राहुल गांधी को मानहानि केस में दोषी ठहराते हुए संसद से अयोग्य घोषित कर दिया गया है. अब बीजेपी ने ओबीसी के कथित अपमान को लेकर राहुल गांधी के खिलाफ एक राष्ट्रव्यापी अभियान चलाने की घोषणा की है. कांग्रेस ओबीसी अपमान के इल्जाम को खारिज कर रही है.
जहां तक ओबीसी का सवाल है, हिन्दी भाषी राज्यों में आजादी के पहले से ही इनका कांग्रेस से अच्छा रिश्ता नहीं रहा. इतिहास इस बात का भी गवाह रहा है कि पार्टी ने इन जातियों तक पहुंचने के कई अवसर गंवाए हैं.
कांग्रेस आजादी के तुरंत बाद से ओबीसी के सवाल से जूझ रही है. आइये इतिहास के चश्में से समझने की कोशिश करते हैं कि कांग्रेस पार्टी ने कितने मौकों पर ओबीसी तक पहुंच के मौके गंवाए.
1953 में जवाहरलाल नेहरू ने पहला पिछड़ा वर्ग आयोग की स्थापना की, लेकिन...
पिछड़े वर्गों अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए कोटा की तर्ज पर आरक्षण की मांग आजादी के तुंरत बाद ही शुरू हुई. जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने 1953 में राज्यसभा सदस्य काका कालेलकर की अध्यक्षता में पहला पिछड़ा वर्ग आयोग की स्थापना की .
काका साहिब कालेलकर जी ने 29 जनवरी सन 1953 को पिछड़े वर्ग आयोग की शुरुआत की थी. जिसे काका कालेलकर कमीशन के नाम से जाना जाता था.
बता दें कि उस समय 'ओबीसी' शब्द व्यापक रूप से इस्तेमाल नहीं किया जाता था. आयोग ने 1955 में अपनी रिपोर्ट पेश की लेकिन उस पर कोई खास काम नहीं किया गया.
धीरे-धीरे, हिंदी पट्टी के ओबीसी समुदाय के लोग समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया की तरफ आकर्षित हुए. 1967 में 57 वर्ष की आयु में लोहिया के असामयिक निधन के बाद पश्चिमी यूपी के जाट नेता चौधरी चरण सिंह ओबीसी के नेता के रूप में उभरे.
यूपी में कांग्रेस ने किया अति पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन, लेकिन इसका श्रेय तक न ले पाए
अक्टूबर 1975 में कांग्रेस पार्टी के हेमवती नंदन बहुगुणा ने छेदी लाल की अध्यक्षता में अति पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया. ये प्रदेश में ओबीसी कोटा के लिए पहला प्रयास था. हेमवती नंदन बहुगुणा नवंबर 1973 और नवंबर 1975 के बीच उत्तर प्रदेश के कांग्रेस के मुख्यमंत्री थे.उन्हें कांग्रेस का चाणक्य भी कहा जाता था.
अप्रैल 1977 में कांग्रेस के दिग्गज नेता एनडी तिवारी की सरकार ने उत्तर प्रदेश में ओबीसी के लिए सरकारी नौकरियों में 15 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की, जो देश में इस तरह का पहला कदम था.
मार्च 1977 के आपातकाल के बाद के चुनावों के बाद केंद्र में सत्ता में आई प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली जनता पार्टी सरकार ने तिवारी की सरकार को बर्खास्त कर दिया. नतीजतन, राम नरेश यादव (1977-79) के नेतृत्व वाली यूपी की जनता सरकार ने कोटा लागू किया और इसका श्रेय भी लिया.
ओबीसी पर बीजेपी और कांग्रेस की सियासत
अगस्त 1990 में बागी नेता वीपी सिंह के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने मंडल आयोग के नाम से मशहूर सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा वर्ग आयोग की रिपोर्ट को लागू करने का एलान किया.
मंडल आयोग का गठन मोरारजी सरकार ने 1978 में किया था और ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश करने वाली इसकी रिपोर्ट 1980 में सौंपी गई थी, लेकिन इंदिरा और राजीव गांधी की सरकारों ने इस पर कार्रवाई नहीं करने का फैसला किया था.
मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करने की घोषणा के बाद ओबीसी दावे की लहर पूरे देश में फैला गई. इससे उत्तर भारत की राजनीति मौलिक रूप से काफी हद तक बदली. ये वही दौर था जब मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद, नीतीश कुमार और शरद यादव जैसे नेताओं को राष्ट्रीय प्रमुखता तक पहुंच मिलनी शुरू हुई.
कुल मिलाकर ये कहें तो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 340 के तहत गठित काका कालेलकर आयोग जो काम नहीं कर सका, वह 'मंडल आयोग' ने कर दिखाया.
पिछड़े वर्गों की कांंग्रेस से ये नाराजगी थी कि कांग्रेस की तत्कालीन सरकारों ने उसकी सिफारिशों को लागू करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. जनता दल सरकार के प्रधानमंत्री वी पी सिंह ने 7 अगस्त, 1990 को इसे लागू करने का ऐलान किया.
उस दौर में बीजेपी ब्राह्मण-बनिया की पार्टी मानी जाती थी. बीजेपी ने मुलायम का मुकाबला करने के लिए यूपी में कल्याण सिंह जैसे ओबीसी नेता को आगे किया. जैसे-जैसे समाजवादी पार्टी के यादव-मुस्लिम कोर के बाहर मुलायम का जनाधार बंटने लगा, कल्याण ने छोटे ओबीसी समुदायों को भाजपा के साथ खड़ा कर दिया और इस तरह एक गैर-यादव ओबीसी वोट बैंक बनाया.
उस समय बीजेपी के कल्याण सिंह और उमा भारती जिनकी पकड़ ओबीसी समुदाय में अच्छी थी, वो बगावत पर उतरे हुए थे. ऐसे में बीजेपी ने हर स्तर पर अपने नेतृत्व को फिर से तैयार किया.
कल्याण सिंह के बाद राम प्रकाश गुप्ता ने यूपी में जाटों को ओबीसी का दर्जा दिया. मुलायम और बसपा प्रमुख मायावती दोनों को कमजोर करने के लिए मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह की सरकार ने ओबीसी और दलितों को विभाजित करने के लिए "आरक्षण के भीतर आरक्षण" मसौदा तैयार किया. ये 2000 से 2002 का दौर था.
2006 में ओबीसी आरक्षण प्रस्ताव पर फेल हुई कांग्रेस
2006 में यूपीए-1 की सरकार में केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने केंद्रीय शिक्षण संस्थानों में प्रवेश को लेकर ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण के प्रस्ताव को रखा . ये प्रस्ताव मंडल रिपोर्ट के बाद से लंबित था.
यह ओबीसी के पक्ष में सबसे बड़े फैसलों में से एक था. ये फैसला कांग्रेस की ओबीसी राजनीति के लिए निर्णायक क्षण माना जरूर गया लेकिन शायद ही कांग्रेस को इससे कोई फायदा हुआ.
2010 में यूपीए-2 सरकार ने जातिगत जनगणना के लिए एक कदम उठाया. तत्कालीन कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने 2011 की जनगणना में जाति/समुदाय के आंकड़े एकत्र करने के बारे में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखा था.
1 मार्च 2011 को गृह मंत्री पी चिदंबरम ने लोकसभा में इस फैसले का विरोध किया. आखिरकार मनमोहन सिंह की सरकार ने इसके बजाय एक पूर्ण सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना (एसईसीसी) आयोजित करने का फैसला किया.
एसईसीसी का कोई भी डेटा मौजूद नहीं
एसईसीसी डेटा ग्रामीण विकास और आवास और शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्रालयों की तरफ से प्रकाशित किया गया था. इसने 2016 में ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में जनगणना आयोजित की थी. मौजूदा समय में इसका कोई भी डेटा मौजूद नहीं है. इस बारे में नरेंद्र मोदी सरकार यह कह चुकी है कि वह डेटा का गैरमौजूदगी में इस पर यकीन नहीं किया जा सकता.
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट ये बताती है कि भारत की ओबीसी आबादी का कोई सटीक अनुमान नहीं है. राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग 27 प्रतिशत आरक्षण के लिए ओबीसी की केंद्रीय सूची में 2,600 से ज्यादा जातियों को सूचीबद्ध करता है.
मंडल आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक 1980 में देश की जनसंख्या का 52 प्रतिशत हिस्सा ओबीसी था. राष्ट्रीय सर्वेक्षण 2006 के अनुसार यह आंकड़ा घटकर 41% तक आ गया है. ओबीसी को भारतीय संविधान के अनुसार सामाजिक व शैक्षिक क्षेत्र में पिछड़े वर्ग के रूप में वर्णित किया गया है . सार्वजानिक क्षेत्रों में ओबीसी वर्ग को रोजगार और शिक्षा में 27% तक का आरक्षण प्राप्त है.
ओबीसी को लेकर कब-कब हो चुका है विवाद
कर्नाटक में बोम्मई सरकार का फैसला - हाल ही में कर्नाटक की बोम्मई सरकार ने मुसलमानों को राज्य में दिए जाने वाला 4 फीसदी आरक्षण खत्म कर दिया है. इसे लेकर राज्य में विवाद हो गया है.
लोहिया ने नारा दिया पिछड़े पावे सौ में साठ- राम मनोहर लोहिया 1960 के दशक में विपक्ष के बड़े नेता थे. 1965 में यूपी के फर्रूखाबाद लोकसभा सीट से उपचुनाव जीतने वाले लोहिया ने कई पार्टियों का एक गठबंधन तैयार किया. 1967 के चुनाव में लोहिया ने नारा दिया- संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ..
लोहिया का इस नारे ने यूपी की सियासत ही बदल दी और पहली बार यहां कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा.
मंडल कमीशन और यूपी की पॉलिटिक्स में बवाल- 1979 में केंद्र की मोरारजी देसाई की सरकार ने सरकारी नौकरी में पिछड़ों को आरक्षण देने के लिए बीपी मंडल की अध्यक्षता में एक आयोग बना दिया. आयोग के गठन के बाद ही यूपी-बिहार के अधिकांश भागों में बवाल शुरू हो गया. इस मौके का तब की विपक्षी पार्टियों ने जम कर फायदा उठाया और इसे आरक्षण विरोधी बवाल कहा.
मुलायम-कांशीराम का गठबंधन और बीजेपी की हार- 1992 में बाबरी विध्वंस हुआ, और बीजेपी को आगामी विधानसभा चुनाव में अपनी जीत का यकीन था. लेकिन 1993 में सपा के मुलायम सिंह यादव और बसपा के कांशीराम ने गठबंधन कर लिया.
पिछड़े और दलित नेताओं के इस गठबंधन ने यूपी में बीजेपी को जोरदार पटखनी दी. 425 सीटों पर हुए इस चुनाव में बीजेपी को 177 सीटों पर जीत मिली.
मुलायम ने 17 ओबीसी जातियों को दलित में किया शामिल - 2005 में मुलायम सिंह यादव तीसरी बार यूपी की सत्ता में आए. उस दौरान मुलायम सिंह यादव ने ओबीसी राजनीति में धार देने के लिए बड़ा दांव खेला. मुलायम ने ओबीसी के 17 जातियों को दलित कैटेगरी में शामिल कर दिया. इन जातियों की ओर से लंबे समय से इसकी मांग की जा रही थी.
मुलायम के इस फैसले पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने तुरंत रोक लगा दिया, जिसके बाद उन्होंने केंद्र को प्रस्ताव बनाकर भेज दिया. बाद में मायावती की सरकार ने इसे वापस ले लिया.
2016 में अखिलेश यादव ने फिर से प्रस्ताव पास कर केंद्र के पास नोटिफिकेशन के लिए भेज दिया. इसे केंद्र ने उस वक्त मान भी लिया, लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट ने फिर रोक लगा दिया.