बिहार: अंधेरे में चिराग का भविष्य, राजनीति में पहली बार चाचा ने भतीजे को नहीं ठगा, बाल ठाकरे भी कर चुके हैं ऐसा
बिहार की बगावत के बाद सवाल उठता है कि क्या देश के राजनीति इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है जब एक पारिवारिक सदस्य ने दूसरे सदस्य के साथ बगावत की हो? इस सवाल का जवाब हां में है. महाराष्ट्र की राजनीति में भी चाचा और भतीजे में राजनीतिक तकरार को देश ने पहले भी देखा है. यह चाचा और भतीजे और कोई नहीं बल्कि बाला साहेब ठाकरे और राज ठाकरे थे.
नई दिल्ली: बिहार की राजनीति से बड़ी खबर सामने आयी है, चिराग पाससवान की पार्टी एलजेपी में बगावत हो गयी है. चिराग पासवान के साथ यह बगावत किसी और ने नहीं बल्कि उनके चाचा पशुपति पारस ने की है. इस बगावत के बाद एलजेपी के अध्यक्ष और संसदीय दल के नेता चिराग पासवान अकेले पड़ते नजर आ रहे हैं. इसके साथ ही सवाल उठ रहे हैं कि क्या चाचा पशुपति पारस ने भतीजे चिराग पासवान के राजनीतिक करियर पर ब्रेक लगा दिया है.
सबसे पहले जानिए- बिहार में आखिर हुआ क्या?
सूत्रों के मुताबिक पार्टी के छह में से पांच लोकसभा सांसदों ने पशुपति पारस को संसदीय दल का नेता चुन लिया है. इसके साथ ही नए नेता चुने जाने का पत्र भी लोकसभा स्पीकर ओम बिड़ला को सौंप दिया गया है. अब अगर लोकसभा स्पीकर संसदीय दल के नेता के रूप में पशुपति पारस को मान्यता दे देते हैं तो चिराग पासवान की एलजेपी संसदीय दल के नेता के तौर पर मान्यता खत्म हो जाएगी.
सूत्रों के मुताबिक स्पीकर को भेजे पत्र में हाजीपुर से सांसद पशुपति पारस से अलावा हाजीपुर से सांसद प्रिंस पासवान, खगड़िया के सांसद महबूब अली कैसर, वैशाली से सांसद वीणा देवी और नावादा सांसद चंदन सिंह ने हस्ताक्षर किए हैं. सूत्रों के मुताबिक आज पशुपति पारस के घर बैठक होगी और इसके बाद फैसले को सार्वजनिक किया जाएगा.
आखिर चिराग के साथ ऐसा क्यों हो रहा है?
खबर तो यह भी है कि इस बात की जानकारी बीजेपी और जेडीयू के शीर्ष नेतृत्व को भी है. पिता राम विलास पासवन के निधन के बाद एलजेपी के पोस्टर ब्वॉय चिराग पासवान बन गए और पार्टी से जुड़े सभी फैसले लेने लगे. यही बात पार्टी के बाकी नेताओं को पसंद नहीं आ रही थी. विधानसभा चुनाव में एनडीए से अलग लड़ने का फैसला भी चिराग का ही माना जाता है, जहां एलजेपी को बड़ी हार देखनी पड़ी थी.
बिहार की बगावत के बाद सवाल उठता है कि क्या देश के राजनीति इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है जब एक पारिवारिक सदस्य ने दूसरे सदस्य के साथ बगावत की हो? इस सवाल का जवाब हां में है. महाराष्ट्र की राजनीति में भी चाचा और भतीजे में राजनीतिक तकरार को देश ने पहले भी देखा है. यह चाचा और भतीजे और कोई नहीं बल्कि बाला साहेब ठाकरे और राज ठाकरे थे.
बाला साहेब की फोटो कॉपी थे राज, ऐसे हुए थी एंट्री
बाल ठाकरे के भतीजे राज ठाकरे ने जे जे स्कूल ऑफ आर्टस से फाइन आर्ट की पढ़ाई पूरी करने के बाद राजनीति में रूचि लेना शुरू कर दिया. राज ठाकरे भी बाला साहेब की तरह शुरू में कार्टून बनाने लगे. साल 1990 में पहली बार राज की सियासत में एंट्री हुई. राज ठाकरे को शुरू में विद्धार्थी सेना का अध्यक्ष बनाया गया.
राज ठाकरे अपने चाचा बाल ठाकरे के हर अंदाज को बारीकी से देखकर उसकी कॉपी करने लगे थे जिसकी वजह से शिवसेना में जूनियर बाल ठाकरे के रूप में उनका कद तेजी से बढ़ने लगा. 1989 में पहली बार शिवसेना का एक उम्मीदवार सांसद पहुंचा. 1995 के विधानसभा चुनावों में शिवसेना बीजेपी गठबंधन की जीत हुई. महाराष्ट्र में बाला साहब इतना बड़ा चेहरा होने के बाद मुख्यमंत्री नहीं बने लेकिन सत्ता की चाबी उन्हीं के पास रही.
1996 में उद्धव की एंट्री, राज ठाकरे के साथ धोखा?
इस दौरान राज ठाकरे, बाला साहेब की राजनीतिक विरासत को संभालने के लिए खुद को तैयार कर रहे थे. सभी ये मानकर बैठे थे कि राज ठाकरे ही उनके राजनीतिक वारिस होंगे. पर 1996 में बाल ठाकरे के सबसे छोटे बेटे उद्धव ठाकरे की एंट्री हुई. ये एंट्री ऐसे वक्त पर हुई जब बाल ठाकरे खुद में बहुत टूट गए थे. उनकी पत्नी मीना ठाकरे का भी इसी साल निधन हो गया वहीं सबसे बड़े बेटे बिंदुमाधव सड़क दुर्घटना में मारे गए.
1996 में ही राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे के बीच की लड़ाई सामने आने लगी. दोनों की लड़ाई का नतीजा 1999 में विधानसभा में देखने को मिला. इन चुनाव में बीजेपी-शिवसेना गठबंधन की करारी हार हुई.
परिवार में टूट: 2002 में राज ठाकरे ने की बगावत, चुनाव में शिवसेना जीती
2002 में राज ठाकरे ने पहली बार खुली बगावत कर दी. राज ठाकरे ने खुलकर कहा कि बीएमसी चुनाव में मेरे किसी भी कैंडिडेट को टिकट नहीं दिया जा रहा है. हालांकि राज ठाकरे की बगावत के बावजूद 2002 के चुनावों में उद्धव की जीत हुई. 2003 में हुए पार्टी सम्मेलन में ठाकरे वंश का बंटवारा हमेशा के लिए हो गया, क्योंकि उद्धव ठाकरे को शिवसेना का कार्यकारी अध्यक्ष चुना गया.
2005 में ठाकरे परिवार टूट गया, अलग हुए
2005 में ठाकरे परिवार टूट गया और राज ठाकरे ने शिवसेना छोड़ने की घोषणा कर दी. 2006 में राज ठाकरे ने अपनी नई पार्टी बनाई जिसका नाम रखा महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना रखा. 2007 के बीएमसी चुनावों में तो राज ठाकरे, शिवसेना को नुकसान नहीं पहुंचा पाए लेकिन 2009 के विधानसभा के चुनावों में शिवसेना के वोट बैंक में सेंध लगा दी. शिवसेना चौथे पायदान पर आ गिरी जबकि राज ठाकरे की पार्टी ने 13 सीटों पर कब्जा कर लिया.
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