Danish Ali Political Scenario: अगले कुछ महीनों में देश में लोकसभा चुनाव का बिगुल बजने वाला है. इससे पहले बीजेपी सांसद रमेश बिधूड़ी की बहुजन समाज पार्टी (बसपा) सांसद दानिश अली के खिलाफ अपशब्दों का इस्तेमाल बैठे-बिठाए विपक्ष के हाथ बड़ा मौका दे गया है. खासकर कांग्रेस को जो हाल के चुनावों में राज्यों में अपना परंपरागत मुस्लिम वोट बैंक का बड़ा हिस्सा खो चुकी है. इसलिए पिछले 23 सितंबर (शनिवार) को जब राहुल गांधी दानिश अली से मिलने पहुंचे और गले मिलकर मोहब्बत और नफरत की दुकान का जिक्र किया तो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के सहयोगी समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव की भी टेंशन बढ़ गई और बसपा प्रमुख मायावती की भी.


बीजेपी को भी यह बात समझ में आ गई है कि रमेश बिधूड़ी की इस बयानबाजी ने उसे दो मोर्चे पर बड़ा नुकसान किया है. पहली महिला आरक्षण बिल के पास होने के जश्न के बजाय बड़े नेताओं को इस मामले में सफाई देने में ही समय गुजारना पड़ रहा है. दूसरा इस विवाद की वजह से इंडिया गठबंधन का कुनबा और मजबूत हो सकता है. सवाल है कि अपने ही सांसद दानिश अली से राहुल की मुलाकात पर मायावती की टेंशन क्यों बढ़ गई है और अखिलेश को भी इस मुलाक़ात ने क्यों बेचैन कर दिया है? हम आपको इसके संकेत के बारे में विस्तार से बताते हैं.


राज्यों में परंपरागत अल्पसंख्यक वोट बैंक मजबूत करना चाहती है कांग्रेस


दानिश अली की इस मुलाकात पर अखिलेश यादव ने कहा कि 2019 में सपा-बसपा गठबंधन में दानिश अली ने चुनाव जीता था. वह समाजवादी पार्टी के भी हैं. उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा राज्य है और यहां लोकसभा सीटों की संख्या सबसे अधिक 80 है. इसलिए 2024 लोकसभा चुनाव के लिए विपक्षी इंडिया गठबंधन के लिहाज से भी बेहद अहम है.


खास बात यह है कि मायावती ने इस बार BJP के नेतृत्व वाले एनडीए और इंडिया गठबंधन दोनों से दूरी बनाकर रखी है. इसलिए दानिश अली से राहुल गांधी की मुलाकात के बाद इस बात के कयास लगाए जा रहे हैं कि दानिश पार्टी बदलकर कांग्रेस का दामन थाम सकते हैं.


दानिश के खिलाफ अपशब्दों के इस्तेमाल से अल्पसंख्यक भावनाओं को जोड़कर देखा जा रहा है. आम चुनाव में भाजपा के उग्र हिंदुत्व की वजह से मुसलमान वोट बैंक लामबंद हुआ है और कांग्रेस को छोड़ राज्यों में मजबूत क्षेत्रीय दलों के साथ खिसकता गया है. उत्तर प्रदेश में 2019 लोकसभा चुनाव और उसके बाद 2022 विधानसभा चुनाव में इसके समाजवादी पार्टी के साथ होने के संकेत मिले थे. अब कांग्रेस चाहती है कि राज्यों में अल्पसंख्यकों का वोट दोबारा उसके पाले में आ जाए. इसके लिए अगर दानिश अली कांग्रेस का दामन थामते हैं तो निश्चित तौर पर पार्टी को बड़ा लाभ होगा.


मायावती अखिलेश को अल्पसंख्यक वोट बैंक खोने का डर


यह बात अखिलेश यादव भी समझते हैं, इसलिए उन्हें अपना भी अब बड़ा अल्पसंख्यक जनाधार खोने का डर सता रहा है. दूसरी ओर मायावती की पार्टी 2014 में नरेंद्र मोदी लहर से ही राजनीतिक जनाधार खोती रही है. 2014 में बसपा को एक भी सीट पर जीत नहीं मिली थी जबकि 2019 में समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर 10 सीटें जीतने में सफल रही थी. हालांकि बाद में मायावती ने सपा पर वोट ट्रांसफर में विफलता का आरोप लगाया और गठबंधन तोड़ लिया था. इसलिए 2024 चुनाव में अगर रहा सहा मुस्लिम वोट बैंक भी दानिश अली के साथ खिसककर किसी दूसरी पार्टी में चला जाता है तो इससे पार्टी को लगातार एक दशक तक आम चुनाव में गिरते जनाधार का सामना करना पड़ सकता है.


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