नई दिल्ली: आफरीन को हमेशा से सोशल मीडिया बहुत पसंद था. शाहजहांपुर की निवासी इस 22 साल की लड़की के लिए यह एक तरह से राहत का जरिया था...अपने चार साल के तनावपूर्ण शादीशुदा जीवन में बिखर चुकी जिंदगी से मुंह छिपाने का एक तरीका.


‘तलाक, तलाक, तलाक’


इसी साल जनवरी की एक सर्द शाम की बात है, वह सोशल मीडिया पर ख्यालों की दुनिया में खोई हुई थी. फेसबुक पर प्यार, जिंदगी, कविताओं आदि से जुड़ी पोस्ट देखने के दौरान अचानक ही एक पोस्ट ने उसे हिलाकर रख दिया. यह पोस्ट उसके पति की ओर से था, जिसने लिखा- ‘तलाक, तलाक, तलाक’.


आफरीन के लिए जहां इन तीन शब्दों को बार-बार पढ़कर भी अपनी बिखर चुकी दुनिया की हकीकत पर यकीन कर पाना मुश्किल हो रहा था, वहीं उसकी तीन साल की बच्ची बिस्तर पर बिखरे अपने खिलौनों से खेलने में मशगूल थी.


यह घटना आफरीन की मुश्किलों की एक शुरूआत भर थी. एक ही दिन बाद, उसके मोबाइल में संदेश आया, जिसमें लिखा था- ‘तलाक, तलाक, तलाक.’ उसके पति ने अपना इरादा स्पष्ट तौर पर बता दिया था. दहेज की मांगों को लेकर लगातार प्रताड़ना झेलती आ रही आफरीन को अब लात मारकर निकाला जा रहा था.


इन घटनाओं ने बदल कर रख दी उसकी जिंदगी


आफरीन की मां फरीदा बेगम ने शाहजहांपुर से बताया, ‘‘बचपन में वह हमेशा खुशमिजाज रहती थी. लेकिन इन घटनाओं ने उसकी जिंदगी बदल कर रख दी है.’’ फरीदा बेगम ने कहा कि आफरीन को हमारे घर से दूर एक रिश्तेदार के घर ले जाया गया है क्योंकि उसके पति का परिवार उसकी बेटी को छीनने की धमकी देता है.


आफरीन के पति ने शादी को खत्म करने के लिए जो रास्ता अपनाया है, उसने आफरीन की आत्मा को तोड़कर रख दिया है. तीन तलाक की प्रथा से जुड़े विवाद के मूल में यही तरीका है. यह मुद्दा पिछले साल फरवरी में उस समय सामने आया, जब तीन तलाक की एक पीड़िता शायरा बानो ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करके तलाक, बहुविवाह और निकाह हलाला की प्रथा पर रोक लगाने का अनुरोध किया. निकाह हलाला के तहत यदि तलाकशुदा मुस्लिम महिला अपने पहले पति के पास लौटना चाहती है, तो उसे दोबारा शादी करनी होती है, उसे मुकम्मल करना होता है और फिर इसे तोड़कर पहले पति के पास जाना होता है.


तीन तलाक के खिलाफ स्पष्ट कर चुका है अपना रूख


देश भर की हजारों मुस्लिम महिलाओं ने तब से दबाव समूह बना लिए हैं और इस प्रथा को खत्म करने की मांग लेकर हस्ताक्षर अभियानों का नेतृत्व कर चुकी हैं. शायरा के मामले को सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी ही याचिकाओं के साथ जोड़ दिया, जिनपर 11 मई को सु नवाई होगी. केंद्र पहले ही तीन तलाक के खिलाफ अपना रूख स्पष्ट कर चुका है.


ऑल इंडिया मुस्लिम पसर्नल लॉ बोर्ड का दावा है कि शरीयत तीन तलाक की प्रथा को वैध बताती है. इसके तहत एक मुस्लिम पति अपनी पत्नी को महज तीन बार ‘तलाक’ शब्द बोलकर तलाक दे सकता है.


तलाक दो तरीकों से हो सकता है. ‘तलाक-उल-सुन्नत’ के तहत ‘इद्दत’ नामक तीन माह की अवधि होती है. यह अवधि तलाक कहे जाने और कानूनी अलगाव के बीच की अवधि है. ‘तलाक-ए-बिदात’ एक पुरूष को एक ही बार में ऐसा कर देने की अनुमति देता है.


विशेषज्ञों का कहना है कि कुरान में इसका जिक्र नहीं


हालांकि समय बीतने के साथ तीन तलाक के खिलाफ अभियान एक आंदोलन का रूप ले चुका है. विशेषज्ञों का कहना है कि कुरान में इसका जिक्र नहीं है. इस अभियान में ऐसी हजारों महिलाएं शामिल हैं, जिनके पति महज ये तीन शब्द बोलकर उन्हें छोड़कर जा चुके हैं. इनमें से कुछ पतियों ने तो मोबाइल संदेश और फेसबुक के माध्यम से ये तीन शब्द भेजकर शादी खत्म कर ली है.


कई अन्य लोगों की तरह आफरीन ने भी मुस्लिम पसर्नल लॉ के विवादित प्रावधानों का फायदा उठाने वाले अपने पति के खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज कराने का साहस जुटाया. तीन तलाक, बहुविवाह और निकाह हलाला पर बहस बढ़ने के दौरान, देशभर में ये महिलाएं सिर्फ लॉ बोर्ड से ही नहीं बल्कि अपने भीतर भी एक लड़ाई लड़ रही हैं. अपने भीतर की लड़ाई तलाक से जुड़े उस दंश से उबरने की है, जिसने उन्हें अंदर तक तोड़ रखा है.


एक मामला 24 वर्षीय रूबीना का है, जिसने अपने परिवार की आर्थिक मदद के लिए साल 2015 में अपनी उम्र से दोगुनी उम्र के एक अमीर व्यक्ति से शादी कर ली. लेकिन शादी के कुछ ही समय बाद, उसने रूबीना को तलाक देने की धमकी देना शुरू कर दिया.


सामाजिक न्याय और समानता के संघर्ष में यह एक अहम


अपने पति से अलग रह रही रूबीना ने कहा, ‘‘समाज ने मुझे पूरी तरह तोड़ दिया है. जब मैं नौकरी के लिए साक्षात्कार देने जाती हूं तो लोग या तो मेरे साथ र्दुव्‍यवहार करते हैं, या फिर मेरे साथ छेड़खानी करते हैं. यह विवाद 1980 के दशक के शाह बानो मामले की भी याद दिलाता है. मुस्लिम महिलाओं के सामाजिक न्याय और समानता के संघर्ष में यह एक अहम कदम था लेकिन इसका अंत निराशाजनक रहा.


साल 1985 में, सुप्रीम कोर्ट ने बानो के पक्ष में फैसला सुनाया था, जिसने तलाक देने वाले अपने पति से गुजारे-भत्ते की मांग की थी. लेकिन रूढ़िवादी मुस्लिम समूहों की नाराजगी के बाद तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने एक अधिनियम के जरिए आदेश को कमजोर कर दिया.


मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) कानून, 1986 ने महिलाओं को तलाक के बाद सिर्फ इद्दत :लगभग तीन माह: की अवधि में गुजारा भत्ता पाने का अधिकार दिया है. इसके बाद उसके रिश्तेदारों या वक्फ बोर्ड को उसकी देखभाल करनी होती है.