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बिहार में आरक्षण बढ़ाने के नीतीश सरकार के फैसले को दी जा सकती है कोर्ट में चुनौती, जानिए क्या कहता है कानून?

Bihar Reservation Bill: बिहार में जाति सर्वे के बाद नीतीश कुमार ने आरक्षण सीमा को बढ़ाने की घोषणा की और इससे जुड़े बिल को गुरुवार को विधानसभा से मंजूरी मिल गई.

Bihar Reservation Bill: बिहार विधानसभा ने राज्य में 65 फीसदी आरक्षण का प्रस्ताव पारित कर दिया है. यह सुप्रीम कोर्ट की तरफ से आरक्षण के लिए तय 50 फीसदी की सीमा को तोड़ता है. ऐसे में इसे कानूनी चुनौती दी जा सकती है. इस पर चर्चा करने से पहले आरक्षण को लेकर मौजूदा व्यवस्था को समझ लेते हैं.

देश की आजादी के बाद संविधान निर्माताओं ने समाज के कमजोर तबके के लिए विशेष व्यवस्था को जरूरी माना. इसलिए, संविधान के अनुच्छेद 15 (4) और 16 (4) में लिखा गया कि सरकार सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े नागरिकों के विकास के लिए विशेष व्यवस्था कर सकती है. यही आरक्षण का आधार बना.

सबसे पहले अनुसूचित जातियों और जनजातियों की पहचान की गई. फिर अनुसूचित जातियों को सरकारी नौकरियों में 15 फीसदी और अनुसूचित जनजातियों को 7.5 आरक्षण दिया गया. इसे उच्च शिक्षा में भी लागू किया गया.

एमआर बालाजी बनाम मैसूर मामला

इसके साथ ही दूसरी पिछड़ी जातियों को भी आरक्षण का लाभ देने की मांग जोर पकड़ने लगी. देश में जारी बहस के बीच पहली बार 1963 में एमआर बालाजी बनाम मैसूर मामले में सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण के लिए 50 फीसदी की सीमा तय की. 1989 में तत्कालीन वीपी सिंह सरकार ने सरकारी नौकरी में 27 फीसदी ओबीसी आरक्षण की व्यवस्था की.

यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा. 1992 में इंदिरा साहनी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामले में सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों की बेंच ने ओबीसी आरक्षण को मंजूरी दी, लेकिन यह साफ किया कि कुल आरक्षण 50 फीसदी से ज्यादा नहीं हो सकता. कोर्ट ने यह भी कहा कि क्रीमी लेयर में आने वाले लोगों को आरक्षण से बाहर रखा जाए.

मराठा आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट

5 नवंबर 2021 को सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र में मराठा वर्ग को मिले 13 फीसदी आरक्षण को रद्द किया था. यह आरक्षण ओबीसी जातियों को दिए गए 27 फीसदी आरक्षण से अलग था. इस विशेष आरक्षण के लागू होने से महाराष्ट्र में कुल आरक्षण 65 फीसदी हो गया. सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि महाराष्ट्र में ऐसी कोई असामान्य स्थिति नहीं थी कि 50 फीसदी आरक्षण की सीमा को तोड़ने को सही करार दिया जाए. कोर्ट ने यह भी कहा था कि राज्य में किसी जाति को अति पिछड़ा की लिस्ट में राष्ट्रपति की मंजूरी से ही डाला जा सकता है.

अब बिहार की बात कर लेते हैं. बिहार ने जातीय गणना के आंकड़ों के आधार पर पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी, अति पिछड़ा वर्ग यह ईबीसी, एससी और एसटी का आरक्षण कोटा बढ़ाया है. इसके चलते आरक्षित वर्ग का कुल आरक्षण 65 फीसदी हो गया है. इसमें EWS यानी सामान्य वर्ग के गरीब तबके को मिले आरक्षण को जोड़ दिया जाए, तो कुल आरक्षण 75 फीसदी हो जाएगा.

सुप्रीम कोर्ट ने तय की थी आरक्षण सीमा

10 फीसदी ईडब्लयूएस आरक्षण को सुप्रीम कोर्ट सही ठहरा चुका है. पिछले साल दिए फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि 50 फीसदी आरक्षण की सीमा पहले से आरक्षण पा रहे एससी, एसटी, ओबीसी के लिए तय की थी. नया 10 फीसदी आरक्षण सामान्य वर्ग को दिया गया है. ऐसे में इसे सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ नहीं कहा जा सकता है.

50 फीसदी आरक्षण सीमा को सही ठहराते हुए दिए कई फैसलों में सुप्रीम कोर्ट ने कोटा विदिन कोटा यानी आरक्षण के भीतर आरक्षण को सही कहा है. इसका मतलब यह है कि अगर कोई जाति या वर्ग बहुत ज्यादा पिछड़ा है, तो आरक्षण सीमा को भीतर उसके लिए अलग से व्यवस्था की जाती है. यानी बिहार सरकार चाहती तो किसी जाति या वर्ग के लिए आरक्षण सीमा के भीतर अलग से व्यवस्था कर सकती थी, लेकिन उसने जातीय गणना के आंकड़े के आधार पर आरक्षण को बढ़ाकर 65 फीसदी करने का फैसला लिया.

कोर्ट किस बात पर देगी ध्यान

इस आरक्षण की न्यायिक समीक्षा करते समय कोर्ट इस बात को देखेगा कि क्या बिहार में ऐसी कोई असमान्य स्थिति थी, जिसका समाधान आरक्षण सीमा से परे जाए बिना नहीं हो सकता था. कोर्ट ने आरक्षण से जुड़े तमाम मामलों में आरक्षण देने से पहले क्वांटिफाइएबल डेटा यानी प्रामाणिक आंकड़े जुटाने पर जोर दिया है. ऐसे में बिहार सरकार अपनी गणना के आंकड़ों को क्वांटिफाइएबल डेटा बता सकती है, लेकिन यहां समझना जरूरी है कि सिर्फ किसी वर्ग की अधिक जनसंख्या उसे ज्यादा आरक्षण देने का आधार नहीं हो सकती.

इंदिरा साहनी फैसले में जो 50 फीसदी की सीमा तय की गई थी, वह सामाजिक न्याय और मेरिट में संतुलन के लिए की गई थी. इस तरह मेरिट यानी क्षमता को पूरी तरह दरकिनार कर सिर्फ संख्या के आधार पर आरक्षण देने को अदालत ने सही नहीं माना था. ऐसे में बिहार सरकार के लिए भी कोर्ट में अपने आरक्षण को सही ठहराना एक बड़ी चुनौती होगी. अगर कोर्ट को यह प्रथमदृष्टया गलत लगता है, तो वह इसे लागू करने पर रोक लगा सकता है.

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