Maharshi Dayanand Saraswati 200th Birth Anniversary: महाशिवरात्रि पर शंकर जी के मंदिर में एक बच्चा इस आस में बैठा था कि अभी भगवान आएंगे और उसका चढ़ाया प्रसाद खाएंगे, लेकिन उससे पहले चूहा वो खा गया. दरअसल मूलशंकर नाम के इस बच्चे को उनके पिता करशनजी लालजी तिवारी ने व्रत रखने के कहा था. बालक शंकर जी का अनन्य भक्त था.
मूलशंकर ने पूरे मन से व्रत रखा और रात में भगवान के इंतजार में बैठा रहा, लेकिन रात में भगवान की जगह शिवलिंग पर चूहों को उत्पात मचाते देख मूलशंकर ने सोचा कि जो भगवान खुद की रक्षा नहीं कर सकते हैं वो उसकी क्या रक्षा करेंगे. यही सोच कर मूलशंकर मंदिर से उसी वक्त बाहर निकल आए.
उन्होंने सोचा कि ये वो शंकर तो नहीं है जिसके बारे में उन्होंने बताया गया. अपनी इसी जिज्ञासा को शांत करने के लिए वो 16 साल की उम्र में घर से निकल पड़े. आगे चलकर यही बालक महर्षि दयानंद सरस्वती के नाम से मशहूर हुआ और सत्य के अर्थ का प्रकाश फैलाने वाले महान ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश की रचना की. इसी महान विभूति की 200 वीं जयंती के उपलक्ष्य में 12 फरवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी साल भर चलने वाले समारोह का उद्घाटन करेंगे.
मूलशंकर से 'संन्यासी योद्धा' की यात्रा
स्वामी दयानन्द सरस्वती 12 फरवरी 1824 टंकारा में मोरबी में जन्मे थे. तब ये इलाका मुंबई की मोरवी रियासत का था. ये क्षेत्र काठियावाड़ (जिला राजकोट) गुजरात में पड़ता था. पिता करशनजी लालजी तिवारी कर कलेक्टर के साथ ही ब्राह्मण कुल के समृद्ध और प्रभावशाली शख्स थे तो माता यशोदाबाई वैष्णव मत को मानने वाली थी. पिता शैव मत के अनुयायी थे.
ऐसे में उनके घर धनु राशि और मूल नक्षत्र में पैदा होने वाले बच्चे का नाम मूलशंकर रखा गया. यहीं बालक आगे चलकर संस्कृत, वेद, शास्त्रों और अन्य धार्मिक पुस्तकों के अध्ययन में ऐसा रमा कि उन्होंने आर्य समाज की स्थापना की. वेदों के प्रचार के लिए बने आर्य समाज ने कर्म सिद्धान्त, पुनर्जन्म तथा संन्यास को अपने दर्शन का आधार बनाया.
मथुरा में गुरु विरजानन्द का सानिध्य
महाशिवरात्रि पर मूर्ति पूजा से मोह भंग होने के साथ ही मूलशंकर अपनी छोटी बहन और चाचा की हैजे से हुई मौत जीवन और मौत पर गहराई से सोचने लगे थे. इससे उनके माता-पिता को उनकी चिंता हुई और किशोरावस्था में उनके विवाह की सोचने लगे, लेकिन बालक मूलशंकर ने तय किया कि वो विवाह के लिए नहीं बने और वो सत्य की में निकल पड़े.
बाद 16 साल की उम्र में जब दयानंद सरस्वती ने घर छोड़ा तो वो मथुरा में गुरु विरजानन्द के सानिध्य में पहुंचे. उनके साथ रहकर बालक मूलशंकर की महर्षि दयानंद बनने की यात्रा शुरू हुई. उन्होंने पाणिनि व्याकरण, पातंजल-योगसूत्र तथा वेद-वेदांग का अध्ययन किया. इस मूल बात को समझा कि देश की मौजूदा अवस्था में दुदर्शा की मुख्य वजह वेद के सही अर्थों की जगह पर गलत अर्थों प्रचलित हो जाना है.
उन्होंने देखा कि इससे समाज में धार्मिक आडम्बर, अंधविश्वास, सामाजिक कुरीतियों का जाल फैल चुका और भारत अपने ही देश में गुलामी की जंजीरों में जकड़ा है. देश की गरीबी, अशिक्षा, महिलाओं की दुर्दशा, भाषा और संस्कृति के विनाश को देखकर दयानन्द हृदय व्यथित हो उठा. इसके बाद कुछ वक्त के लिए वो हिमालय की कंदराओं में चले गए. वहां तप, त्याग, साधना से अपना व्यक्तित्व निखारा.
वहां से लौटने पर हरिद्वार के कुंभ के मेले के मैदान में उन्होंने अपनी बात को मजबूती और तर्क के साथ रखा और 'पाखण्ड खण्डिनी पताका' फहराई विरोधियों के साथ शास्त्रार्थ कर सत्य की नींव रखने की कोशिश की. संस्कृत भाषा का उन्हें गहन ज्ञान था. वो धाराप्रवाह संस्कृत बोलते थे. उनके जीवन का एक ही लक्ष्य था कि जो सत्य है उसको जानो और फिर उसको मानो उन्होंने "सत्य को अपनाने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा तैयार रहना चाहिए का प्रेरक संदेश भी दिया.
“वेद पढ़ने का अधिकार सबको है”
कलकत्ता में बाबू केशवचन्द्र सेन तथा देवेन्द्र नाथ ठाकुर के संपर्क में आने के बाद स्वामी दयानंद सरस्वती ने पूरे वस्त्र पहनना, हिंदी में बोलना और लिखना शुरू किया. सभी धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक विषयों पर अपनी बात रखने के लिए उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश नाम के कालजयी ग्रंथ लिखा. वो पूरे देश में घूमें.
जीवन को क्षणभंगुर मानते हुए महर्षि दयानंद सरस्वती ने 10 अप्रैल 1875 को मुंबईके गिरगांव में आर्य समाज की नींव रखी थी. इस समाज का मुख्य उद्देश्य संसार का उपकार करना है. पहली जनगणना के वक्त स्वामी जी ने आगरा से देश के सभी आर्य समाज को यह निर्देश भेजा कि इस समाज के सभी सदस्य अपना धर्म ' सनातन धर्म' लिखवाएं. उन्होंने वेदों के गलत मतलब निकाले जाने से होने वाले नुकसान को देखते हुए वेद के वास्तविक रूप को दुनिया के सामने रखा. उन्होंने लिंगभेद और जातिभेद से उठकर “वेद पढ़ने का अधिकार सबको है” का एलान किया.
धार्मिक अंधविश्वासों, सामाजिक कुरीतियों पर जमकर विरोध करने वाले दयानंद सरस्वती मानते थे कि महिलाओं को शिक्षित करना उस वक्त की सबसे बड़ी जरूरत थी. इसकी उन्होंने पुरजोर वकालत की. समाज में ऊंच-नीच, छुआछूत को सामाजिक बुराई मानने वाले इस महान समाज सुधारक ने सबको एक समझने और सबसे एक तरह व्यवहार करने पर बल दिया. सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ उन्हें 3 मोर्चों पर लड़ाई लड़नी पड़ी. ये ईसाइयत, इस्लाम और सनातनधर्मी हिन्दुओं के मोर्चे थे दयानन्द ने ज्ञान की जो मशाल जलायी थी, उसका कोई सानी नहीं था.
साफगोई बनी जान की दुश्मन
सामाजिक बुराई का पुरजोर विरोध करने और साफगोई की वजह से दयानंद सरस्वती कई लोगों के निशाने पर आ गए उनके कई विरोधी बने. तत्कालीन वायसराय ने जब उनसे ब्रिटिश साम्राज्य की उन्नति के लिए प्रार्थना करने को कहा तो उन्होंने साफ कहा कि मैं तो हमेशा ब्रिटिश साम्राज्य के शीघ्र समाप्ति की कामना किया करता हूं.
इसी वजह से उनकी हत्या और अपमान के लगभग 44 कोशिशें हुई. अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरीकों से 17 बार उन्हें जहर देकर मारने की कोशिशें की गईं, लेकिन उन्होंने कभी किसी को सजा देना या दिलवाना सही नहीं समझा. जब उनके अनुयायियों ने उनसे कहा कि आप ऐसा न कहें जिससे कि बड़े-बड़े आफिसर नाराज हो जाएं. इसके जवाब में महर्षि दयानन्द ने कहा, "चाहे मेरी अंगुली की बाती बनाकर ही क्यों न जला दी जाएं मैं तो केवल सत्य ही कहूंगा."
क्रांतिकारियों के मार्गदर्शक
कई राजाओं ने दयानंद सरस्वती को जमीन देने की, मन्दिरों की गद्दी देने की पेशकश की, लेकिन उन्होंने कभी उसे नहीं लिया. 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से वो लगातार देश को आजादी दिलाने की कोशिशों में लगे रहे. अपने शिष्यों को प्रेरित करते रहे. श्यामजी कृष्ण वर्मा, सरदार भगत सिंह के दादा सरदार अर्जुन सिंह, स्वामी श्रद्धानन्द लाला लाजपत राय जैसे महान बलिदानी और देशभक्त उन्हीं की प्रेरणा पर देश पर जान देने को उतावले हो उठे.
वो अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए देश के युवाओं को जर्मनी भेजने को लेकर खासे उत्सुक रहे थे. केशवचन्द्र सेन, गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर के पिता, महादेव गोविन्द रानाडे, पण्डिता रमाबाई, महात्मा ज्योतिबा फुले, एनी बेसेंट, मैडम ब्लेटवस्की के साथ बातचीत कर उन्हें सत्य की एक राह पर चलने के लिए राजी करने की कोशिशें की. मार्ग पर सहमत करने का प्रयास किया. मानव की उन्नति के लिए उन्होंने 16 संस्कारों पर विस्तार से लिखा. उन्होंने लोकतंत्र, योग, पर्यावरण सब पर अपनी बात रखी.
खुद को जहर देने वाले को बचाया
6 फुट 9 इंच के ऊंचे कद वाले गौर वर्णधारी ब्रह्मचर्य के स्वामी योगी महर्षि दयानन्द सरस्वती ने हर व्यक्ति उन्नति के लिए शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति को जरूरी बताया था. 59 साल में 1883 में जोधपुर में जहर दिया गया था. जिस जहर से वो अपने शरीर को नहीं बचा सकें उन्होंने उस जहर देने वाले को सजा से बचाया. दरअसल वो जोधपुर नरेश महाराज जसवंत सिंह के बुलावे पर जोधपुर गए थे. वहां महलों में जाने पर उन्होंने देखा नन्हीं नामक की एक वेश्या अनावश्यक हस्तक्षेप और महाराज जसवंत सिंह पर बेहद असर था.
स्वामी जी ने महाराज को समझाया और उन्होंने नन्हीं से रिश्ते तोड़ दिए. इससे नाराज नन्हीं ने स्वामी जी के रसोइए कलिया उर्फ जगन्नाथ अपने साथ मिलाया और उनके दूध में पिसा हुआ कांच मिलवा दिया. सोइए कलिया ने कुछ देर बाद स्वामी दयानंद के पास आकर अपना अपराध स्वीकारा और क्षमा मांगी. दयालु स्वामी ने उसे राह-खर्च ही नहीं दिया बल्कि जीवन जीने के लिए 500 रुपए देकर विदा किया ताकि पुलिस उसे परेशान न करें.
कहा जाता है कि स्वामी जी को जोधपुर के अस्पताल में भर्ती करवाया गया तो अंग्रेज सरकार के कहने पर वहां का डॉक्टर भी उन्हें जहर देता रहा था. तबियत बेहद खराब होने पर उन्हें अजमेर के अस्पताल में लाया गया, लेकिन तब -तक बहुत देर हो गई थी. आखिरकार जहर के असर से 30 अक्टूबर 1883 में अजमेर में उनकी मौत हो गई.आज उनके बनाए आर्य समाज के दुनिया के 30 देशों और भारत के सभी राज्यों में 10000 से अधिक इकाइयां काम कर रही हैं.