बिहार के कास्ट सर्वे के आंकड़े सामने आने के बाद देश में जातिगत जनगणना को लेकर एक बार फिर से चर्चा शुरू हो गई है. विपक्षी दल इसके पक्ष में हैं तो वहीं सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (BJP) दूरी बनाए नजर आ रही है. अभी जनगणना में सिर्फ अनुसूचित जाति और जनजाति एवं धर्मों के आंकड़े आते हैं. ओबीसी जातियों की आबादी की गणना नहीं होती है इसलिए ये नहीं पता चल पाता कि किस जाति के कितने लोग हैं.


जातिगत जनगणना कराने का मकसद आरक्षण से है कि जिस जाति की जितनी आबादी है उसको उसके हिसाब से आरक्षण मिले. जाति आधारित आरक्षण का विचार सबसे पहले साल 1882 में दिया गया था.


सबसे पहले किसने उठाई थी आरक्षण की मांग
विलियम हंटर और ज्योतिराव फुले ने सबसे पहले देश में जाति आधारित आरक्षण की बात की थी और इसके बाद देश में मुसलमानों, सिखों, ईसाईयों, एंगलो-हिंदू,यूरोपीयन और दलितों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र के लिए कम्युनल अवॉर्ड की शुरुआत हुई. कम्युनल अवॉर्ड 1932 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री रामसे मैकडोनल्ड लाए थे. इसके तहत दलितों को 2 वोट का अधिकार मिला. इस अधिकार के जरिए दलित एक वोट से प्रतिनिधि चुन सकते थे और दूसरे वोट से सामान्य वर्ग का प्रतिनिधि चुन सकते थे.


गांधी और अंबेडकर के बीच हुआ था पूना पैक्ट समझौता
24 सितंबर, 1932 को कम्युनल अवॉर्ड के जरिए दलितों को मिला दो वोट का अधिकार खत्म हो गया. दरअसल, महात्मा गांधी इसके खिलाफ थे. 1931 में दूसरे गोलमेज सम्मेलन में शामिल होने के लिए महात्मा गांधी और डॉ. भीमराव अंबेडकर लंदन पहुंचे, जहां अंबेडकर ने दलितों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र की मांग रख दी. उसी वक्त गांधी ने इस पर अपना विरोध जताया था. हालांकि, 16 अगस्त, 1932 को कम्युनल अवॉर्ड की शुरुआत हुई और दलितों को अलग निर्वाचन क्षेत्र का अधिकार मिल गया, जिसे 24 सितंबर, 1932 को खत्म कर दिया गया. इसके लिए अंबेडकर और महात्मा गांधी के बीच पुणे की यरवदा जेल में एक समझौता हुआ था, जिसे पूना पैक्ट के नाम से जाना जाता है. समझौते के तहत यह भी तय हुआ कि कुछ आरक्षण के साथ सिर्फ एक हिंदू निर्वाचन क्षेत्र रहेगा.


मंडल कमीशन की रिपोर्ट
पिछड़ा वर्ग के आरक्षण में मंडल कमीशन की अहम भूमिका मानी जाती है. इसके तहत ही पहली बार ओबीसी के लिए आरक्षण की बात कही गई थी और उनके लिए 27 फीसदी आरक्षण तय हुआ. साल 1979 में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान करने और उनकी बेहतरी के लिए क्या कदम उठाए जाएं, इसका सुझाव देने के लिए मंडल कमीशन का गठन हुआ. 1980 में कमीशन ने अपनी रिपोर्ट पेश की और पता चला कि देश की 52 फीसदी आबादी ओबीसी वर्ग से है. आयोग ने गैर-हिंदुओं के पिछड़ा वर्ग की भी पहचान की थी और ओबीसी के लिए 27 फीसदी आरक्षण का सुझाव दिया. आयोग की अध्यक्षता बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री बीपी मंडल ने की थी. शुरुआत में कमीशन ने तर्क दिया कि ओबीसी के आरक्षण का प्रतिशत उसकी आबादी से मेल खाना चाहिए, लेकिन एम.आर. बालाजी बनाम मैसूर राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट रिजर्वेशन के लिए 50 प्रतिशत की सीमा तय कर चुका था और अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए पहले से ही 22.5 फीसदी आरक्षण था इसलिए ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण सीमित कर दिया गया, जिसे 1990 में लागू किया गया.


दलितों के लिए आवाज उठाने वाले कांशीराम
जब भी दलितों और आरक्षण की बात होती है तो कांशीराम का नाम जरूर आता है क्योंकि अपने राजनीतिक सफर में दलितों के लिए उन्होंने खूब काम किया. उन्होंने 1973 में ऑल इंडिया बैकवर्ड माइनॉरिटी एम्पलाईज फेडरेशन का गठन किया था, जिसे शॉर्ट में बामसेफ कहा जाता था. 1981 में इस संगठन को शोषित समाज समिति यानी डीएस-4 नाम दिया गया. इसका गठन करते हुए कांशीराम ने नारा दिया 'ठाकुर, ब्राह्मण, बनिया छोड़, बाकी सब हैं डीएस-4'. दलितों के कल्याण के लिए आवाज उठाने वाले कांशीराम ने तीन साल बाद बहुजन समाज पार्टी बनाई. उन्होंने अपनी किताब में भी कहा कि वह देश की 85 प्रतिशत आबादी, जो दलित, अनुसूचित जनजाति, पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक हैं, को साथ लाना चाहते थे. 'वोट हमारा, राज तुम्हारा, नहीं चलेगा, नहीं चलेगा', 'जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी', और 'वोट से लेंगे सीएम/पीएम, आरक्षण से लेंगे एसपी/डीएम' जैसे उनके प्रसिद्ध नारों ने इन समुदायों का उनकी तरफ खूब ध्यान खींचा.


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