Britain India: हमारे इतिहास में अंग्रेजी राज जुल्मों की दास्तानों से भरी किताब है. दुनिया के कई देशों पर अंग्रेजों ने राज किया. भारत भी उनमें से एक रहा है. ब्रिटेन ने 200 साल तक भारत पर राज किया. इस दौरान अंग्रेजी राज के क्रूर चेहरे से जुड़ी कई कहानियां आज भी इतिहास के पन्नों में दर्ज है.


ब्रिटिश उपनिवेशवाद को अगर कुछ शब्दों में परिभाषित किया जा सकता है तो वो है हिंसा, रंगभेद और आर्थिक शोषण.  ब्रिटिश राज कितना खूंखार था, इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि सिर्फ 40 साल के दौरान ही ब्रिटेन की दमनकारी नीतियों और कानूनों की वजह से 10 करोड़ से ज्यादा भारतीयों की जानें चली गई थी. हाल ही में जारी एक शोध में ये बात निकल कर आई है.
  
40 साल में 10 करोड़ भारतीयों की जानें गई


ऑस्ट्रेलिया के दो रिसर्च स्कॉलर डायलन सुलिवन (Dylan Sullivan) और जैसन हिकेल (Jason Hickel) ने अपने रिसर्च में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के काले चेहरे को उजागर किया है. इस शोध के मुताबिक 1880 से 1920 के दौरान अंग्रेजों ने 10 करोड़ भारतीयों की जान ले ली. मौत का ये आंकड़ा कितना बड़ा है, इसका अंदाजा इसी से हो जाता है कि इस दौरान सोवियत संघ, चीन और उत्तर कोरिया में अकाल से जितने लोगों की मौत हुई थी, उससे ज्यादा लोग भारत में ब्रिटिश जुल्म की वजह से मारे गए थे.


ब्रिटिश उपनिवेशवाद भारत के लिए मानवीय त्रासदी 


आर्थिक इतिहासकार रॉबर्ट सी एलन (Robert C Allen) के शोध के मुताबिक ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में गरीबी 1810 में 23 फीसदी से बढ़कर 20वीं शताब्दी के मध्य में 50 फीसदी से ज्यादा हो गई. रॉबर्ट सी एलन के शोध में इसका दावा किया गया है. इसके मुताबिक ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के दौरान भारत में मजदूरी में गिरावट आई. मजदूरी 19वीं शताब्दी में सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई. लगातार पड़ने वाले अकाल की वजह से हालात और भी खतरनाक होते गए.


रॉबर्ट सी एलन ने दावा किया है कि अंग्रेजों के राज में भारत के लोगों को सिर्फ जुल्म ही जुल्म सहने पड़े. उन्होंने ब्रिटिश उपनिवेशवाद को भारत के लिए मानवीय त्रासदी करार दिया. एक्सपर्ट इस बात से सहमत हैं कि 1880 से 1920 के बीच ब्रिटेन की साम्राज्यवादी शक्ति पूरे शबाब पर था. इस दौरान उनकी दमनकारी नीति सबसे ज्यादा क्रूर थी. ये भारत के लिए विनाशकारी काल था. 1880 के दशक में अंग्रेजों ने भारत में व्यापक स्तर जनगणना की शुरुआत की. इसके आंकड़ों से भयावह तस्वीर निकल कर आती है. 1880 के दशक में भारत में हर एक हजार पर 37 लोगों की मौत होती थी. 1910 में ये आंकड़ा बढ़कर 44 तक पहुंच गया. जीवन प्रत्याशा (Life expectancy) भी 26.7 वर्ष से घटकर 21.9 वर्ष हो गई. 


अंग्रेजों की लूट ने भारत को बनाया गरीब


जर्नल वर्ल्ड डेवलपमेंट में हाल ही प्रकाशित एक पेपर में चार क्रूर दशकों यानी 1880 से लेकर 1920 तक के दौरान अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों से मारे गए लोगों की संख्या का अनुमान लगाने के लिए जनगणना के आंकड़ों का उपयोग किया गया. भारत में मृत्यु दर के आंकड़े 1880 के दशक से ही मौजूद हैं. अगर इस वक्त को ही सामान्य मृत्यु दर के आधार के रूप में लिया जाए, तो 1891 से 1920 की अवधि के दौरान ब्रिटिश उपनिवेशवाद में करीब 5 करोड़ अतिरिक्त मौतें हुईं. ऐसे 5 करोड़ मौत की संख्या एक चौंका देने वाला आंकड़ा है, ये सिर्फ एक अनुमान है. वास्तविक मजदूरी पर आधारित डेटा के मुताबिक 1880 तक, औपनिवेशिक भारत में जीवन स्तर पहले की तुलना में बेहद निचले स्तर तक पहुंच गया था.


16वीं और 17वीं सदी में जीवन स्तर बेहतर थे


आर्थिक इतिहासकार रॉबर्ट सी एलन और दूसरे विद्वानों का दावा है कि उपनिवेशवाद से पहले, भारतीय लोगों का जीवन स्तर पश्चिमी यूरोप के विकासशील हिस्से के बराबर रहा होगा. आंकड़े नहीं होने की वजह से अंग्रेजी राज से पहले भारत में मृत्युदर क्या थी, इस पर निश्चित तौर से कुछ नहीं कहा जा सकता है. 16वीं और 17वीं शताब्दी में इंग्लैंड में मृत्यु दर प्रति हजार लोगों पर 27.18 मौतें थी. अगर मान लिया जाए कि 16वीं और 17वीं शताब्दी में भारत में मृत्यु दर इंग्लैंड के समान थी, तो इससे निष्कर्ष निकलता है कि 1881 से 1920 के बीच भारत में 165 मिलियन यानी साढ़े 16 करोड़ अतिरिक्त मौतें हुई थी.


1881 से 1920 के बीच अंग्रेजों का ज़ुल्म चरम पर


1881 से 1920 के दौरान ब्रिटिश साम्राज्यवाद अपने चरम पर था. इस दौरान 10 करोड़ लोगों की मौत समय से पहले हुई. ये मानव इतिहास में सबसे क्रूर काल में से एक है. ये मौतें सोवियत संघ, चीन, उत्तर कोरिया, कंबोडिया और इथियोपिया में उस दौरान अकाल की वजह से हुई कुल मौतों की संख्या से ज्यादा है. सवाल उठता है कि कैसे अंग्रेजी राज के कारण इतनी जानें गईं. इसके लिए कई कारण जिम्मेदार हैं.


ब्रिटेन ने भारत के विनिर्माण क्षेत्र (manufacturing sector) को बिल्कुल तहस नहस कर दिया. उपनिवेशीकरण से पहले, भारत दुनिया के सबसे बड़े औद्योगिक उत्पादकों में से एक था. यहां से दुनिया के कोने-कोने में हाई क्वालिटी कपड़ों का निर्यात होता था. 1757 में बंगाल पर अधिकार करने के बाद ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने धीरे-धीरे इसे बर्बाद करना शुरू किया.


भारत को निर्यातक से आयातक देश बना दिया


इतिहासकार मधुश्री मुखर्जी के मुताबिक औपनिवेशिक शासन ने व्यावहारिक रूप से भारतीय शुल्कों (Indian tariffs) को खत्म कर दिया. इससे भारत के घरेलू बाजारों में ब्रिटिश सामानों की बाढ़ आ गई. दूसरी तरफ अंग्रेजों ने भारत में ज्यादा टैक्स और शुल्क लगाकर भारतीयों को अपने ही देश में कपड़ा बेचने से रोका. अंग्रेजों ने इस भेदभाव वाले व्यापार व्यवस्था से भारत के बड़े-बड़े उत्पादकों को कुचल दिया और बड़े ही प्रभावी तरीके से भारत के उद्योगों को बर्बाद कर दिया. जैसा कि ईस्ट इंडिया एंड चाइना एसोसिएशन के अध्यक्ष ने 1840 में अंग्रेजी संसद में दावा किया था कि 'ईस्ट इंडिया कंपनी भारत को एक विनिर्माण देश से कच्चे उत्पाद का निर्यात करने वाले देश में बदलने में सफल रही है. इससे ब्रिटिश उत्पादकों को जबरदस्त लाभ हुआ है. भारत गरीबी में सिमट गया और यहां के लोग सिर्फ भूख और बीमारी का दंश झेल रहे हैं.'


कानूनी लूट के सिस्टम से धन निकासी


हालात को और बदतर बनाने के लिए अंग्रेजों ने कानूनी लूट का एक सिस्टम बनाया. इसे भारत से धन निकासी (Drain of wealth) के नाम से जाना जाता है. ब्रिटेन ने भारतीय लोगों को टैक्स के बोझ से दबा दिया और इससे हासिल राजस्व का उपयोग भारतीय उत्पादों.. इंडिगो, अनाज, कपास और अफीम को खरीदने के लिए किया. इस तरह से अंग्रेजों ने इन सामानों को एक तरह से मुफ्त में हासिल कर लिया. इन सामानों का उपभोग या तो ब्रिटेन के भीतर होने लगा या इन्हें अंग्रेज विदेशों में निर्यात करने लगे. भारत से राजस्व के तौर पर मिली राशि का इस्तेमाल ब्रिटेन और उसके उपनिवेशों संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया के औद्योगिक विकास के लिए किया जाता था.


भुखमरी से लाखों भारतीयों की मौत 


इस व्यवस्था की वजह से भारत से आज के हिसाब से खरबों डॉलर की निकासी हो गई. अकाल या बाढ़ होने के बावजूद बर्बरता की हद को पार करते हुए अंग्रेजों ने भारतीयों को अनाज निर्यात करने के लिए मजबूर किया. जबकि खुद भारत के लोग ऐसे वक्त में दाने-दाने को मोहताज थे. इतिहासकारों का मानना है कि अंग्रेजों की दमनकारी नियमों के कारण 19वीं सदी के अंत में अकालों के दौरान लाखों भारतीयों की मौत भुखमरी से हो गई. ऐसा सिर्फ इसलिए हुआ कि भारत के संसाधनों को ब्रिटेन और उसके दूसरे उपनिवेशों में भेज दिया गया था.


लाखों मौत से भी नहीं पिघले अंग्रेज


ऐसा नहीं है कि अंग्रेज प्रशासन के कर्ता-धर्ता लोगों को अपनी क्रूर नीतियों के नतीजों के बारे में कोई अनुमान नहीं था. अंग्रेजों ने लाखों भारतीयों को भूखे मरते देखा, फिर भी उन लोगों ने किसी तरह का रहम नहीं दिखाया और अपनी कठोर नीतियों पर कायम रहे. ऑस्ट्रेलियाई शोधकर्ताओं ने दावा किया है कि 1881-1920 के दौरान ब्रिटेन की शोषणकारी नीतियों की वजह से 10 करोड़  अतिरिक्त मौतें हुई. ये सामान्य मौत से अलग मामले थे.


सख्त नीतियों से भारतीय अर्थव्यवस्था तहस-नहस


जब भारत में ब्रिटिश शासन शुरू हुआ, तब दुनिया की अर्थव्यवस्था में भारत का हिस्सा 23 प्रतिशत था. पर जब उन्होंने भारत छोड़ा, तब यह आंकड़ा सिमटकर महज चार फीसदी रह गया. दुनियाभर में क्वॉलिटी कपड़े एक्सपोर्ट करने वाला भारत इंपोर्ट करने वाला देश बनकर रह गया. जिस उद्योग में भारत विश्व का 27 फीसदी योगदान करता था, वो घटकर 2 प्रतिशत से नीचे पहुंच गया.


पहले विश्व युद्ध में जबरन भारतीय संसाधनों का इस्तेमाल


पहले विश्व युद्ध के कुछ आंकड़ों से भी अंग्रेजों के बेइंतहा शोषण को समझा जा सकता है. भारत उस वक्त गरीबी और आर्थिक मंदी का दंश झेल रहा था. इसके बावजूद भारत की बड़ी धनराशि का इस्तेमाल अंग्रेजों ने इस युद्ध में किया. आज के हिसाब से ये आठ बिलियन पाउंड की राशि थी.  इस युद्ध में लड़ने वाली  ब्रिटिश आर्मी का हर छठवां जवान इंडियन था. इस युद्ध में 54 हजार से ज्यादा भारतीय सैनिकों की मौत हुई थी और करीब 70 हजार भारतीय जवान घायल हुए थे. 4 हजार लोगों के बारे में तो पता ही नहीं चला. दूसरे विश्व युद्ध में 25 लाख इंडियन जवानों ने हिस्सा लिया.
 
दुनिया की हाई प्रोफाइल किताबों में शुमार नियाल फर्ग्यूसन (Niall Ferguson) की 'एम्पायर: हाउ ब्रिटेन मेड द मॉडर्न वर्ल्ड' और ब्रूस गिली (Bruce Gilley) की 'द लास्ट इंपीरियलिस्ट' में दावा किया गया है कि ब्रिटिश उपनिवेशवाद भारत और अन्य उपनिवेशों में समृद्धि और विकास लाया. दो साल पहले, YouGov के एक पोल में ये तथ्य निकल कर आया था कि ब्रिटेन में 32 फीसदी लोग अपने देश के औपनिवेशिक इतिहास पर गर्व करते हैं. लेकिन दिल दहला देने वाले मौत के आंकड़ों से इन दावों की पोल तो खुलती ही है. ये आंकड़े ब्रिटिश उपनिवेशवाद के काले सच को भी उजागर कर देते हैं.  


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