नई दिल्ली: न्यूज़ चैनल की दुनिया बाहर से देखने में बेहद खूबसूरत औऱ ग्लैमर से भरी हुई है. यहां कैमरे की चमकीली लाईट के साथ शोहरत है, इज्जत है. लेकिन इस सफेद दुनिया के कई अंधेरे कोने भी हैं, जो बाहर की नज़रों से ओझल हैं. उसे वही नज़र देख सकती है जो उसका हिस्सा है. जो हर रोज़ किसी न्यूजरूम में चमक दमक से भरे स्टूडियो से उन कोनों की दूरी को नापता हो. इसीलिए जब कोई शख्स जो सालों तक अलग-अलग न्यूजरूम का हिस्सा रहा इस दुनिया के बारे में लिखता है तो उसकी सच्ची तस्वीर उभरने की पूरी गुंजाईश रहती है. वरिष्ठ पत्रकार विजय विद्रोही की किताब ‘करेला इश्क का’ न्यूजरूम की सोच और समझ की असल तस्वीर से आपको रूबरू कराती है.


28 साल से पत्रकारिता में बारीकी से हर हालात को देखने-समझने वाले विजय विद्रोही ने इस किताब को निर्भया गैंगरेप की पृष्ठभूमि में लिखा है. इस केस के शुरू होने से लेकर और गुनाहगारों को फांसी की सजा सुनाए जाने तक के दौरान न्यूज़चैनल में काम करने वाले कुछ किरदारों की जिंदगी किस तरह करवट लेती है यही दिखाया गया है. लेखक ने मुख्य तौर पर चार किरदारों के जरिए न्यूज़रूम के माहौल की एक झलक पेश की है.


किताब आपको न्यूज़रूम के शोरगुल और टीवी स्क्रीन पर ग्लैमरस दिखने वाली इस दुनिया के पीछे की दुनिया की ओऱ ले जाती है. जहां महिलाओं की स्थिति बहुत अलग नहीं है. महिला सशक्तिकरण और बराबरी की दमदार बहस के बीच महिला एंकर हो या रिपोर्टर उन्हें हर स्तर पर समाज की स्टीरियोटाईप सोच से जूझना पड़ता है. कभी कैब ड्राइवर, तो कभी कैमरामैन, कभी बॉस तो कभी एडिटर, पुरूषवादी नजरिये से हर रोज दो चार होना पड़ता है.


इस उपन्यास की नायिका वैशाली है जो छोटे शहर से बड़े सपने लेकर आई है. टीवी की बड़ी रिपोर्टर बनकर अपनी पहचान बनाना चाहती है. सरजी इस उपन्यास के मुख्य किरदार हैं सरजी जिनकी इंडस्ट्री में खासी जान पहचान है. चैनल के संपादकों के साथ उठना बैठना है और इतनी हैसियत रखते हैं कि दो चार लोगों को नौकरी पर रखवा सकते हैं. यही वजह है कि लोग उनसे जान पहचान बनाकर रखना चाहते हैं. इस्तेमाल होने का अहसास उन्हें भी होता है लेकिन बावजूद इसके वो लोगों के लिए हमेशा उपलब्ध रहते हैं. तीसरा किरदार है पलक जो कि तेज-तर्रार एंकर है और लव जिहाद करने से भी हिचकिचाती नहीं हैं. चौथा किरदार है कैमरामैन आदित्य जो एक बार प्यार में धोखा खा चुका है और अपनी किस्मत आजमाने दिल्ली पहुंचा है. रोज नए आइडिया लाने और कुछ नया करने की जद्दोजहद के बीच इन चारों किरदारों की निजी जिंदगी कैसी है. क्या उतनी ही चमकदार है जितनी आप पर्दे पर देखते हैं.



विजय विद्रोही की किताब आपको इसकी झलक भी दिखाती है कि बड़े हादसों पर न्यूजरूम में किस तरह का माहौल होता है. प्रोफेशनल जिम्मेदारी न्यूजरूम के किरदारों को हादसों पर दुखी होना तो दूर संवेदनशील होने तक का वक्त नहीं देती. बाजार का दबाव उस मौके को कैसे भुनाना है इस सोच के इर्द गिर्द ही उन्हें सीमित कर देती है. इसकी एक बानगी है- जब वैशाली को निर्भया गैंगरेप की खबर मिलती है तो सरजी उससे कहते हैं ‘जबरदस्त स्टोरी है, रेप करने वालों की गिरफ्तारी तक, लड़की के ठीक होने या मरने तक ये स्टोरी चलती रहेगी.’ बाद में सरजी ये भी सोचते हैं कि ‘पत्रकारिता का ये कैसा दौर है कि एक लड़की के साथ रेप हुआ है और वह एक लड़की के करियर की संभावनाएं तलाश रहे हैं.’


इस दुनिया में अगर आपको खबर पकड़नी आ गई तो आपसे बड़ा पत्रकार कोई नहीं और सरजी इसी में माहिर हैं. यहां जिसे शब्दों के साथ खेलना आता है उससे बड़ा खिलाड़ी कोई भी नहीं. यहां जब सरजी पलक को प्यार के मायने समझाते हुए कहते हैं कि प्यार दो आत्माओं का होता है जिस्मों का नहीं. क्या फर्क पड़ता है कि जिससे आप प्यार करते हैं उसका नाम अजय है या फिर अब्दुल. इसे सुनकर वैशाली सोचती भी है, ‘आप तो शब्दों की खाते हैं सरजी.’


किताब छोटे कस्बे-शहर के उन परिवारों को भी संदेश देती जो अपनी बेटियों को बड़े पद पर काबिज होने का सपना तो देखते हैं लेकिन अपनी सोच नहीं बदलते. इस सोच का बोझ उस लड़की को कितनी भारी पड़ती है इसका अहसास विजय विद्रोही ने अपनी इस किताब में बखूबी कराया है. क्योंकि इन हालात में उस लड़की के लिए सबसे मुश्किल होता है निजी मोर्चे पर लड़ना. बाहरी दुनिया की चुनौती उसे मजबूत करती है लेकिन अपने लोगों से जूझना कमजोर कर जाता है. वहां फैसला प्रोफेशनल नहीं इमोशनल होता है. खाप से नहीं डरने वाली वैशाली घर के आंगन में भी वैसी ही क्यों नहीं रह पाती.


इसे पढ़ते समय बस एक कसक ये रह गई है कि इसे बहुत ही जल्दबाजी में खत्म कर दिया गया है. वैशाली जो इस किताब की नायिका है अचानक उसका किरदार कमजोर पड़ जाता है. कैमरे से प्रेम कैमरामैन तक पहुंचते ही उसके अंदर लड़ने की शिद्दत नहीं रह जाती. अचानक ही वो इस कदर कमजोर पड़ती है कि अवसरवादी नज़र आने लगती है. नायिकाएं सिर्फ बाहरी दुनिया से लड़ने पर नही गढ़ी जाती, उन्हें अपनों के खिलाफ भी आवाज उठाने का भी साहस होना चाहिए.


इस किताब को पढ़ने के बाद एक बाद सबसे ज्यादा अखरती है कि जिस वैशाली को इसमें नायिका की तरह पेश किया गया है जो अपनी प्रोफेशनल जिंदगी का एक निर्णय भी बिना सरजी का नंबर घुमाए नहीं ले पाती. स्टोरी करने के आइडिया से लेकर उसे एंगल देने की बात हो या फिर पीटीसी करना हो सब सरजी के हिसाब से होता है. कई जगहों पर ये किताब लोगों के इस गलत धारणा को मजबूती देती दिखती है कि महिलाएं बिना किसी सहारे के आगे नहीं बढ़ पाती.


अगर आप न्यूज़ इंडस्ट्री में हैं तो इस किताब के पन्ने आप जैसे-जैसे पलटेंगे करीब हर घटना से आप खुद को जोड़ पाएंगे. लेकिन अगर आप समाचार जगत से नहीं हैं तो आपको न्यूज़रूम के बारे में बहुत सारी दिलचस्प जानकारियां मिलेंगी. इस किताब का नाम ‘करेला इश्क का’ क्यों रखा गया ये भी पढ़ने के बाद ही आप समझ पाएंगे क्योंकि इसमें भरवा करेले की भी एक बहुत ही कड़वी कहानी है. बहुत सारी ऐसी बातें पढ़ने को मिलेंगी जिसे जानकर कभी आप हैरान होंगे तो कभी परेशान.


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