पश्चिम बंगाल में भारतीय जनता पार्टी की सरकार न बन पाना, किसान आंदोलन और पेगासस मामलों का उछलना राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) से ज्यादा संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) के लिए महत्वपूर्ण होता नजर आ रहा है. बदली राजनीतिक परिस्थितियों में पूरे देश में राजनीतिक गठबंधनों की दशा-दिशा में बदलाव के साथ यूपीए का वजूद ही समाप्त होने के संकेत मिल रहे हैं.आप सोच रहे होंगे जब ये सब मुद्दे विपक्ष के पक्ष में जा रहा है तो यूपीए के वजूद को कैसा ख़तरा? तो राज की बात पूरी बताई जाए, लेकिन उससे पहले ये समझ लीजिये कि मैंने यूपीए ख़त्म होने की बात की है विपक्ष के नहीं.
राज की बात में आगे बढ़ने से पहले मौजूदा घटनाक्रम पर नज़र डालते हैं. पिछला एक महीना दिल्ली में खासा राजनीतिक मेलजोल व विमर्श वाला रहा है. बिहार के बाद हाल ही में पश्चिम बंगाल में अपने राजनीतिक व रणनीतिक कौशल को साबित कर चुके प्रशांत किशोर यानी पीके ने महाराष्ट्र से दिल्ली तक विपक्ष के नेताओं से न सिर्फ मुलाकात की है, बल्कि उन्हें वैचारिक रूप से अपने साथ जोड़ने की कोशिश भी की है. जिस तरह से कांग्रेस के भीतर पीके को पार्टी का हिस्सा बनाने की चर्चाएं तेज हो रही हैं, उससे राष्ट्रीय राजनीतिक गठजोड़ में भी उनकी भूमिका को लेकर चर्चाएं हो रही हैं.
वैसे भी पीके फ़िलहाल सफलता की गारंटी बन चुके हैं सियासी दलों के लिए. अभी पंजाब में लंबॆ समय से चल रहे कांग्रेस के आंतरिक गतिरोध को थामने में पीके फार्मूला का बड़ा योगदान रहा है. अब राजस्थान को लेकर भी पीके की तरफ़ से कांग्रेस को सकारात्मक समाधान के लिए सुझाव दिये जाने की बात सामने आ रही है. यह लगभग तय है कि पीके जल्द ही औपचारिक रूप से कांग्रेस का हिस्सा होंगे.
राज की बात है कि पीके की सक्रियता से कांग्रेस नेतृत्व वाले यूपीए के मौजूदा स्वरूप में आमूलचूल परिवर्तन होने की संभावना है. दरअसल इस समय सोनिया गांधी यूपीए का नेतृत्व कर रही हैं, किन्तु बदले परिवेश में कांग्रेस को देश के विपक्षी दलों के बीच स्वयं को बड़े दिल वाला दिखाना होगा. राज की बात ये है कि विपक्षी ताक़त के नए अवतार में न सिर्फ सोनिया गांधी यूपीए का नेतृत्व छोड़ेंगी, बल्कि एक तरह से यूपीए का वजूद ही समाप्त हो जाएगा. मगर नाम और रूप बदलकर विपक्ष नए और ताकतवर अवतार में सामने आएगा.
विपक्ष के इस नए रूप की संभावनाओं से पहले ज़रा सत्तारूढ़ गठबंधन पर नज़र फिराके हैं. पिछले कुछ वर्षों में भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाले एनडीए के कुछ महत्वपूर्ण साथियों ने उससे दूरी बनाई है. शिवसेना व अकाली दल जैसे एनडीए के सबसे पुराने व मजबूत सहयोगी भी उससे दूर हो गए हैं. किसान आंदोलन व पेगासस मसले पर तो आवाजें उठ ही रही थीं, हाल ही में मिजोरम व असम की सीमा पर जो हुआ, वह भी दुर्भाग्यपूर्ण माना जा रहा है. दोनों ही राज्यों में एनडीए की सरकारें हैं, किन्तु जिस तरह भाजपा के मुख्यमंत्री होते हुए असम ने अपने नागरिकों को मिजोरम न जाने के लिए एडवाइजरी जारी की है, उससे एनडीए का हिस्सा होकर भी मिजोरम के मुख्यमंत्री असहज हैं. कई अन्य राज्यों से भी एनडीए के घटक दलों की नाराजगी संबंधी आवाजें उठ रही हैं. ऐसे में भाजपा विरोधी पूरे विपक्ष को एकजुट कर यूपीए को नया स्वरूप देना अवश्यंभावी माना जा रहा है.
यूपीए के इस नए स्वरूप का शिल्पी प्रशांत किशोर को माना जा रहा है किन्तु इसमें मुख्य भूमिका ममता बनर्जी व शरद पवार की होगी. उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाइएस जगन मोहन रेड्डी जैसे नेता भी अपनी भूमिका स्पष्ट करेंगे. ममता बनर्जी जिस तरह दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से मिली हैं और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के ममता बनर्जी के साथ जिस तरह सकारात्मक रिश्ते हैं, उससे आम आदमी पार्टी व समाजवादी पार्टी की संभावित भूमिका से भी इनकार नहीं किया जा सकता.
राज की बात ये है कि यूपीए के नए स्वरूप में नेतृत्व की भूमिकाएं भी बदल जाएंगी. जिस तरह एनडीए के शुरुआती दौर में अटल बिहारी वाजपेयी एनडीए के अध्यक्ष और जार्ज फर्नांडीज संयोजक की भूमिका में थे, उसी तरह अब ममता बनर्जी यूपीए के नए स्वरूप की अगुवाई कर सकती हैं. कांग्रेस से राहुल गांधी भी उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने की भूमिका में होंगे. माना जा रहा है कि भाजपानीत एनडीए को हराने के लिए इस नए गठबंधन पर सभी दल थोड़ा पीछे हटने का भाव लेकर चलेंगे. लक्ष्य चुनाव में जीत का होगा. इसके लिए सबको थोड़ा-थोड़ा त्याग करना होगा, जिसमें सबसे बड़ी भूमिका कांग्रेस की होगी.
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