लेह-लद्दाख को देश से जोड़ने वाला नया एक्सेस जल्द बनकर होगा तैयार, चीन और पाकिस्तान की जद से दूर होगी ये सड़क
नए एक्सेस से भारत को सामरिक फायदा ये होगा की ये चीन और पाकिस्तान की जद से काफी दूर है. करगिल युद्ध के दौरान पाकिस्तानी गोलाबारी के चलते भारतीय सेना की गाड़ियों का चलना बेहद मुश्किल हो गया था.
लद्दाख: चीन से एलएसी पर चल रही तनातनी के बीच एक अच्छी खबर है कि लेह-लद्दाख को देश के बाकी हिस्सों से जोड़ने के लिए पदम-एक्सेस को बीआरओ जल्द पूरा कर सकता है. 400 किलोमीटर लंबे इस स्ट्रेच पर अब मात्र 30 किलोमीटर का काम रह गया है. चीन और पाकिस्तान दोनों दुश्मन देशों की जद से दूर इस दारचा-पदम-निम्मू रोड बनने से सेना की सप्लाई लाइन बारह महीने खुली रह सकती है. एबीपी न्यूज की टीम खुद इस बेहद ही खूबसूरत जंसकार-वैली से गुजरने वाली रोड के सफर पर गई इसका सूरते-हाल जानने के लिए.
आपको बता दें कि लेह-लद्दाख पहुंचने के लिए इस वक्त दो एक्सेस हैं. पहला है श्रीनगर से सोनमर्ग और जोजिला दर्रे के जरिए करगिल-द्रास और लेह तक पहुंचने वाला नेशनल हाईवे नंबर-1ए. लेह से फिर पूर्वी लद्दाख के लिए चांगला-पास (दर्रा) पार कर डीबीओ, डेपसांग प्लेन, गलवान, गोगरा, हॉट-स्प्रिंग, फिंगर एरिया और चुशुल सेक्टर तक पहुंचा जा सकता है.
दूसरा एक्सेस है कुल्लु-मनाली से रोहतांग-टनल के जरिए कारू और लेह तक का. इस रास्ते से ही आगे करगिल-द्रास तक जाया जा सकता है. लेकिन इन दोनों ही एक्सेस से सेना और स्थानीय लोगों को सबसे बड़ी मुश्किल का सामन सर्दियों के मौसम में उठाना पड़ता है. जोजिल-पास नबम्बर से लेकर मार्च-अप्रैल के महीने तक बर्फबारी और एवालांच के चलते बंद हो जाता है. रोहतांग-दर्रा भी बर्फबारी के चलते बंद हो जाता था.
हालांकि, रोहतांग-टनल ('अटल टनल') बनने से कुल्लु मनाली वाला एक्सेस अब खुल रह सकता है. लेकिन कुल्लु-मनाली से करगिल तक की दूरी करीब 700 किलोमीटर है. लेकिन जो नया एक्सेस रोहतांग-टनल से दारचा और पदम से होता हुआ निम्मो तक जाता है उससे करगिल की दूरी करीब 200 किलोमीटर कम हो जाएगी. यानि सेना के करीब 6-7 घंटे बच सकते हैं. मिलिट्री मूवमेंट में इतना समय काफी महत्वपूर्ण होता है.
समय के साथ साथ नए एक्सेस से भारत को सामरिक फायदा ये होगा की ये चीन और पाकिस्तान की जद से काफी दूर है. नेशनल हाईवे वन-ए करगिल और द्रास में पाकिस्तान से सटी एलओसी के बेहद करीब से गुजरता है. ऐसे में किसी भी युद्ध की परिस्थिति में ये सड़क पाकिस्तानी सेना की गोलाबारी की सीधी रेंज में रहती है. करगिल युद्ध के दौरान इस हाईवे पर पाकिस्तानी गोलाबारी के चलते भारतीय सेना की गाड़ियों का चलना बेहद मुश्किल हो गया था.
रोहतांग-टनल से सरचू और कारू होते हुए लेह पहुंचने वाला हाईवे भी चीन से सटी एलएसी के बेहद करीब से गुजरता है. ऐसे में युद्ध की परिस्थितियों में इस हाईवे पर भी मूवमेंट करना खतरे से खाली नहीं हो सकता है. साथ ही ये हाईवे साल में सिर्फ चार-पांच महीने ही खुलता है. इसीलिए पदम एक्सेस सेना और स्थानीय लोगों के लिए बेहद जरूरी है.
दारचा-पदम-निम्मू एक्सेस के पूरी तरह खुलने से पहले ही एबीपी न्यूज ने इस सड़क पर जाने का प्लान बनाया. लेह से करीब 35 किलोमीटर दूर निम्मू से हमने अपना सफर शुरू किया. यहां सिंधु और जंसकार नदियों के संगम से ये 414 किलोमीटर लंबी सड़क शुरू हो जाती है. इस सड़क को भी बॉर्डर रोड ऑर्गेनइजेशन यानि बीआरओ तैयार कर रहा है.
आपको यहां पर ये भी बता दें कि पदम एक्सेस पहले एक कच्चा ट्रैक हुआ करता था जिसपर जंसकार घाटी में बसे चिलिंग और निरक गांव के लोग इस्तेमाल किया करते थे. लेकिन अब ये एक फर्स्ट क्लास रोड बन गई है जिसपर टैंक भी दौड़ सकते हैं. एबीपी न्यूज ने देखा कि कहीं कहीं पर सड़क कच्ची है और पुल भी पूरी तरह तैयार नहीं हुए हैं. चिलिंग से निरक की तरफ बढ़ने पर रास्ता बंद हो जाता है. यहां डायनामाइट के जरिए बलास्ट कर बीआरओ की टीम पत्थरों को तोड़कर सड़क बनाने में जुटी है.
लेकिन बीआरओ के लिए इस सड़क को बनाना कोई आसान काम नहीं था. क्योंकि यहां पहाड़ सोलिड-रॉक है. उन्हें तोड़ना इतना आसान नहीं था. बीआरओ नो इस रोड को दो तरफ से बनाना शुरू किया था. एक निम्मू की तरफ से और दूसरा दारच से. क्योंकि इस सड़क पर पदम इलाका पड़ता है इसलिए इसे पदम-एक्सेस या फिर डीपीएन यानि दारचा-पदम-निम्मू एक्सेस भी कहा जाता है. इस हाईवे पर खूबसूरत जंसकार वैली भी पड़ती है. इसलिए इसे जंसकार-रोड के नाम से भी जाना जाता है. यहां पर ये सड़क सिंकुला दर्रे से होकर गुजरती है जो 16300 फीट की उंचाई पर है.
पदम एक्सेस बनने से सिर्फ सेना को ही सामरिक बढ़त नहीं मिलेगी बल्कि स्थानीय लोगों और पर्यटकों को भी फायदा होगा. हर साल सर्दियों के मौसम में बड़ी तादाद में विदेशा पर्यटक जंसकार नदीं में ट्रैकिंग करने आते हैं, क्योंकि उस वक्त ये पूरी तरह बर्फ से जमी होती है. निम्मू के करीब संगम से दारचा तक के इस ट्रैकिंग को 'चादर ट्रैक' के नाम से जाना जाता है. कई बार खराब मौसम के चलते इन टूरिस्ट के यहां फंसने पर सेना और वायुसेना के हेलीकॉप्टर उनका यहां से रेस्कयू करते हैं.
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