Independence Day:  भारत की आजादी की दास्तां जिन दर्दनाक किस्सों के साथ शुरू हुई थी, उसका अंत भी कम पीड़ादायक नहीं रहा. आजादी की दास्तां बंटवारे की कहानी पर आकर समाप्त होती है. भारत-पाकिस्तान के बीच खौफनाक बंटवारे के किस्से डोमिनिक लेपियर और लैरी कॉलिंस की किताब ‘’ फ्रीडम ऐट मिडनाइट के पन्नों में दर्ज है. उन्होंने लिखा है कि भारत की आजादी की घोषणा के साथ 4 जून 1947 से दोनों देशों भारत-पाकिस्तान में बंटवारे की रूपरेखा बनने लग गई थी. भारत और पाकिस्तान को बंटवारे के लिए 73 दिनों का समय दिया गया था. इस बंटवारे में कैश, चल संपत्ति, रेल, सड़क, नदी, सेना तक बंटवारा हुआ था. बंटवारे की कहानी इतनी दर्दनाक है, जिसने बंटवारे के बाद कश्मीर में युद्ध के समय दो सगे भाइयों को एक-दूसरे के सामने खड़ा कर दिया था.     


एचएम पटेल और चौधरी मोहम्मद अली: भारत की ओर से एचएम पटेल को और पाकिस्तान की ओर से चौधरी मोहम्मद अली को बंटवारे की जिम्मेदारी सौंपी गई. इनके नीचे तमाम अधिकारी और कर्मचारी नियुक्त किए गए. ये अधिकारी विभन्न जगहों से संपत्ति की जानकारी इन दोनों अधिकारियों को मुहैया कराते थे. फिर ये अधिकारी उसके बंटवारे की रूपरेखा तैयार कर विभाजन परिषद के पास भेज देते थे.


विभाजन परिषद के अध्यक्ष लार्ड माउंट बेटन थे. इतिहास में दर्ज कहानी के अनुसार एचएम पटेल और चौधरी मोहम्मद अली के बीच भारत में जमा कैश को लेकर इतना झगड़ा बढ़ गया था कि अंत में दोनों को सरदार पटेल के घर में एक कमरे में तब तक बंद रखा गया, जब यह लोग एक निष्कर्ष पर नहीं आए.


इस पर बनीं सहमति: अंत में दोनों अधिकारियों के बीच इस बात पर सहमति बनीं कि भारतीय बैंकों में जमा कैश और अंग्रेजों से मिलने वाली राशि में से भारत 17.5 परसेंट पाकिस्तान को दिया जाएगा. इसके बदले में पाकिस्तान को भारत का 17.5 प्रतिशत कर्ज चुकाना होगा. इसके पहले देश के नाम को लेकर भी विवाद की स्थिति उत्पन्न हुई थी. कांग्रेस ने देश का नाम हिंदुस्तान रखने से मना कर दिया था. उसने तर्क दिया था कि चूंकि भारत को छोड़कर पाकिस्तान जा रहा है. इसलिए संयुक्त राष्ट्र में भारत का ही प्रतिनिधित्व रहेगा.


इस तरह बंटी चल संपत्तिः इसके अलावा चल संपत्ति के लिए तय हुआ की 20 परसेंट संपत्ति पाकिस्तान के पास जबकि 80 परसेंट भारत के पास रहेगी. फिर सभी दफ्तरों में मेज, कुर्सी, पंखे आदि का बंटवारा शुरू हुआ. इस बंटवारे के दौरान कई बार मार-पीट की नौबत भी आई. कुछ पाकिस्तानी चाहते थे कि ताजमहल के भी कुछ हिस्से को बंटवारे में दिया जाए. वहीं भारत की ओर से यह मांग उठी थी कि सिंधु नदी जिसके किनारे बैठकर वेद आदि लिखे गए उसे पाकिस्तान में न जाने दिया जाए.  


सड़क और रेल का बंटवाराः इस अकल्पनीय बंटवारे के दौरान 18,077 मील सड़क में से 4,913 मील सड़क पाकिस्तान के हिस्से में गईं, जबकि 26, 421 किलोमीटर रेल ट्रैक में से 7, 112 किमी. रेल मार्ग पाकिस्तान के साथ चला गया. इतना ही नहीं लाइब्रेरी में रखीं किताबों का भी बंटवारा किया गया, जिसमें से इनसाइक्लोपीडिया का पहला भाग भारत, दूसरा भाग पाकिस्तान और फिर तीसरा भाग भारत के हिस्से में आया. शब्दकोष के पन्ने फाड़कर आधे-आधे दोनों देशों के हिस्से में बांट दिए गए.


खुफिया एजेंसी ने कर दिया इंकारः भारत की गुप्तचर एजेंसी ने इस बंटवारे से साफ इंकार दिया था. उनके अधिकारियों का साफतौर पर कहना था कि न हम में से कोई पाकिस्तान जाएगा और न ही यहां से कोई चीज ले जाने देंगे. उन्होंने ऑफिस की श्याही तक देने से इंकार दिया था. इसी तरह भारत ने नोट छापने वाली मशीन (प्रेस) का भी बंटवारा करने से इंकार कर दिया था. उस समय देश में सिर्फ एक जगह ही नोट छपते थे. इसलिए पाकिस्तान को मजबूरीवश काफी समय तक भारतीय नोट पर पाकिस्तान की मुहर लगाकर काम चलाना पड़ा था.


घोड़ागाड़ी के बंटवारे में फंसा पेचः सबसे बड़ा पेच घोड़ा-गाड़ियों के बंटवारे में फंसा था. अंग्रेज शासन काल में कुल 12 घोड़ा-गाड़ियां (बघ्घियां) थीं. इनमें से आधी यानी 6 पर सोने (सुनहरी) की नक्काशी थी. वहीं बाकी 6 पर चांदी (रूपहली) नक्काशी थी. मामला फंसता देख लार्ड माउंट बेटन के सहायक पीटर हॉज ने सिक्का उछालकर फैसला करने का निर्णय लिया. इसके बाद सिक्का उछाला गया तो भारत के पक्ष में सुनहरी घोड़ा-गाड़ियां आईं और पाकिस्तान के हिस्से में रुपहली. ब्रिटिश हूकूमत के समय इन गाड़ियों में वायसराय के मेहमानों को घुमाया जाता था.


फौज के बंटवारे का दर्दः करीब 25 लाख सैनिकों में से दो तिहायी भारत के पास और एक तिहायी पाकिस्तान के पास जाने थे. इसके लिए जुलाई के अंत में एक फॉर्म सैनिकों को दिए गए. उसमें यह भरना था कि कौन भारत में रहना चाहता है और कौन पाकिस्तान जाना चाहता है. सबकुछ सैनिकों की इच्छा पर निर्भर था. मेजर याकूब खान के लिए बहुत ही असमंजस की स्थिति थी. वह रहने वाले रामपुर (यूपी) रियासत के थे, लेकिन उन्होंने अपना मुल्क पाकिस्तान चुना.


जब याकूब खान घर छोड़कर जा रहे थे तो उनकी मां ने उन्हें धार्मिक पुस्तक कुरान के नीचे से गुजारा ताकि उनपर किसी तरह की मुसीबत न आए. याकूब खान को लगता था कि वह यहां भारत आते-जाते रहेंगे और अपनी मां से भी मिलते रहेंगे. मगर ऐसा नहीं हुआ. वह दोबारा फिर कभी न तो अपने घर रामपुर आ सके और न ही अपनी मां से मिल पाए.    


जब जंग में यूनुस खान से हुआ सामनाः दिन, महीने, साल गुजर गए. फिर एक ऐसा वक्त भी आया जब याकूब खान की तैनाती कश्मीर में युद्ध के हालात में हुई. वहां बॉर्डर पर भारतीय सेना की गढ़वाल रेजीमेंट तैनात थी. सबसे बड़े आश्चर्य की बात यह रही कि जब दोनों ओर से फौजी आमने-सामने आए तो भारत की ओर से लीडर के रूप में याकूब के सामने उनका सगा भाई यूनुस खान खड़ा था. यूनुस खान भी रामपुर रियासत से ताल्लुक रखते थे. सरहदों के इस बंटवारे ने दो सगे भाइयों को एक-दूसरे का दुश्मन बना दिया था.  


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