नई दिल्ली: कोरोना से चल रही जंग को लेकर अब लॉकडाउन-2 की शुरुआत भी हो चुकी है. ऐसे में जो दिहाड़ी मजदूर दिल्ली में ठहरे हुए थे, अब उनके मन में गांव जाने के लिए छटपटाहट तेज हो गई है. हमने जब जमीनी स्तर पर इस हकीकत को जानना चाहा और कुछ अलग अलग इलाकों में जाकर इन लोगों से बात की तो, एक स्वर में सभी का यही कहना था कि अब दिल्ली में रुकना नहीं चाहते और जल्द से जल्द अपने गांव लौटना चाहते हैं. उनका कहना है कि वे दिल्ली में काम करने के लिए आए थे. अब यहां पर काम नहीं रहा. इसकी वजह से अब उनके पास खाने की समस्या भी खड़ी हो चुकी है.


आलम यह है कि कहीं तो एनजीओ और दिल्ली पुलिस की तरफ से खाने की व्यवस्था हो जा रही है और जहां पर सरकारी व्यवस्था के भरोसे लोग बैठे हैं, तो उनमें से अधिकतर लोगों की शिकायत है कि उन्हें खाना नहीं मिल पा रहा है. ऐसे में जो लोग झुग्गी या फिर किराए के कमरों में रह रहे हैं, उन्हें अब दिल्ली रास नहीं आ रही. लोगों का यही कहना है कि 14 अप्रैल को उन्हें उम्मीद थी शायद लॉकडाउन से राहत मिलेगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. उनका कहना था कि उनकी पूरी तैयारी थी अगर लॉकडाउन हट जाता तो हम जल्द से जल्द अपने गांव के लिए रवाना हो जाते. हम आपके सामने इन्हीं लोगों से हुई बातचीत रख रहे हैं, ताकि आप खुद ही यह जान सकें कि जो लोग दिल्ली को आगे बढ़ाने के लिए मेहनत मशक्कत करने के लिए अपने गांव से आते हैं, अब उनके क्या हालात हैं और उनके मन में क्या दर्द है?


इलाका- गांधी नगर विधानसभा क्षेत्र का पुराना सीलमपुर इलाके में बड़े पैमाने पर सिलाई फैक्ट्री चलती है. यहां बड़ी संख्या में प्रवासी दिहाड़ी मजदूर छोटे छोटे कमरों में किराए पर रहते हैं.


मोहम्मद मुस्तकीम


जब हमने मोहम्मद मुस्तकीम से बात की और उनसे पूछा कि यहां कब से रह रहे हैं और क्या सोचकर यहां दिल्ली आए थे? तो उन्होंने कहा, "मैं वैसे तो काफी पहले से दिल्ली में रह रहा हूं, लेकिन अभी जब 1 दिन का जनता कर्फ्यू जारी हुआ था. उसके 3 दिन पहले मैं दिल्ली आया था. मेरे परिवार में यहां पर मेरी पत्नी और दो बच्चे हैं. एक बेटा मेरा गांव में भी रहता है. मां-बाप हैं और भाइ सब गांव में रहते हैं. मैं यहां पर काम करता हूं. रोजगार के ही सिलसिले में आए थे. जब पहली बार लॉकडाउन घोषित किया गया तो हमने भी गांव जाने की सोची थी, लेकिन कोई साधन नहीं था. हमारे साथ में पत्नी और दो बच्चे भी हैं. इस वजह से हम नहीं जा पाए. अभी कल हमें उम्मीद थी कि शायद लॉकडाउन हट जाएगा. तो हमने यही सोचा था कि हम गांव निकल जाएंगे, लेकिन अब लॉकडाउन बढ़ा दिया गया है


मोहम्मद मुस्तकीम ने आगे कहा, "यहां रहने में हमें जो सबसे ज्यादा समस्या है, वह खाने की आ रही है, क्योंकि दिल्ली सरकार की तरफ से जो भी सुविधा दिए जाने की बात की जा रही है, वह सुविधा नहीं मिल पा रही है. जो राशन कार्ड की बात है तो उन्होंने कहा था कि इंटरनेट के द्वारा आवेदन किया जा सकता है. हम आवेदन करते हैं तो आधार कार्ड मांगते हैं. हमारे पास बिहार का आधार कार्ड है, जिसे मानते नहीं है. और न खाना मिलता है. कभी खाने की लाइन में लग जाते हैं, तो घंटों में नंबर आता है. उसके बाद बहुत थोड़ा सा खाना मिलता है और परिवार के सदस्य हैं, जिनके लिए खाना नहीं मिल पाता. उनका कहना है कि सभी को लाइन में लगना होगा और खाने को बहुत थोड़ा सा मिलता है. तो ऐसे में हम कभी किसी से उधार मांग लेते हैं, तो हमारा गुजारा चल जाता है."


अफसर अली


"जी मेरा नाम अफसर है. मैं यहां पर अपनी पत्नी के साथ रहता हूं और मूल रूप से सुल्तानपुर उत्तर प्रदेश का रहने वाला हूं. मैं यहां पर संदूक पेटी बनाने की फैक्ट्री में काम करता था, लेकिन लॉकडाउन के बाद से काम धंधा बंद है. मैंने भी गांव वापस लौटने के लिए प्रयास किया था, लेकिन कोई बस या कोई साधन नहीं होने की वजह से मैं और मेरी पत्नी गांव नहीं जा पाए थे. यहां पर खाने पीने की बहुत समस्या हो रही है. दिल्ली सरकार की तरफ से जो भी राशन या खाने की बात कही गई है, वह हम तक तो नहीं पहुंची है. और अगर हम कभी लाइन में लगते हैं, तो लाइन बहुत लंबी होती है. जरूरत से ज्यादा भीड़ हो जाने पर पुलिस लाठी मार कर सब को भाग देती है. बड़ी मुश्किल से हमार गुजारा चल रहा है. अगर लॉकडाउन खुलता है तो सबसे पहला काम हम अपने गांव लौटने का ही करेंगे. गांव में हमारे माता पिता और भाई हैं. छोटा-मोटा काम है खेती का. अभी लॉकडाउन हटेगा तो वहीं वापस लौटेंगे कम से कम अपने परिवार के साथ रहेंगे."


मोहम्मद शमीम


मोहम्मद शमीम मूल रूप से सुपौल बिहार के रहने वाले हैं. जो यहां पर अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ रह रहे हैं. शमीम का कहना है कि वह एक ठेकेदार के लिए सिलाई यूनिट चलाते हैं. जब से लॉकडालना शुरू हुआ है तब से बहुत समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है. उन्होंने हमे बताया, "न तो पैसा बचा है न खाने पीने का ही कोई जुगाड़ है. सरकार की तरफ से कोई मदद नहीं मिल पा रही है. सरकार एक तरफ कह रही है कि गरीबों के लिए या जरूरतमंदों के लिए खाने पीने की व्यवस्था की गई है, लेकिन यहां पर हमें आज तक एक रुपए की कोई मदद नहीं मिली है. हम कभी खाने के लिए अगर लाइन में लगते हैं तो वह लाइन जरूरत से ज्यादा लंबी होती है. इस बीच अगर ज्यादा भीड़ हो जाती है तो पुलिस आती है और सबको हटा देती है. इसके अलावा राशन की बात करें तो हमसे आधार कार्ड मांगा जाता है आधार कार्ड हमारा है दिल्ली का नहीं है. उसे मानते नहीं हैं. कभी कोई कहता है कि महिलाओं को भेजो. वह घर परिवार को छोड़कर कहां जाएं. हमने सोचा था कि 14 अप्रैल को लॉकडाउन खत्म हो जाएगा तो हम अपने गांव निकल जाएंगे, लेकिन अब बढ़ा दिया गया है. अब यही सोचने का विषय है कि हम इतने दिन कैसे काटेंगे. हम चाहते हैं कि बस किसी तरह अपने गांव पहुंच जाएं क्योंकि यहां पर रहना बड़ा मुश्किल हो गया है. हम किराए के कमरों में रह रहे हैं और हमारे पास कोई पैसा नहीं है. कभी उधार मांग लेते हैं कभी कोई दे जाता है खाने को तो हम खा-पी लेते हैं."


इलाका- मधु विहार डिस्ट्रिक्ट पार्क झुग्गी बस्ती. यहां बुंदेलखंड के झांसी और टीकमगढ़ जिले के लोग रह रहे हैं. ये सभी पेड़ पौधों से जुड़ा काम करते हैं. अधिकतर एक दूसरे से परिचित हैं. इनकी कहानी में भूख की पीड़ा कम है, लेकिन पैसे की तंगी और काम धंधा बन्द होने से ये बेहद परेशान हैं.


हमने जब मधु विहार इलाके में डिस्ट्रिक्ट पार्क की बस्ती में रहने वाले लोगों से बात की तो यहां के लोगों ने एक स्वर में कहा कि हमें स्थानीय पुलिस की तरफ से तीनों समय का खाना मिल रहा है, जिसकी वजह से हमें अब खाने की चिंता नहीं है. लॉकडाउन के शुरू होने के एक-दो दिन तक खाने की समस्या रही थी. लेकिन अब हम चाहते हैं कि जब भी लॉकडाउन खत्म हो तो हम अपने गांव वापस लौट जाए.


माया - हम मूल रूप से झांसी की रहने वाले हैं. हम 4 महीने से रह रहे हैं. यहां रोजगार के लिये आये थे. पार्क में पेड़ पौधों में पानी देने का काम मिला था, लेकिन अब कोई काम नहीं है. परिवार में पति, बच्चे हैं. गांव में बड़ा परिवार है. लॉकडाउन के शुरुआती 1-2 दिनों तक खाने पीने की समस्या थी. लेकिन अब खाने से जुड़ी कोई समस्या नहीं है. हमें पुलिस की तरफ से तीनों टाइम का खाना मिल रहा है. अब हम बस घर वापस जाना चाहते हैं. जब भी लॉकडाउन हटेगा तो हम घर लौट जाएंगे. हमने घर जाने के लिए सोचा था, लेकिन कोई साधन नहीं होने की वजह से हम घर नहीं लौट पाए. अब यहां रहने का कोई मतलब नहीं लगता है, क्योंकि यहां पर कोई काम धंधा नहीं बचा है.


रेखा - हम मूल रूप से टीकमगढ़ जिले के रहने वाले हैं. यहां पर 4 महीने से रह रहे हैं. हम भी यहां पर पार्क में पेड़ पौधे लगाने आदि का काम करते हैं. अब काम धंधा नहीं है. खाने से जुड़ी कोई समस्या नहीं है क्योंकि अब हमें पुलिस की तरफ से खाना मिल जाता है, लेकिन हम अब गांव लौटना चाहते हैं. जब लॉकडाउन हटेगा तो हम गांव चले जाएंगे क्योंकि यहां पर कोई काम नहीं मिल रहा है. हम तो यहां पर काम करने के लिए ही आए थे.


लखन - मैं मूल रूप से टीकमगढ़ जिला का रहने वाला हूं. यहां पर पत्नी और बच्चों के साथ रहता हूं. शुरू में काम बंद हुआ था, लेकिन अब पौधों को पानी लगा रहे हैं. खाने में समस्या हुई थी, लेकिन अब नहीं हो रही. हमने भी गांव लौटने के लिए कोशिश की थी, लेकिन कोई साधन नहीं मिला था. अब लॉकडाउन की वजह से फंसे हैं, जब यह हटेगा तो हम अपने गांव लौटना चाहेंगे.


किरण - हम मूल रूप से झांसी के रहने वाले हैं. यहां पर पति और बच्चों के साथ रहती हूं. पार्क में ही काम करती थी. जब से लॉकडाउन हुआ है तब से काम बंद हो गया था. अभी कुछ दिन पहले ठेकेदार ने काम करने को बोला है. अभी हमें खाने की कोई समस्या नहीं हो रही है, लेकिन अब रोजगार नहीं बचा है. हमने भी गांव जाने के लिए कोशिश की थी, लेकिन हमें जाने नहीं दिया गया था. न तो कोई साधन था और पुलिस ने हमें रोक दिया था. गांव में हमारे और परिवार वाले भी हैं. जब भी लॉकडाउन हटेगा तो हम अपने गांव लौट जाएंगे.


देशराज - मैं टीकमगढ़ जिले का रहने वाला हूं. जहां परिवार के साथ रहता हूं. अभी तो सबकी एक जैसे ही परेशानी है. यहां हमारे पास तो खाना पहुंच जाता है. काम अभी नहीं मिल पा रहा है. थोड़ा बहुत काम कर लेते हैं पार्क में. हमने भी गांव जाने के लिए मन बनाया था, लेकिन बस या ट्रेन आदि की सुविधा नहीं मिल पाई थी. इसलिए हम नहीं जा पाए. अब जब कभी मौका मिलेगा तो गांव वापस लौट जाएंगे.


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