नई दिल्ली: बिहार में लोकसभा की एक और विधानसभा की दो सीटों के लिए 11 मार्च को होने वाला उपचुनाव बीजेपी-जेडीयू गठबंधन के लिए पहली चुनावी परीक्षा होगी. जेल में बंद आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद ने अगले आम चुनाव से पहले अपनी पार्टी की ताकत का प्रदर्शन करने के लिए इसे प्रतिष्ठा की लड़ाई में बदल दिया है. चुनाव विश्लेषकों का कहना है कि इनमें से दो सीटें-अररिया संसदीय सीट और जहानाबाद विधानसभा सीट खासतौर पर महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वहां आरजेडी का तथाकथित मुस्लिम-यादव (एमवाई) गणित मजबूत है. लेकिन जेडीयू और बीजेपी के मतदाताओं के पारंपरिक रूप से साथ आने से उनके उम्मीदवारों को लाभ मिल सकता है.
दोनों सीटें आरजेडी के खाते में थीं और मोहम्मद तस्लीमुद्दीन (2014 में अररिया से लोकसभा चुनाव जीतने वाले नेता) और जहानाबाद के विधायक मुंद्रिका यादव के निधन से उपचुनाव की जरूरत पड़ी. 2014 में बीजेपी से दूरी बनाने के बाद जेडीयू ने अकेले लोकसभा चुनाव लड़ा था और मोदी लहर होने के बावजूद तस्लीमुद्दीन चुनाव जीतने में सफल रहे थे. उन्हें 41 प्रतिशत वोट मिले थे और बीजेपी और जेडीयू का मत प्रतिशत जोड़ा जाए तो वह 50 प्रतिशत था.
अररिया लोकसभा क्षेत्र में मुस्लिम मतदाता कुल मतदाताओं के 41 प्रतिशत से ज्यादा हैं और जेडीयू के अपने पाले में आने के बाद बीजेपी हिंदू मतों के लामबंद होने की उम्मीद कर रही है. 2009 में चुनाव जीतने वाले बीजेपी उम्मीदवार प्रदीप कुमार सिंह दोबारा चुनाव मैदान में हैं और आरजेडी के उम्मीदवार सरफराज आलम से भिड़ेंगे. आलम तस्लीमुद्दीन के बेटे हैं.
जहानाबाद में यादव और भूमिहार सबसे बड़े जाति समूह हैं और आमतौर पर वे विरोधी दलों का समर्थन करते रहे हैं. दलित आरजेडी या जेडीयू किसी के भी पक्ष में संतुलन झुका सकते हैं. 2010 में जेडीयू ने एनडीए का हिस्सा रहते हुए यहां से जीत हासिल की थी और उसके उम्मीदवार की जीत नीतीश के लिए मनोबल बढ़ाने वाली होगी.
बीजेपी ने तत्कालीन आरजेडी-जेडीयू-कांग्रेस महागठबंधन के पक्ष में जनसमर्थन के बीच 2015 में भभुआ विधानसभा सीट पर जीत हासिल की थी और उसे पूरा यकीन है कि वह विधानसभा क्षेत्र में कांग्रेस के साथ मुकाबले में सीट बरकरार रखने में सफल होगी.