राजधानी दिल्ली में किसान परेड के दौरान हिंसा के दौरान देश की शान लाल किले में भी जमकर उपद्रव हुआ. कल हुड़दंगियों ने राष्ट्रीय स्मारक लाल किले पर जो किया वो एक देश को शर्मसार करने वाला है. तिरंगे वाली जगह पर हुड़दंगियों ने चढ़कर एक निशान साहिब का झंडा फहरा दिया. लाल किले में जिन सीढ़ियों से चढ़कर प्रधानमंत्री झंडा फहराने जाते हैं उन सीढ़ियों पर हुड़दंगियों का कब्जा कर लिया. सुरक्षा को कुचलते हुए बवाली लाल किले के अंदर दाखिल हो गए. जिसे जिधर से रास्ता मिला वो उधर से ही लाल किले पर चढ़ाई करने लगा.
लाल किले पर जो कुछ भी हुआ उसे लेकर सवाल भी उठ रहे हैं. लाल किले पर जो कुछ हुआ ये क्या महज संयोग कहा जा सकता है? क्या हजारों की भीड़ आकर ऐसे ही किसी राष्ट्रीय स्मारक पर चढ़कर देश की इज्जत तार तार कर सकती है? लाल किले पर अराजकता से ना सिर्फ पूरा देश शर्मिंदा है बल्कि
इसने किसान आंदोलन को लेकर भी कई सवाल खड़े कर दिए हैं.
लाल किले के अंदर क्या-क्या चीजें मौजूद हैं और कैसे इस इमारत की ताबीर की गई इसके पीछे एक खास इतिहास है. आइए जानते हैं इस जानते हैं भारत का प्रतीक माने जाने वाले लाल किले की कहानी के बारे में...
लाल किले का इतिहास
सन् 1638 में मुगल बाहशाह शाहजहां ने अपने साम्राज्य की राजधानी आगरा से दिल्ली में एक नए तरह से बसाए गए इलाके में स्थापित की, जिसे शाहजहानाबाद नाम दिया गया. आज यह इलाका पुरानी दिल्ली के आस-पास मौजूद है. इस नए इलाके के निर्माण के साथ बादशाह ने अपने महल, लाल किले की नींव रखी. लाल बलुआ पत्थर की दीवारों से बनाए इस गढ़ को पूरा होने में लगभग एक दशक लगे. इसे आगरा के किले से बेहतर कारीगरी का नमूना माना जाता है, क्योंकि शाहजहां ने इसे आगारा में बनाए गए अपने किले के अनुभव के आधार पर इस भव्य किले का निर्माण कराया था. यह किला लगभग 200 वर्षों तक मुगलिया सल्तनत की पहचना बना रहा जब तक कि यह अंग्रेजों के हाथों में नहीं आ गया था. अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर का 1837 में यहां राज्याभिषेक हुआ था. अंग्रेजों के कब्जे में आने बाद मुगलिया सल्तनत की शान फीकी पड़ गई और उस दौरान कहा जाता था कि मुगल बादशाह की बादशाही इस किले की ड्योढ़ी के पार नहीं है.
आर्किटेक्चर
लाल किला की वास्तुकला उस सांस्कृतिक जुड़ाव का एक शानदार नमूना है जिसे हम भारतीय-मुगल कलाकारी कहते हैं. यह वास्तुकला मुगल शैली की उस तत्वों को अपने अंदर में समेटती है जो पहले मुगल बादशाह बाबर के साथ शुरू हुई थी, जिसमें फ़ारसी, तैमूरी और हिंदू परंपराएं शामिल हैं.
अधिकांश मुगल किलों की तरह इस किले को दो खास हिस्से हैं - दीवान-ए-आम और दीवान-ए-खास. दीवान-ए-आम के प्रवेश द्वार में नौबत-खाना जहां संगीतकारों मौजूदगी होती थी और समारोहों के दौरान संगीत बजाए जाते थे, इस जगह पर नौ मेहराबें हैं. इस हॉल में एक शानदार नक्काशी से तैयार किया हुआ एक है स्थान जहां शाही सिंहासन रखा जाता था. जहां बादशाह आम लोगों से मुखातिब होते थे.
वहीं दीवान-ए-खास जहां निजी दरबारी की बैठकी हुआ करती थी. यहां शाहजहां का मूयर सिंहासन हुआ करता था, जिसे फारस से आए आक्रांता नादिर शाह अपने साथ ले गया.
लाल किले के अन्य स्थानों में रंग महल जो सुंदर रंगों से बनाया गया है. इसके अलावा मुमताज़ महल भी है जिसे अब एक संग्रहालय में बदल दिया गया है. लाल किले के परिसर में एक ख़ास महल जो एक शयन कक्ष है जिसे तसबिह खाना, ख्वाबगाह या तोश खाना भी कहा जाता है.
हमाम, दीवान-ए-ख़ास के उत्तर में स्थित सजावटी नहाने का स्थान भी बनाया गया. मुगल वास्तुकला अपने सुंदर बागों के लिए मशहूर है, लाल किले में हयात-बक्श-बाग है जिसे जिंदगी देने वाला बाग भी कहा जाता है.
लाल किला परिसर आज के दौर में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अधीन है, यह विभाग इस किले की देख-रेख और प्रबंधन का कार्य करता है. भारत के लिए एक सम्मान की बात यह भी है कि लाल किले 2007 में यूनेस्को की तरफ से विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया था.
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