नई दिल्ली: ''हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे, कहते हैं कि 'ग़ालिब' का है अंदाज़-ए-बयाँ और''. मिर्ज़ा ग़ालिब ने बरसों पहले अपने आप को बहुत खूब बयां किया था और आज उनकी 220वीं सालगिरह के मौके पर भी यह शेर उतना ही प्रासंगिक है.


गूगल का एक खूबसूरत डूडल



शेर-ओ-शायरी के सरताज कहे जाने वाले और उर्दू को आम जन की जुबां बनाने वाले ग़ालिब को उनकी सालगिरह के अवसर पर गूगल ने एक खूबसूरत डूडल बना कर उन्हें खिराज-ए-अकीदत पेश की है. उर्दू और फारसी भाषाओं के मुगल कालीन शायर ग़ालिब अपनी उर्दू गजलों के लिए बहुत मशहूर हुए. उनकी कविताओं और गजलों को कई भाषाओं में अनूदित किया गया.


डूडल में लाल रंग का लबादा और तुर्की टोपी पहने नजर आ रहे हैं और उनके पीछे जामा मस्जिद बनाई गई है. उन्होंने इश्क से लेकर रश्क तक प्रेमी-प्रेमिकाओं की भावनाओं को अपनी शायरी के जरिए बखूबी बयां किया.


ग़ालिब मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के बड़े बेटे को शेर-ओ-शायरी की गहराइयों की तालीम देते थे. उन्हें साल 1850 में बादशाह ने दबीर-उल-मुल्क की उपाधि से सम्मानित किया.



मिर्जा असदुल्ला बेग खान


ग़ालिब के बचपन का नाम ‘मिर्जा असदुल्ला बेग खान’ था. उनका जन्म 27 दिसंबर 1797 को आगरा में हुआ था. ग़ालिब ने 11 साल की उम्र में शेर-ओ-शायरी शुरू की थी. तेरह वर्ष की उम्र में शादी करने के बाद वह दिल्ली में बस गए. उनकी शायरी में दर्द की झलक मिलती है और उनकी शायरी से यह पता चलता है कि जिंदगी एक अनवरत संघर्ष है जो मौत के साथ खत्म होती है.


उर्दू अदब में ग़ालिब का योगदान


ग़ालिब सिर्फ शेर-ओ-शायरी के बेताज बादशाह नहीं थे. अपने दोस्तों को लिखी उनकी चिट्ठियां ऐतिहासिक महत्व की हैं. उर्दू अदब में ग़ालिब के योगदान को उनके जीवित रहते हुए कभी उतनी शोहरत नहीं मिली जितनी इस दुनिया से उनके रुखसत होने के बाद मिली. ग़ालिब का 15 फरवरी 1869 को निधन हो गया. पुरानी दिल्ली में उनके घर को अब संग्रहालय में तब्दील कर दिया गया है.