नई दिल्ली: पश्चिमी उत्तर प्रदेश का एक प्रमुख शहर है बुलंदशहर. यहां के बीबीनगर इलाके में एक गांव है जिसका नाम है सैदपुर. इस गांव की आबादी करीब 25 से 30 हजार है. इस गांव के करीब 5 से 7 हजार लोग फौज में सेवाएं दे रहे हैं. पुराने फौजी बताते हैं कि सैदपुर बटालियन आर्मी में काफी प्रसिद्ध है.

जिला मुख्यालय से ये गांव करीब 40 किलोमीटर है. गांव में बहुत से शहीदों की मूर्तियां लगी हुई हैं. स्थानीय निवासी कुशलपाल सिंह बताते हैं कि इस गांव के हर घर से कोई ना कोई फौज में है. कुछ घरों से तो सभी लोग फौज में हैं. बड़ी संख्या में लड़कियां भी आर्मी का हिस्सा हैं.

विश्वयुद्ध के दौरान 1914 में यहां के 155 सैनिक जर्मनी गए थे. इनमें से 29 जवान शहीद हो गए और करीब 100 जवान वहीं बस गए. जिस जगह ये लोग रहने लगे उस जगह का नाम जाटलैंट रख दिया. सैदपुर में सिरोही और अहलावट जाट रहते हैं. सेना इस गांव के लिए स्पेशल भर्ती का भी आयोजन करती है.

बहुतों ने गवांई जान
इस गांव के बहुत से फौजियों ने विभिन्न युद्धों में अपनी जान गवां दी. ऐसे शहीदों की करीब 300 विधवाएं भी इस गांव में रहती हैं. कई परिवार तो ऐसे हैं जहां सेना की नौकरी करना पुश्तैनी है यानि परिवार की कई पीढियां सेना में काम कर चुकी हैं.

हर युद्ध में निशान
1962 का युद्ध हो या 1965 का, या फिर 71 और कारगिल का युद्ध हो, हर युद्ध में सैदपुर की वीरता के किस्से बिखरे हुए हैं. 65 के युद्ध में कैप्टन सुखबीर सिरोही वीरगति को प्रप्त हुए तो खुद इंदिया गांधी उनका अस्थि कलश लेकर गांव पहुंची थीं. 71 के युद्ध में एक ही दिन गांव के दो सिरोहियों ने शहादत दी.



पीएम से लेकर सीएम तक सभी पहुंचे यहां
इंदिरा गांधी, चौधरी चरण सिंह, बाबू बनारसी दास, मुलायम सिंह जैसे लोग गांव में आकर शीश नवां चुके हैं. कुशलपाल सिंह बताते हैं कि गांव के बुजुर्ग, युवाओं को युद्ध के किस्से सुनाते हैं, वीरता के किस्से सुनाते हैं और युवा अपना उद्देश्य फौज में जाना बना लेते हैं.

गांव के पास हैं दर्जनों मेडल
स्थानीय पत्रकार बताते हैं कि गांव के पास दर्जनों मेडल हैं. सेना मेडल से लेकर गेलेंट्री मेडल तक गांव में हैं. कई ऐसे किस्से भी गांव में हैं कि पिता की शहादत के बाद बेटा भी फौज में गया. जब फौजी वापस लौटते हैं तो गांव में मेले जैसा माहौल होता है.

अब गांव के लोग बाहर बसने को दे रहे हैं प्राथमिकता
कुशलपाल सिंह बताते हैं कि अब गांव के युवा देश के बाहर बसने को प्राथमिकता दे रहे हैं. अगर वे देश में भी रहते हैं तो महानगरों में बसना चाहते हैं. उनके दोनों बेटे भी विदेश में रहते हैं. वे कहते हैं कि एक वक्त था जब फौजी वापस लौट कर गांव के युवाओं के शिक्षित करते थे लेकिन अब इसमें कमी आ रही है. रिटायर होने के बाद फौजी महानगरों में रहना पसंद कर रहे हैं.