितों की स्थिति क्या होगी और उनकी बदहाली का आलम क्या होगा.


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