Christmas Day 2018: सेंटा क्लॉज कौन है और कहां से आता है? जानिए सबकुछ
सेंटा क्लॉज से उपहार पाकर अधिकांश बच्चों के दिमाग में यह सवाल जरूर उमड़ता है कि उन्हें उपहार देने और इतना प्यार करने वाला यह सेंटा क्लॉज आखिर है कौन और यह कहां से आता है और बच्चों को उपहार क्यों देकर जाता है?
नई दिल्ली: क्रिसमस का नाम सुनते ही बच्चों के मन में सफेद और लंबी दाढ़ी वाले लाल रंग के कपड़े और सिर पर फुनगी वाली टोपी पहने पीठ पर खिलौनों का झोला लादे बूढ़े बाबा 'सेंटा क्लॉज' की तस्वीर उभरने लगती है.
क्रिसमस (25 दिसम्बर) के दिन तो बच्चों को सेंटा क्लॉज का खासतौर से इंतजार रहता है क्योंकि इस दिन वह बच्चों के लिए ढ़ेर सारे उपहार और तरह-तरह के खिलौने जो लेकर आता है. ईसाई समुदाय के बच्चे तो सेंटा क्लॉज को एक देवदूत मानते रहे हैं क्योंकि उनका विश्वास है कि सांता क्लॉज उनके लिए उपहार लेकर सीधा स्वर्ग से धरती पर आता है और टॉफियां, चॉकलेट, फल, खिलौने व अन्य उपहार बांटकर वापस स्वर्ग में चला जाता है. बच्चे प्यार से सेंटा क्लॉज को 'क्रिसमस फादर' भी कहते हैं.
सेंटा क्लॉज के प्रति न केवल ईसाई समुदाय के बच्चों का बल्कि दुनिया भर में अन्य समुदायों के बच्चों का आकर्षण भी पिछले कुछ समय में काफी बढ़ा है और इसका एक कारण यह है कि विभिन्न शहरों में 25 दिसम्बर के दिन सांता क्लॉज बने व्यक्ति विभिन्न सार्वजनिक स्थलों अथवा चौराहों पर खड़े हर समुदाय के बच्चों को बड़े प्यार से उपहार बांटते देखे जा सकते हैं.
लेकिन सेंटा क्लॉज से उपहार पाकर अधिकांश बच्चों के दिमाग में यह सवाल जरूर उमड़ता है कि उन्हें उपहार देने और इतना प्यार करने वाला यह सांता क्लॉज आखिर है कौन और यह कहां से आता है और बच्चों को उपहार क्यों देकर जाता है? बच्चों का दिल रखने के लिए कुछ माता-पिता उन्हें कह देते हैं कि वह एक देवदूत है, जो क्रिसमस की रात अपने 8 रेंडियर वाले स्लेज पर बैठकर स्वर्ग से आता है और बच्चों को उपहार बांटकर स्वर्ग वापस चला जाता है जबकि कुछ बच्चों के माता-पिता यह कहकर उनकी जिज्ञासा शांत कर देते हैं कि सेंटा क्लॉज बहुत दूर स्थित एक बफीर्ले देश से आते हैं.
आज हम आपको बता रहे हैं कि सेंटा क्लॉज आखिर कौन है और यह हर साल 25 दिसम्बर को ही उपहार देने क्यों आता है? सेंटा क्लॉज चौथी शताब्दी में मायरा के निकट एक शहर (जो अब तुर्की के नाम से जाना जाता है) में जन्मे संत निकोलस का ही रूप है।
संत निकोलस के पिता एक बहुत बड़े व्यापारी थे, जिन्होंने निकोलस को अच्छे संस्कार देते हुए दूसरों के प्रति सदा दयाभाव रखने और जरूरतमंदों की सहायता करने को प्रेरित किया. निकोलस पर इन सब बातों का इतना असर हुआ कि वह हर समय जरूरतमंदों की सहायता करने को तत्पर रहते. बच्चों से तो उन्हें खास लगाव हो गया था.
अपनी ढ़ेर सारी दौलत में से बच्चों के लिए वह ढ़ेर सारे खिलौने खरीदते और खिड़कियों से उनके घरों में फैंक देते. संत निकोलस की याद में कुछ जगहों पर हर वर्ष 6 दिसम्बर को 'संत निकोलस दिवस' भी मनाया जाने लगा. इसके पीछे यही धारणा थी कि वह इसी दिन गरीब लड़कियों की शादी के लिए धन व तोहफे दिया करते थे लेकिन वह बच्चों को 25 दिसम्बर को ही तोहफे बांटते थे.
कुछ लोगों का यह भी मानना है कि संत निकोलस की लोकप्रियता से जलने वाले कुछ लोगों ने 6 दिसम्बर के दिन ही उनकी हत्या करवा दी थी, इसीलिए 6 दिसम्बर को 'संत निकोलस दिवस' मनाया जाने लगा था. लेकिन वर्तमान में बच्चे सांता क्लॉज का इंतजार 25 दिसम्बर को ही करते हैं.
सेंटा क्लॉज के बारे में कई कथाएं प्रचलित हैं. कहा जाता है कि एक बार निकोलस को मायरा के एक ऐसे व्यक्ति के बारे में जानकारी मिली, जो बहुत धनवान था लेकिन कुछ समय पहले व्यापार में भारी घाटा हो जाने से वह कंगाल हो चुका था. उस व्यक्ति की चार बेटियां थी लेकिन उनके विवाह के लिए उसके पास कुछ न बचा था. यहां तक कि उसके परिवार के लिए तो खाने के भी लाले पड़े थे.
जब उससे अपने परिवार की इतनी बुरी हालत देखी न गई और लड़कियां विवाह योग्य हो गई तो उसने फैसला किया कि वह इनमें से एक लड़की को बेच देगा और उससे मिले पैसे से अपने परिवार का पालन-पोषण करेगा और बाकी बेटियों का विवाह करेगा. अगले दिन अपनी एक बेटी को बेचने का विचार करके वह रात को सो गया लेकिन उसी रात संत निकोलस उसके घर पहुंचे और चुपके से खिड़की में से सोने से सिक्कों से भरा एक बैग घर में डालकर चले गए.
सुबह जब उस व्यक्ति की आंख खुली और उसने सोने के सिक्कों से भरा बैग खिड़की के पास पड़ा देखा तो वह बहुत आश्चर्यचकित हुआ कि यह बैग यहां कहां से आया? उसने आसपास चारों तरफ देखा लेकिन उसे कहीं कोई दिखाई नहीं दिया तो उसने ईश्वर का धन्यवाद करते हुए बैग अपने पास रख लिया और एक-एक कर धूमधाम से अपनी चारों बेटियों की शादी की. बाद में उसे पता चला कि यह बैग संत निकोलस ही उसकी बेटियों की शादी के लिए उसके घर छोड़ गए थे.
क्रिसमस के दिन कुछ देशों में ईसाई परिवारों के बच्चे रात के समय अपने-अपने घरों के बाहर अपनी जुराबें सुखाते भी देखे जा सकते हैं. इसके पीछे मान्यता यह है कि सेंटा क्लॉज रात के समय आकर उनकी जुराबों में उनके मनपसंद उपहार भर जाएंगे. इस बारे में भी एक कथा प्रचलित है. कहा जाता है कि एक बार सांता क्लॉज ने देखा कि कुछ गरीब परिवारों के बच्चे आग पर सेंककर अपनी जुराबें सुखा रहे हैं. जब बच्चे सो गए तो सेंटा क्लॉज ने उनकी जुराबों में सोने की मोहरें भर दी और चुपचाप वहां से चले गए.
हर व्यक्ति के प्रति निकोलस के हृदय में दया भाव और जरूरतमंदों की सहायता करने की उनकी भावना को देखते हुए मायरा शहर के समस्त पादरियों, पड़ोसी शहरों के पादरियों और शहर के गणमान्य व्यक्तियों के कहने पर मायरा के बिशप की मृत्यु के उपरांत निकोलस को मायरा का नया बिशप नियुक्त किया गया था क्योंकि सभी का यही मानना था कि ईश्वर ने निकोलस को उन सभी का मार्गदर्शन करने के लिए ही भेजा है.
बिशप के रूप में निकोलस की जिम्मेदारियां और बढ़ गई. एक बिशप के रूप में अब उन्हें शहर के हर व्यक्ति की जरूरतों का ध्यान रखना होता था. जहां भी कोई व्यक्ति परेशानी में होता, निकोलस उसी क्षण वहां पहुंच जाते और उसकी जरूरतों को पूरा कर उसके धन्यवाद का इंतजार किए बिना ही दूसरे जरूरतमंद की जरूरतें पूरी करने आगे निकल पड़ते. वह इस बात का खासतौर पर ख्याल रखते कि शहर में हर व्यक्ति को भरपेट भोजन मिले, रहने के लिए अच्छी जगह तथा सभी की बेटियों की शादी धूमधाम से सम्पन्न हो.
यही कारण था कि निकोलस एक संत के रूप में बहुत प्रसिद्ध हो गए और न केवल आम आदमी बल्कि चोर-लुटेरे और डाकू भी उन्हें चाहने लगे. उनकी प्रसिद्धि चहुं ओर फैलने लगी और जब उनकी प्रसिद्धि उत्तरी यूरोप में भी फैली तो लोगों ने आदरपूर्वक निकोलस को 'क्लॉज' कहना शुरू कर दिया. चूंकि कैथोलिक चर्च ने उन्हें 'संत' का ओहदा दिया था, इसलिए उन्हें 'सेंट क्लॉज' कहा जाने लगा. यही नाम बाद में 'सेंटा क्लॉज' बन गया, जो वर्तमान में 'सांता क्लॉज' के नाम से प्रसिद्ध है.
समुद्र में खतरों से खेलने वाले नाविकों और बच्चों से तो निकोलस को विशेष लगाव था. यही वजह है कि संत निकोलस (सांता क्लॉज) को 'बच्चों और नाविकों का संत' भी कहा जाता है. निकोलस के देहांत के बाद उनकी याद में एशिया का सबसे प्राचीन चर्च बनवाया गया, जो आज भी 'सेंट निकोलस चर्च' के नाम से विख्यात है, जो ईसाई तथा मुसलमानों दोनों का सामूहिक धार्मिक स्थल है.