Lok Sabha Election Result 2024: चुनावी नतीजों में बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए की जीत हुई है. वहीं, विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' बहुमत से दूर रह गया, लेकिन सियासत के गलियारों में सबसे बड़ा सवाल ये है कि अब यूपी की पूर्व सीएम मायावती का क्या होगा? इस चुनाव में बसपा सुप्रिमो मायावती ने उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे. नतीजे आए तो पता चला कि खाता खोलना तो छोड़िए, बसपा का उम्मीदवार किसी भी सीट पर दूसरे नंबर पर भी नजर नहीं आया. 


ऐसे में जो सवाल बार-बार पूछा जाता है, वो ही सवाल अब भी पूछा जा रहा है कि क्या मायावती की राजनीति का अंत हो गया है? क्या अब मायावती की जगह लेने के लिए एक और दलित नेता तैयार है, जिसका नाम चंद्रशेखर है या फिर चंद्रशेखर को मायावती के कद और पद तक पहुंचने के लिए करना होगा अभी और लंबा इंतजार, आखिर क्या है मायावती का भविष्य, चलिए समझने की कोशिश करते हैं. 


बसपा का रहा सबसे खराब प्रदर्शन
साल 2024 के लोकसभा चुनावों के नतीजे ये तो बता रहे हैं कि मायावती पर बीजेपी की बी टीम होने का जो आरोप लगता रहा है, वो दाग मायावती ने धुल लिए हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि मायावती और उनके उम्मीदवार इस चुनाव में किसी भी सीट इतने वोट नहीं काट पाए कि उससे जीत और हार प्रभावित हो. लिहाजा मायावती को बीजेपी की बी टीम होने के आरोप से मुक्ति मिलती दिख रही है.


सवाल है कि अब मायावती का होगा क्या? उससे भी बड़ा सवाल है कि अब उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति का भविष्य क्या है? ऐसे में पहले मायावती के भविष्य को समझने की कोशिश करते हैं. मायावती का वर्तमान ही ये बताने के लिए पर्याप्त है कि उनका भविष्य क्या है. 


ऐसा इसलिए क्योंकि मायावती को इस चुनाव में लगभग 9.39 फीसदी वोट मिले हैं, जो बसपा के गठन से अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन है. बसपा ने जब 1989 में अपना पहला चुनाव लड़ा था, तब भी बसपा को 9.90 फीसदी वोट मिले थे और उसने लोकसभा की कुल 2 सीटों पर जीत दर्ज की थी.


बसपा का नहीं खुला खाता
35 साल बाद बसपा ने जब फिर से चुनाव लड़ा तो उसका खाता भी नहीं खुला. बसपा अपने पहले चुनाव के वोट प्रतिशत तक भी नहीं पहुंच सकी. सबसे बड़ी बात तो ये है कि बसपा के 80 में से एक भी प्रत्याशी दूसरे नंबर पर भी नहीं पहुंच सके. इतना ही नहीं बसपा अपने कुल वोट के आंकड़े को एक करोड़ तक भी नहीं पहुंचा सकी. 


ऐसे में सवाल है कि 35 साल में ऐसा क्या बदला कि जो मायावती उत्तर प्रदेश जैसे राज्य की चार-चार बार मुख्यमंत्री रही हैं, उनके प्रत्याशी जीतना दो दूर दूसरे नंबर पर भी नहीं पहुंच पाए.


इसका जवाब खोजना कोई रॉकेट साइंस का काम नहीं है. इसका एक ही जवाब है और वो है मायावती की राजनीतिक शैली, जो उन्होंने तब से अपना रखी है, जब वो आखिरी बार मुख्यमंत्री बनी थीं. यानी कि साल 2007 में विधानसभा का चुनाव अपने दम पर जीतने के बाद मायावती ने कभी उस शिद्दत से चुनाव लड़ा ही नहीं, जिसके लिए बहुजन समाज पार्टी जानी जाती थी.


2009 का लोकसभा चुनाव वो आखिरी चुनाव था, जिसमें मायावती ने जोर लगाया था. तब वो उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री थीं. 2009 के लोकसभा चुनाव में मायावती ने कुल 20 सीटों पर जीत दर्ज की थी और उनका वोट प्रतिशत भी 27 फीसदी से ज्यादा का था, लेकिन 2014 के चुनाव में मायावती का अकेला चुनाव लड़ने का फैसला बहुत भारी पड़ा.


साल 2014 के लोकसभा चुनाव में मायावती का खाता भी नहीं खुला और उनका वोट प्रतिशत भी घटकर 20 फीसदी के नीचे आ गया. साल 2019 के चुनाव में मायावती को समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल के गठबंधन का फायदा मिला.


उस चुनाव में आखिरी बार मायावती को लोकसभा की कुल 10 सीटें मिली थीं. हालांकि वोट प्रतिशत में तब भी कोई सुधार देखने को नहीं मिला था और कुल वोट 20 फीसदी के नीचे ही था, लेकिन अब 2024 में मायावती ने अपनी बची-खुची जमीन भी खो दी है. अब न उनके पास वोट बचा है और न ही सीट. और इसकी वजह कोई और नहीं वो खुद हैं.


मायावती के किस रवैया ने वोटरों को हैरान कर दिया?
साल 2024 के चुनाव की घोषणा से पहले तक ये लग भी नहीं रहा था मायावती की पार्टी चुनाव लड़ेगी, क्योंकि उनकी सक्रियता बिल्कुल भी नहीं थी. चुनाव की घोषणा होने और आचार संहिता लगने के बाद मायावती ने एक-एक करके प्रत्याशियों के नाम का ऐलान करना शुरू किया तो लगा कि मायावती थोड़ी-बहुत सक्रियता दिखा रही हैं. 


फिर पता चला कि मायावती सिर्फ उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि पूरे देश में चुनाव लड़ रही हैं. उन्होंने 543 में से 488 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार दिए हैं, लेकिन फिर प्रत्याशियों का ऐलान करना और चंद घंटे के अंदर ही प्रत्याशियों को बदल देना, उनके इस रवैया ने उनके अपने वोटरों को भी हैरान कर दिया.


बात सिर्फ उत्तर प्रदेश की करें, जो मायावती की सियासी जमीन रही है तो यहां की 80 सीटों में से मायावती ने 35 मुस्लिम उम्मीदवारों को उतारकर दलित-मुस्लिम कॉम्बिनेशन बनाने की कोशिश तो की, लेकिन रैली के नाम पर 30 से भी कम रैलियां खुद कीं. 


उनके स्टार प्रचारक में शामिल थे सतीश चंद्र मिश्रा, लेकिन उन्हें कहीं बोलने का मौका भी नहीं मिला.  बची-खुची कसर उन्होंने तब पूरी कर दी, जब उन्होंने अपने भतीजे और अपने सियासी उत्तराधिकारी आकाश आनंद को उनके पद से हटा दिया, जबकि ये आकाश आनंद ही थे, जिनके भाषण सुर्खियां बटोर रहे थे और सोशल मीडिया पर आकाश आनंद वायरल भी हो रहे थे.


जिस तरीके से आकाश आनंद ने सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को निशाने पर लिया था, उसने बीएसपी के कोर वोटर में थोड़ी ऊर्जा भर दी थी. लेकिन आकाश आनंद को पद से हटाना मायावती को बहुत भारी पड़ा. नतीजा ये रहा कि जिस मायावती को 2022 के विधानसभा चुनाव में 12.88 फीसदी वोट मिले थे, वो लोकसभा चुनाव में घटकर 9.39 फीसदी पर आकर गिर गए. अब रही बात कि मायावती का क्या होगा. तो इसका जवाब उस लोकसभा सीट के नतीजे से देखने को मिलता है, जहां पर एक ऐसे दलित चेहरे ने जीत दर्ज की है, जिसके सामने मायावती का उम्मीदवार कहीं नजर भी नहीं आ रहा है.


वो सीट है नगीना, जहां से चंद्रशेखर ने जीत दर्ज की है. ऐसा नहीं है कि मायावती ने दलित होने के नाते चंद्रशेखर को कोई रियायत दी थी और उनके खिलाफ अपना उम्मीदवार उतारा था, जिनका नाम है सुरेंद्र पाल सिंह. चंद्रशेखर के सामने चुनाव लड़ रहे सुरेंद्र पाल सिंह को महज 13,272 वोट मिले, जबकि चंद्रशेखर ने 5,12,552 वोट लाकर इस सीट से जीत दर्ज की. 


इस जीत ने ये तय कर दिया है कि अगर उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति का कोई चेहरा है तो वो चेहरा अब चंद्रशेखर हैं मायावती नहीं, जिन्होंने अपने चुनाव प्रचार की लाइन ही रखी थी कांशीराम जी के सपने. कांशीराम ने अपने जीते-जी मायावती को अपना उत्तराधिकारी बनाया था, लेकिन नगीना से बड़ी जीत हासिल कर चंद्रशेखर ने बता दिया है कि उनकी लकीर कहीं और बड़ी है.  क्या चंद्रशेखर की खींची हुई लकीर वक्त के साथ और बड़ी होगी या फिर उनकी राह में आने वाली हैं कई और चुनौतियां, इन्हें जानने के लिए करना होगा थोड़ा इंतजार. 


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