Congress President Election: लंबे अरसे बाद आखिरकार अब कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव होने जा रहा है. इस बार ये चुनाव खास इसलिए भी है क्योंकि पहली बार गांधी परिवार के बाहर से कोई अध्यक्ष चुना जा सकता है. तमाम नेताओं की दावेदारी के बावजूद इस रेस में सबसे आगे राजस्थान से मुख्यमंत्री अशोक गहलोत (Ashok Gehlot) हैं. कहा जा रहा है कि अगर राहुल गांधी अध्यक्ष बनने के लिए नहीं मानते हैं तो गहलोत कांग्रेस के अगले राष्ट्रीय अध्यक्ष हो सकते हैं. अब सवाल ये उठता है कि आखिर गहलोत का कद तमाम नेताओं से बड़ा क्यों है? हम आपको इस सवाल का जवाब देते हैं और बताते हैं कि कैसे अशोक गहलोत कांग्रेस परिवार के सबसे करीबी नेता हैं. 


कांग्रेस में मौजूदा दौर की बात करें तो सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है. पार्टी के तमाम बड़े नेता सोनिया गांधी और राहुल गांधी से दूरियां बना चुके हैं, यानी गांधी परिवार के खिलाफ हैं. ऐसे में गांधी परिवार के लिए अशोक गहलोत के अलावा पार्टी में कोई ऐसा दूसरा चेहरा नहीं है जो उनके फैसलों से सहमत हो. फिलहाल गहलोत का रेस में नंबर-1 होने का यही एक सबसे बड़ा कारण है. 


गहलोत का राजनीतिक करियर
गहलोत के राजनीतिक करियर की बात करेंतो वो 7वीं लोकसभा (1980-84) के लिए वर्ष 1980 में पहली बार जोधपुर संसदीय क्षेत्र से चुने गए थे. इसके बाद गहलोत का करिश्मा लगातार चलता रहा और उन्होंने जोधपुर संसदीय क्षेत्र का 8वीं लोकसभा (1984-1989), 10वीं लोकसभा (1991-96), 11वीं लोकसभा (1996-98) और 12वीं लोकसभा (1998-1999) में प्रतिनिधित्व किया. इसके बाद सरदारपुरा (जोधपुर) विधानसभा क्षेत्र से जीतने के बाद गहलोत फरवरी, 1999 में 11वीं राजस्थान विधानसभा के सदस्य बने. 


इसके बाद उनका ये सफर लगातार जारी रहा और उन्होंने 2003, 2008 और 2013 में विधानसभा चुनाव में जीत दर्ज की. इसके बाद गहलोत 15वीं राजस्थान विधानसभा के लिए 2018 में सरदारपुरा विधानसभा क्षेत्र से ही जीतकर आए. 


तीन प्रधानमंत्रियों के साथ किया काम
अशोक गहलोत ने केंद्र की राजनीति को भी काफी करीब से देखा. उन्होंने तीन प्रधानमंत्रियों के साथ काम किया. जिनमें इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और पीवी नरसिम्हा राव जैसे नाम शामिल हैं. तीनों के साथ गहलोत केंद्रीय मंत्री के तौर पर थे. गहलोत तीन बार केंद्रीय मंत्री बने. 


इसके अलावा गहलोत ने कांग्रेस में कई अहम जिम्मेदारियां निभाईं. पहली बार गहलोत 34 साल की उम्र में ही राजस्थान प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बन गए थे. उन्हें कई राज्यों के चुनाव की जिम्मेदारियां भी सौंपी गई. 2004 से 2009 तक गहलोत ने अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव के तौर पर काम किया. 2018 में उन्हें फिर से राहुल गांधी ने अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का महासचिव नियुक्त किया. 


बड़े चुनावी रणनीतिकार 
हालांकि राजनीतिक नजरिए से देखें तो अशोक गहलोत का कद छोटा नहीं है. गहलोत को राजनीति का एक मंझा हुआ खिलाड़ी माना जाता है. पार्टी के तमाम बड़े फैसले हों या फिर चुनावी रणनीति, गहलोत हमेशा से ही इसमें शामिल रहे हैं. राजनीतिक गलियारों में कहा जाता है कि अशोक गहलोत की रणनीति काफी सटीक होती है, जिससे पार्टी को कई मौकों पर फायदा मिला है. यही कारण है कि वो गांधी परिवार के इतने करीब हैं. गहलोत गांधी परिवार की तीसरी पीढ़ी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रहे हैं. 


कहलाते हैं राजनीति का जादूगर
अशोक गहलोत को राजनीति का जादूगर कहा जाता है. ऐसा उनकी सटीक रणनीति और चुनावी बिसात बिछाने को लेकर है. गहलोत खुद ही अपने आप को जादूगर बताते हैं. उन्होंने पीएम के काले जादू वाले बयान पर कहा था कि, मैं परमानेंट जादूगर हूं. मेरा जादू अपने आप चलता रहता है. इसके अलावा हाल ही में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के साथ एक इवेंट के दौरान गहलोत ने कहा था कि, जादूगर मैं हूं लेकिन आपने कैसे ममता बनर्जी पर जादू चला दिया. 


दरअसल गहलोत को 2008 के बाद से इस नाम से पुकारा जाता है. तब कांग्रेस को राजस्थान की 200 विधानसभा सीटों में से 96 सीटों पर जीत मिली थी, बहुमत के लिए पार्टी को विधायकों के समर्थन की जरूरत थी. ऐसे में गहलोत ने मास्टर स्ट्रोक खेलते हुए बसपा के 6 विधायकों को तोड़कर सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया और कांग्रेस की सरकार बना दी. इसे गहलोत की जादूगरी कहा गया. 


पायलट की बगावत और गहलोत की शातिर चाल
अशोक गहलोत की जादूगरी का एक नमूना 2020 में तब देखने को मिला, जब पार्टी के नेता और तत्कालीन डिप्टी सीएम सचिन पायलट ने बगावत कर दी. लंबे समय से दोनों के बीच चल रही तनातनी इतनी बढ़ गई कि सचिन पायलट अपने समर्थक विधायकों के साथ हरियाणा पहुंच गए. यहां बीजेपी शासित सरकार ने उन्हें सुरक्षा भी मुहैया कराई. इस सबके बावजूद अशोक गहलोत ने हार नहीं मानी और उन्होंने फिर साबित कर दिया कि वो राजनीति के शातिर खिलाड़ी हैं. 


सचिन पायलट के साथ 17 विधायक बागी हो गए थे, इसके बाद कांग्रेस को समर्थन देने वाले छोटे दलों और निर्दलीय विधायकों के टूटने का खतरा मंडराने लगा. अगर इनमें से 10 विधायक भी टूटते तो गहलोत सरकार गिर सकती थी. लेकिन गहलोत ने ऐसा नहीं होने दिया. फ्लोर टेस्ट तक कोई भी विधायक नहीं छिटका. उन्होंने आखिरी वक्त तक पायलट को चुनौती देते हुए बताया कि उनके हाथ में कुछ नहीं है. आखिर में पायलट को हार मानकर लौटना पड़ा. इसे गहलोत की बड़ी जीत के तौर पर देखा गया. 


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