देश के पहले CDS बने जनरल बिपिन रावत, सर्जिकल स्ट्राइक और डोकलाम विवाद में थी अहम भूमिका
इस साल स्वतंत्रता दिवस के मौके पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सीडीएस बनाने की घोषणा की थी. करगिल युद्ध के बाद बनी सुब्रमणयम कमेटी रिपोर्ट ने पहली बार देश में सीडीएस बनाए जाने की सिफारिश की थी.
नई दिल्ली: पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक और डोकलाम विवाद में चीन को पटखने देने वाले जनरल बिपिन रावत को देश का पहला चीफ ऑफ डिफेंस (सीडीएस) बनाया गया है. जनरल बिपिन रावत मंगलवार को थलसेना प्रमुख के पद से रिटायर हो रहे हैं. लेकिन उससे पहले ही सरकार ने उन्हें सीडीएस बना दिया है. सोमवार देर शाम रक्षा मंत्रालय ने बयान जारी कर इसकी आधिकारिक घोषणा की. जनरल बिपिन रावत सरकार के अगले आदेश तक इसपद पर बने रहेंगे.
नियुक्ति की कैबिनेट कमेटी (एसीसी) ने आज जनरल बिपिन रावत को देश का सीडीएस घोषित कर दिया. जनरल रावत 65 साल की उम्र तक इस पद पर रह सकते हैं. यानि जनरल रावत अगले तीन साल तक इस पद पर बने रह सकते हैं क्योंकि वे इसी साल मार्च में 62 साल के होंगे. सरकार ने सीडीएस के पद के लिए शनिवार को ही आर्मी रूल्स में बदलाव करते हुए सीडीएस के लिए 65 साल की उम्र घोषित कर दी थी. अपने तीन साल के कार्यकाल में जनरल बिपिन रावत ने ना केवल पाकिस्तान की नकेल कसकर रखी बल्कि चीन की भी हर चाल को नाकाम कर दिया. साल 2016 में पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक के दौरान वे सहसेना प्रमुख के पद पर थे और उसकी प्लानिंग और कार्यान्वयन में अहम भूमिका निभाई थी. यही वजह है कि सरकार ने वरिष्ठता के नियम को दरकिनार करते हुए जनरल बिपिन रावत को थलसेना प्रमुख बनाया था.
थलसेना प्रमुख के तौर पर जनरल बिपिन रावत ने कश्मीर में ऑपरेशन ऑल-आउट के जरिए आतंकवाद और अलगाववाद पर लगाम कसी. जिसका नतीजा ये हुआ कि सरकार ने कश्मीर से धारा 370 हटा दी. धारा 370 हटने के बाद सेना ने कश्मीर घाटी में कानून-व्यवस्था कायम रखने में अहम भूमिका निभाई. डोकलाम विवाद के दौरान जनरल बिपिन रावत ने चीन की पीएलए सेना को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया. डोकलाम विवाद, 1962 के युद्ध के बाद चीन की एक बड़ी सामरिक हार की तौर पर देखा गया. उनकी इन्हीं सैन्य खूबियों और उपलब्धियों को देखते हुए सरकार ने उन्हें देश के पहले सीडीएस के पद पर पर तैनात किया है.
इंटीग्रेडेट बैटेल ग्रुप (यानि आईबीजी) समेत सेना का रिस्ट्रक्चर यानि पुनर्गठन कर जनरल बिपिन रावत ने सैन्य-सुधारों को शुरू किया जो आजादी के बाद पहली बार हुआ था. यही वजह है कि वे सरकार के भरोसेमंद सेनापति साबित हुए. 1978 में सेना की गोरखा राईफल्स (5/11 गोरखा बटालियन) में शामिल हुए बिपिन रावत एक इंफेंट्री-अधिकारी हैं और काउंटर-टेरेरिज़म और एंटी-इन्सर्जेंसी एक्सपर्ट माने जाते रहे हैं. उन्हें हाई-ऑलटिट्यूड यानि उंचे पहाड़ों पर लड़ने का भी अच्छा अनुभव है.
सर्जिकल-स्ट्राइक में बिपिन रावत की अहम भूमिका थी
सेनाध्यक्ष बनने से पहले बिपिन रावत सह-सेनाध्यक्ष के पद पर तैनात थे. उरी हमले के बाद पाकिस्तान के खिलाफ हुई सर्जिकल-स्ट्राइक में बिपिन रावत की अहम भूमिका को देखते हुए ही सरकार ने उन्हें सेना प्रमुख के पद के लिए चुना. इससे पहले यानि जून 2015 में भी म्यामांर की सीमा में घुसकर एनएससीएन उग्रवादी संगठन के खिलाफ किए गए सर्जिकल-स्ट्राइक में तो बिपिन रावत ने सीधे तौर से महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. उस दौरान वे नागालैंड स्थित दीमापुर में सेना की तीसरी कोर के जीओसी थे. उग्रवादियों के कैंप को तहस-नहस करने और उग्रवादियों के खात्मे की प्लानिंग खुद बिपिन रावत ने की थी.
अपने 42 साल के सैन्य करियर में बिपिन रावत ने अधिकतर समय आतंकियों और उग्रवादियो के खिलाफ ऑपरेशन में बिताया है. वे जम्मू-कश्मीर में सेना की 19 डिव (डिवीजन) के जीओसी भी रह चुके हैं. रक्षा मंत्रालय के मुताबिक, बिपिन रावत के बैक-ग्राउंड और ऑपरेशनल-अनुभव के चलते ही उन्हें इस महत्वपूर्ण पद के लिए चुना गया है. बताते चलें कि 1986-87 में अरुणचाल प्रदेश में चीन के साथ हुए बॉर्डर विवाद (सुद्रांगशु विवाद) के ऑपरेशन में भी बिपिन रावत ने हिस्सा लिया था. उस वक्त वो गोरखा राईफल्स में कंपनी-कमांडर थे. उस लड़ाई में चीन को काफी नुकसान उठाना पड़ा था और विवाद में पीछे हटना पड़ा था.
सेना की पुणे स्थित दक्षिण कमांड के कमांडर के तौर पर नौसेना और वायुसेना के साथ भी उनका कोर्डिनेशन और कॉपरेशन काफी अच्छा माना गया था. उस दौरान मैकेनाइज्ड-वॉरफेयर का भी उन्हें अनुभव प्राप्त हुआ. 1978 में इंडियन मिलेट्री एकडेमी यानि आईएमए से पास-ऑउट बिपिन रावत को अपने कोर्स में 'स्वार्ड ऑफ ऑनर' से नवाजा गया था. नेशनल डिफेंस कॉलेज, हायर कमांड और डिफेंस सर्विस स्टॉफ कॉलेज से उच्च सैन्य-शिक्षा प्राप्त कर चुके बिपिन रावत मीडिया-स्ट्रटेजी में डॉक्टरेट भी कर चुके हैं.
सीडीएस फॉर स्टार जनरल हैं
आपको बता दें कि सरकार ने 24 दिसंबर को आधिकारिक तौर से सीडीएस बनाने की घोषणा कर दी थी. सीडीएस फॉर स्टार जनरल हैं और वो रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले एक नए विभाग, डिपार्टमेंट ऑफ मिलिट्री एफेयर्स के सेक्रेटरी के तौर पर काम करेगें और सरकार (राजनैतिक नेतृत्व) को सैन्य मामलों पर सलाह देंगे. लेकिन सरकार ने साफ कर दिया कि सीडीएस सीधे तौर से थलसेना, वायुसेना और नौसेना के कमांड और यूनिट्स को सीधे तौर से कंट्रोल नहीं करेगा. लेकिन उसके अंतर्गत सेना के तीनों अंगों के साझा कमांड और डिवीजन होंगे. फिलहाल अंडमान निकोबार कमांड ही ट्राई-सर्विस कमांड है जो अब सीडीएस के अंतर्गत काम करेगा. इसके अलावा, हाल ही में तीनों सेनाओं के स्पेशल फोर्सेंज़ की ऑपरेशन डिवीजन (आर्मर्ड फोर्सेज़ स्पेशल ऑपरेशन्स डिवीजन) और डिफेंस साईबर एजेंसी सहित स्पेस एजेंसी अब सीडीएस के मातहत काम करेंगी.
पीएम मोदी ने सीडीएस बनाने की घोषणा की थी
आपको बता दें कि इस साल स्वतंत्रता दिवस के मौके पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सीडीएस बनाने की घोषणा की थी. सीडीएस, रक्षा मंत्री के प्रिंसिपल मिलिट्री एडवाइजर के तौर पर काम करेंगे. हालांकि तीनों सेनाओं (थलसेना, नौसेना और वायुसेना) के प्रमुख पहले की तरह रक्षा मंत्री को ही रिपोर्ट करते रहेंगे. सरकार ने साफ कर दिया है कि सीडीएस सैन्य मामलों से जुड़े मुद्दे देखेंगे जबकि देश की रक्षा करने की जिम्मेदारी रक्षा मंत्रालय की ही होगी. सीडीएस की नियुक्त का मकसद भारत के सामने आने वाली सुरक्षा चुनौतियों से निपटने के लिए तीनों सेनाओं के बीच तालमेल बढ़ाना है. सीडीएस तीनों सेनाओं के ऑपरेशन्स, लॉजिस्टिक, ट्रांसपोर्ट, ट्रेनिंग, कम्युनिशेंसन इत्यादि के बीच एकीकरण का काम करेंगे. साथ ही सेनाओं के आधुनिकिकरण में भी सीडीएस की मुख्य भूमिका होगी. सीडीएस सेनाओं के फाइव ईयर डिफेंस एक्युजेशन प्लान यानि सेनाओं के पांच साल के रक्षा बजट को भी लागू करने में अहम भूमिका होगी.
प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाली न्युक्लियर कमांड अथोरेटी के भी मिलिट्री एडवाइजर के तौर पर सीडीएस काम करेंगे. ये परमाणु हथियारों पर देश की सबसे बड़ी ऑपरेशनल कमांड है. हालांकि इन हथियारों की देखभाल स्ट्रेटेजिक फोस कमांड (एसएफसी) करती है जिसमें तीनों सेनाओं की भागीदारी होती है. करगिल युद्ध के बाद बनी सुब्रमणयम कमेटी रिपोर्ट ने पहली बार देश में सीडीएस बनाए जाने की सिफारिश की थी. लेकिन पिछले 20 सालों से ये मामला लटका हुआ था. करगिल युद्ध के दौरान थलसेना और वायुसेना के बीच समन्वय की कमी देखने को मिली थी.