लोकसभा से पास हुआ 'सिटीजनशिप अमेंडमेंट बिल 2016', जानें क्या है बिल और क्यों हो रहा है विरोध?
भले ही ये बिल लोकसभा से पास हो गया है लेकिन बीजेपी को इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी है. असम में सीएम सर्बानंद सोनोवाल सरकार की सहयोगी पार्टी असम गण परिषद (एजीपी) ने एनडीए का साथ छोड़ दिया है.
नई दिल्ली: नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन्स (एनआरसी) के जरिए नरेंद्र मोदी सरकार ने असम में जितनी वाहवाही लूटी थी, अब वो 'नागरिकता अधिनियम 1955' की वजह से खत्म होती दिख रही है. सोमवार को पीएम मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में इस कानून में संशोधन कर 'नागरिकता संशोधन बिल 2016' (Citizenship Amendment Bill 2016) को मंजूरी दे दी गई और मंगलवार को इसे लोकसभा से भी पास कर दिया गया. मंत्रिमंडल से मंजूरी मिलने के बाद से ही असम और पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में इस बिल के खिलाफ लोगों का बड़ा तबका प्रदर्शन कर रहा था. दरअसल, कुछ दिनों पहले एक रैली में प्रधानमत्री नरेंद्र मोदी ने भी कहा था कि उनकी सरकार इस बिल में संशोधन कर 'नागरिकता संशोधन बिल 2016' लाने की तैयारी में है.
क्या है नागरिकता संशोधन बिल 2016? भारत देश का नागरिक कौन है, इसकी परिभाषा के लिए साल 1955 में एक कानून बनाया गया जिसे 'नागरिकता अधिनियम 1955' नाम दिया गया. मोदी सरकार ने इसी कानून में संशोधन किया है जिसे 'नागरिकता संशोधन बिल 2016' नाम दिया गया है. संशोधन के बाद ये बिल देश में छह साल गुजारने वाले अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के छह धर्मों (हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध, पारसी और इसाई) के लोगों को बिना उचित दस्तावेज के भारतीय नागरिकता देने का रास्ता तैयार करेगा. लेकिन 'नागरिकता अधिनियम 1955' के मुताबिक, वैध दस्तावेज होने पर ही ऐसे लोगों को 12 साल के बाद भारत की नागरिकता मिल सकती थी.
क्यों हो रहा है विरोध? असम गण परिषद (एजीपी) के अलावा कई पार्टियां भी इस बिल का विरोध कर रही हैं. इनमें कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी समेत दूसरी पार्टियां शामिल हैं. इनका दावा है कि धर्म के आधार पर नागरिकता नहीं दी जा सकती है क्योंकि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है. ये विधेयक 19 जुलाई 2016 को पहली बार लोकसभा में पेश किया गया. इसके बाद संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) ने लोकसभा में अपनी रिपोर्ट पेश की थी. जेपीसी रिपोर्ट में विपक्षी सदस्यों ने धार्मिक आधार पर नागरिकता देने का विरोध किया था और कहा था कि यह संविधान के खिलाफ है. इस बिल में संशोधन का विरोध करने वाले लोगों का कहना है कि अगर बिल लोकसभा से पास हो गया तो ये 1985 के 'असम समझौते' को अमान्य कर देगा.
क्या है 1985 का असम समझौता? आजादी के बाद से ही असम में बाहरी लोगों का आना एक गंभीर मुद्दा रहा है. देश के बंटवारे के वक्त पूर्वी पाकिस्तान से और फिर बांग्लादेश के गठन के बाद भी काफी संख्या में लोग यहां आकर बस गए थे. बाहरी लोगों की वजह से असम के मूल निवासियों में भाषाई, सांस्कृतिक और राजनीतिक असुरक्षा की भावना पनप गई. इस भावना ने असम में उग्र रूप ले लिया और वहां विरोध प्रदर्शन होने लगे. इसका नतीजा ये हुआ कि 1983 के विधान सभा चुनाव में राज्य की बड़ी आबादी ने वोटिंग का बहिष्कार कर दिया. विरोध प्रदर्शनों की वजह से 1984 के आम चुनावों में राज्य के 14 संसदीय क्षेत्रों में चुनाव ही नहीं हो पाए.
ऐसी ही स्थिति हमेशा के लिए न बनी रहे इसके लिए बातचीत की प्रक्रिया शुरू हुई. आखिरकार, अगस्त 1985 को केंद्र की तत्कालीन राजीव गांधी सरकार और आंदोलन के नेताओं के बीच समझौता हुआ, जिसे 'असम समझौते' (Assam Accord) के नाम से जाना जाता है. इस समझौते के तहत 1951 से 1961 के बीच असम आए सभी लोगों को पूर्ण नागरिकता और वोट देने का अधिकार देने का फैसला हुआ और 1971 के बाद राज्य में आए लोगों को वापस भेजने पर सहमति बनी, भले ही वो किसी भी धर्म के क्यों न हों.
असम में एनडीए में पड़ी टूट भले ही 'नागरिकता संशोधन बिल 2016' लोकसभा से पास हो गया है लेकिन बीजेपी को इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी है. असम में सीएम सर्बानंद सोनोवाल सरकार की सहयोगी पार्टी असम गण परिषद (एजीपी) ने एनडीए का साथ छोड़ दिया है. इसकी घोषणा पार्टी प्रमुख अतुल बोरा ने भी कर दी है. पीएम मोदी के 'नागरिकता संशोधन बिल 2016' पर दिए गए बयान के बाद से ही बीजेपी और एजीपी में दूरियां बननी शुरू हो गई थीं. अतुल बोरा ने गठबंधन तोड़ने से पहले गृहमंत्री राजनाथ सिंह से इस पर चर्चा करने के लिए मुलाकात की थी. मुलाकात में कोई बात नहीं बनी तो बोरा ने अपना समर्थन वापस ले लिया. बोरा ने राजनाथ सिंह को बताया कि अगर ये बिल पास होता है तो एनआरसी में दिक्कत आएगी.