एक बिहारी जो मैला धोने की प्रथा के खिलाफ बना 'नायक', कहानी सुलभ के बिंदेश्वर पाठक की
पद्म भूषण से सम्मानित बिंदेश्वर पाठक ने 1970 के दशक में सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विसेज की नींव रखी थी. इसके जरिये उन्होंने पूरे देश में बस अड्डों, रेलवे स्टेशन और दूसरी सार्वजनिक जगहों पर शौचालय बनाए.
सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक बिंदेश्वर पाठक का मंगलवार को दिल्ली के एम्स में निधन हो गया. बिंदेश्वर पाठक 80 साल के थे. 15 अगस्त को सुलभ इंटरेशनल के मुख्यालय में पाठक ने झंडोत्तोलन किया. तबतक वो पूरी तरह से ठीक थे. लेकिन अचानक उन्हें तकलीफ महसूस हुई. उन्हें एम्स ले जाया गया. डॉक्टरों ने क्रिटिकल बताया. फिर कार्डियक अरेस्ट से डेढ़ से दो बजे के बीच में उनका निधन हो गया.
बिंदेश्वर पाठक का जन्म बिहार वैशाली जिले के रामपुर बाघेल गांव में हुआ था. उन्होंने अपना पूरा जीवन स्वच्छता अभियान को समर्पित कर दिया था. पद्म भूषण से सम्मानित बिंदेश्वर पाठक ने 1970 के दशक में सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विसेज की नींव रखी थी. इसके जरिये उन्होंने पूरे देश में बस अड्डों, रेलवे स्टेशन और दूसरी सार्वजनिक जगहों पर शौचालय बनवाए.
उनके सुलभ फाउंडेशन ने कई भारतीय शहरों को पे-पर-यूज शौचालय स्थापित करने में मदद की. उन्होंने पेशाब के लिए एक रुपया और शौच के लिए दो रुपये की अवधारणा की शुरुआत की. इस अवधारणा ने एक ऐसे देश में तेजी से जोर पकड़ लिया, जहां सार्वजनिक रूप से शौचालय का इस्तेमाल करने का मतलब अक्सर पेड़ के पीछे बैठना होता है.
अपने जीवनकाल के दौरान पाठक ने कई बड़े भारतीय और वैश्विक पुरस्कार जीते. जैसे-जैसे उनकी लोकप्रियता बढ़ी, प्रेस ने उन्हें "मिस्टर सैनिटेशन" और "द टॉयलेट मैन ऑफ इंडिया" करार दिया.
वाशिंगटन पोस्ट ने एक रिपोर्ट में उन्हें 'मिनी क्रांतिकारी' बताया और 2015 में उन्हें इकोनॉमिस्ट ग्लोबल डाइवर्सिटी लिस्ट में शामिल किया गया.
1989 में न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक उन्होंने एक बार राजस्थान में मैला ढोने वालों के परिवारों की 100 लड़कियों से एक मंदिर का नेतृत्व कराया. जहां दलितों को पारंपरिक रूप से मंदिरों में प्रवेश करने से रोक दिया गया था. पाठक ने उनके साथ सार्वजनिक रूप से भोजन भी किया.
पाठक अक्सर कहते थे कि "जीवन में उनकी प्राथमिकता लोगों के लिए स्वच्छता की समस्या को हल करना है, "मैं इस काम को अपने बेटों और बेटियों से ज्यादा प्यार करता हूं", पाठक महात्मा गांधी की सीख से प्रभावित थे.
उच्च जाति के ब्राह्मण परिवार में जन्मे पाठक का कहना था कि एक बच्चे के रूप में भी वह अपने विशेषाधिकार के बारे में गहराई से जानते थे और जाति व्यवस्था की सच्चाई हमेशा उन्हें परेशान करती थी. गांव के लोगों को जाति व्यवस्था हमेशा परेशान करती है.
विरोध किया, तो पंडित ने कहा- घर से निकालिए इसे
2017 में बीबीसी के साथ एक इंटरव्यू में उन्होंने अपने बचपन की एक घटना के बारे में बताया जो एक महिला के बारे में थी जो उनके घर की महिलाओं का प्रसव कराने आती थी. वो जब भी घर में प्रसव कराने के लिए आती थी पाठक की दादी पूरे घर में शुद्ध जल का छिड़काव करती थी. उन्होंने बताया कि 'मुझे आश्चर्य होता था कि क्यों. लोग मुझसे कहा करते थे कि वह एक अछूत है और जिस जमीन पर वह चलती थी, वह मैली हो जाती है.
उन्होंने इसका विरोध करना शुरू किया. घरवालों ने एक पुजारी को बुलाया . पुजारी ने घरवालों से कहा कि पाठक संक्रमित हो गए हैं और उन्हें घर से निकाल दिया जाना चाहिए. तभी पाठक की मां ने हस्तक्षेप किया - वह सिर्फ एक बच्चा है और हम अपने बच्चे को घर से नहीं निकालेंगे आप बस उपाय बताइए.
पुजारी ने जो उपाय बताया वो बहुत खतरनाक था. पाठक को गाय का गोबर और मूत्र एक साथ निगलने को कहा गया. पाठक ने कहा कि मेरे लिए वो सब करना बहुत दर्दनाक था. यह घटना पाठक के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ थी, जब उन्हें मैला ढ़ोने और उसे छूने और अस्पृश्यता के कलंक का एहसास हुआ.
उन्होंने साक्षात्कार में कहा, "मैंने तभी सोच लिया कि मैं इस बात पर विचार करूंगा कि हम इस तरह के अनुचित समाज में क्यों रहते हैं, जिसमें अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग नियम हैं. "आप एक कुत्ते को छू सकते हैं, लेकिन किसी अन्य इंसान को छूना जो आपके जैसा ही है, पारिवारिक संकट का कारण बनता है.
मेरे ससुर मुझसे इतने नाराज थे कि उन्होंने मुझसे कहा कि वह मेरा चेहरा फिर कभी नहीं देखना चाहते और उन्हें अपनी बेटी को मेरे जैसे व्यक्ति से शादी करने का पछतावा है. उन्होंने कहा कि इस गुस्से ने उन्हें दुखी किया, लेकिन उन्हें अपनी पसंद पर कभी पछतावा नहीं हुआ. "मैंने मन ही मन सोचा, मैं अपनी पत्नी को छोड़ सकता हूं लेकिन मिशन को नहीं.
1969 में पाठक ने एक सफलता हासिल की और एक दो-गड्ढे वाला शौचालय तैयार किया, जिसने हजारों मैनुअल स्कैवेंजर्स को अपने हाथों से मल साफ करने के अभिशाप से मुक्त किया.
बिहार सरकार ने उन्हें इस काम को करने की पूरी जिम्मेदारी दे दी, जिसके बाद उनका विचार लोकप्रिय हो गया और बहुत सारे बड़े लोग उन्हें देखने और उनकी सलाह लेने के लिए आने लगे. उनके काम के बारे में लोगों की राय और उनकी बढ़ती लोकप्रियता ने परिवार की राय में भी सुधार किया.
विदेशों में भी इस्तेमाल किया जा रहा उनका बनाया डिजाइन
सुलभ फाउंडेशन ने तब से 1.5 मिलियन शौचालयों का निर्माण किया है जो भारत में 20 मिलियन से ज्यादा लोगों द्वारा इस्तेमाल किए जाते हैं. डिजाइन का उपयोग दुनिया के कई अन्य हिस्सों में भी किया जाता है.
1974 के बाद से सुलभ ने शहरी झुग्गियों और देश भर में बस स्टैंड, बाजारों और रेलवे स्टेशनों जैसे सार्वजनिक स्थानों पर 9,000 से ज्यादा "पे-एंड-यूज़" शौचालय बनाए हैं.
उनके काम ने लाखों भारतीयों, विशेष रूप से महिलाओं के जीवन को बदल दिया. ये महिलाएं कभी भीड़-भाड़ वाले सार्वजनिक स्थानों पर शौचालयों करने को मजबूर थी. महिलाओं को घंटों इसके लिए इंतजार करना पड़ता था.
बीबीसी के साथ अपने साक्षात्कार में उन्होंने कहा था: "स्वच्छता मेरा धर्म है. अगर आपने किसी मनुष्य की सहायता नहीं की है, तो आपने अभी तक परमेश्वर से प्रार्थना नहीं की है.
अमेरिकी सेना के लिए शौचालय
पाठक भारत सहित कई देशों में शौचालय उपलब्ध करा चुके हैं. उनकी ग़ैर सरकारी संगठन 'सुलभ इंटरनेशनल' के जरिए 2011 में अफ़ग़ानिस्तान में अमेरीकी सेना के लिए एक खास तरह के शौचालय बनाने की योजना बनाई थी.
यह संस्थान सार्वजनिक सुविधाओं के क्षेत्र में पिछले कई दशकों से काम करता आया है. संस्थान ने क़ाबुल में शौचालय उपलब्ध करवाया है. अमेरिकी सेना ने खासस तरीके के 'बायो गैस' से संचालित शौचालय का आग्रह पाठक की संस्थान से की थी.