यूपी निकाय चुनाव में ओबीसी आरक्षण को लेकर विवाद, क्यों बीजेपी नहीं लेना चाह रही है रिस्क
हाई कोर्ट के आदेश के अनुसार अगर उत्तर प्रदेश में बिना आरक्षण के चुनाव होता है तो बीजेपी को बड़ा झटका लग सकता है. राज्य में 52 प्रतिशत ओबीसी वोटर हैं.
उत्तर प्रदेश में 762 शहरी निकायों का कार्यकाल 12 दिसंबर से 19 जनवरी 2023 के बीच खत्म होने वाला है. इसके बाद यहां निकाय चुनाव होंगे. लेकिन इस चुनाव से पहले राज्य में ओबीसी आरक्षण को लेकर बहस छिड़ गई है.
दरअसल इन निकायों में चुनाव के लिए प्रदेश सरकार ने ओबीसी कोटे का ड्राफ्ट जारी किया था. जिसे इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने रद्द कर दिया. यूपी सरकार ने ओबीसी आरक्षण को लेकर जो फार्मूला लागू किया था, हाईकोर्ट ने उस पर सहमति नहीं जताई.
इलाहाबाद हाईकोर्ट का कहना है कि या तो यूपी सरकार सुप्रीमकोर्ट की ओर से तय 'ट्रिपल टेस्ट फार्मूला' अपनाकर ओबीसी को आरक्षण दे या फिर बिना आरक्षण के ही चुनाव करवाएं.
हालांकि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी हार मानने के मूड में नहीं है. वह भी यह साफ कर चुके हैं कि बिना ओबीसी आरक्षण के चुनाव नहीं होंगे. सीएम योगी ने कहा कि राज्य सरकार एक आयोग का गठन करेगी और ट्रिपल टेस्ट के आधार पर ओबीसी को आरक्षण देगी और उसके बाद ही चुनाव होंगे.
कोर्ट के इस फैसले के बाद ओबीसी आरक्षण का पेच फंस गया है और इस पर एक बार फिर से बहस शुरू हो गई है. इसी मुद्दे पर विपक्षी पार्टियों ने बीजेपी को घेरना शुरू कर दिया है.
क्या है मामला ?
हाई कोर्ट में निकाय चुनाव को लेकर उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से जारी अधिसूचना के खिलाफ जनहित याचिका दाखिल की गईं थीं. इस याचिका में कहा गया कि उत्तर प्रदेश सरकार ने रिजर्वेशन ड्राफ्ट में ट्रिपल टेस्ट फॉर्मूले का ध्यान नहीं रखा है जो की सुप्रीम कोर्ट की तरफ से तय किया जाता है. उन्होंने कहा कि ओबीसी आरक्षण से पहले इस वर्ग की स्थिति के अध्ययन के लिए एक आयोग बनाया जाना चाहिए साथ ही ट्रिपल लॉ के फॉर्मूले का पालन किया जाना चाहिए.
यूपी सरकार ने इस याचिका पर क्या कहा
प्रदेश सरकार का कहना है कि उन्होंने एक 'रैपिड सर्वे' कराया था जो कि ट्रिपल टेस्ट फॉर्मूले की तरह ही था.' 5 दिसंबर को यूपी सरकार की तरफ से राज्य के 200 नगर पालिका, 17 महापालिका के मेयर और 545 नगर पंचायत अध्यक्षों के आरक्षण की प्रोविजनल लिस्ट जारी की गई थी.
जिसके तहत चार मेयर सीट को ओबीसी उम्मीदवारों के लिए आरक्षित किया गया था. इन चार मेयर की सीटों में से दो सीट ओबीसी महिला के लिए आरक्षित किया गया था. ये चार सीट हैं अलीगढ़, मथुरा-वृंदावन, मेरठ और प्रयागराज. इसमें से अलीगढ़ और मथुरा-वृंदावन ओबीसी महिला के लिए था. इसके अलावा नगर पंचायत अध्यक्ष की 147 सीटें और नगरपालिका अध्यक्ष की 54 सीटे भी ओबीसी उम्मीदवार के लिए आरक्षित थी.
लेकिन हाई कोर्ट ने इस रजिस्ट्रेशन ड्राफ्ट को खारिज करते हुए कहा कि जब तक ट्रिपल टेस्ट न हो, तब तक आरक्षण नहीं माना जाएगा.
क्या है ट्रिपल टेस्ट
‘ट्रिपल टेस्ट फॉर्मूला’ लागू करने के लिए एक आयोग का गठन किया जाता है. नगर निकाय चुनावों में ओबीसी का आरक्षण तय करने के लिए इस आयोग का गठन किया जाता है. ये आयोग ही हर निकाय में पिछड़ेपन का आकलन करता है. जिसके बाद ही सीटों के लिए आरक्षण को प्रस्तावित किया जाता है. इसके बाद फॉर्मूले का दूसरा चरण लागू किया जाता है. दूसरे चरण में ओबीसी की संख्या पता की जाती है. तीसरे चरण में सरकार के स्तर पर इसे सत्यापित किया जाता है.
विपक्ष का क्या कहना है?
रजिस्ट्रेशन ड्राफ्ट को रद्द करने के फैसले ने जहां एक तरफ बीजेपी की मुश्किलें बढ़ा दी हैं वहीं दूसरी तरफ विपक्ष इस मुद्दे को लेकर लगातार पार्टी पर वार कर रही है.
उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने राज्य सरकार पर आरोप लगाते हुए ट्विटर पर लिखा, "आज आरक्षण विरोधी भाजपा निकाय चुनाव में ओबीसी आरक्षण के विषय पर घड़ियाली सहानुभूति दिखा रही है. आज भाजपा ने पिछड़ों के आरक्षण का हक़ छीना है,कल भाजपा बाबा साहब द्वारा दिए गए दलितों का आरक्षण भी छीन लेगी"
अखिलेश यादव के अलावा बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती ने भी बीजेपी की मंशा पर सवाल खड़े करते हुए ट्वीट किया, "यूपी में बहुप्रतीक्षित निकाय चुनाव में अन्य पिछड़ा वर्ग को संवैधानिक अधिकार के तहत मिलने वाले आरक्षण को लेकर सरकार की कारगुजारी का संज्ञान लेने सम्बंधी माननीय हाईकोर्ट का फैसला सही मायने में भाजपा व उनकी सरकार की ओबीसी एवं आरक्षण-विरोधी सोच व मानसिकता को प्रकट करता है."
हालांकि अपना दल के कार्यकारी अध्यक्ष और कैबिनेट मंत्री आशीष पटेल निकाय चुनाव में ओबीसी आरक्षण को जरूरी बताते हुए ट्वीट किया. उन्होंने कहा, "ओबीसी आरक्षण के बिना निकाय चुनाव किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है. हम इस संदर्भ में माननीय लखनऊ उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए फैसले का अध्ययन कर रहे हैं. जरूरत पड़ी तो अपना दल ओबीसी के हक के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाएगा."
विपक्ष को जवाब देते हुए क्या बोले योगी आदित्यनाथ
सीएम योगी आदित्यनाथ ने इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के फैसले के बाद बयान देते हुए कहा कि यूपी सरकार नगर निकाय सामान्य निर्वाचन के लिए एक आयोग गठित करेगी. उन्होंने कहा, 'ओबीसी आरक्षण दिया जाएगा ट्रिपल टेस्ट के आधार पर ही दिया जाएगा. जरूरत पड़ने पर हम सुप्रीम कोर्ट में भी अपील कर सकते हैं.'
बिना आरक्षण चुनाव कराया तो क्या होगा नुकसान
हाईकोर्ट के आदेश के अनुसार अगर यूपी में बिना आरक्षण के चुनाव होता है तो बीजेपी को बड़ा झटका लग सकता है. राज्या में 52 प्रतिशत ओबीसी वोटर हैं. ऐसे में बिना आरक्षित सीट के निकाय चुनाव करवाने पर ओबीसी वर्ग की नाराजगी निकाय चुनाव के साथ-साथ 2024 में होने से वाले लोकसभा चुनाव पर असर डाल सकती है.
वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी का सबसे बड़ा वोट बैंक गैर यादव ओबीसी ही है. साल 2014 के बाद यह बीजेपी का सबसे बड़ा वोट बैंक है. अगर इस कदम से वह नाराज होते हैं तो चुनाव का परिणाम भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ जा सकता है.
अब समझिए क्या है यूपी में ओबीसी का गणित
साल 2011-12 में सामाजिक न्याय विभाग ने किस राज्य में ओबीसी आबादी कितना है इसका आंकड़ा जारी किया था. जिसके अनुसार साल 2011-12 में भारत की 44 फीसदी आबादी ओबीसी की थी. जबकि केवल यूपी राज्य की बात करें तो यहां लगभग 55 प्रतिशत आबादी ओबीसी है.
और यह 55 प्रतिशत आबादी बीजेपी का बड़ा बोट बैंक रहा है. चुनावों में हुए सर्वे बताते हैं कि पिछले 10 साल में बीजेपी को दोगुना ओबीसी वोटों का समर्थन मिला है. सर्वे के अनुसार साल 2009 के लोकसभा चुनाव में 22 प्रतिशत ओबीसी आबादी ने बीजेपी को चुना था. वहीं 10 साल बाद यानी 1019 में 22 फीसदी ओबीसी लोगों ने बीजेपी को वोट दिया.
साल 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव को देखें तो भारतीय जनता पार्टी को 46 फीसदी ओबीसी वोट मिले थे. जबकि साल 2022 में हुए विधानसभा चुनाव के दौरान इसी पार्टी को लगभग 65 प्रतिशत वोट ओबीसी के मिले. चुनाव के बाद योगी सरकार की कैबिनेट में भी 20 ओबीसी विधायकों को शामिल किया गया था.