नई दिल्ली: पराली जलाने से होने वाले प्रदूषण से निपटने के लिये पूसा की बायो डिकम्पोज़र तकनीक का इस्तेमाल दिल्ली के हिरनकी गांव से शुरू किया गया. ये तकनीक कारगर होती भी नज़र आ रही है. 13 अक्टूबर को हिरनकी गांव के 3 एकड़ के खेत में पूसा रिसर्च इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों की मौजूदगी में छिड़काव कराया गया था. मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और पर्यावरण मंत्री गोपाल राय भी इस मौके पर मौजूद थे. पूसा के वैज्ञानिकों का कहना था कि 15 दिन में पराली इतनी गल जाएगी कि खेत में जुताई की जा सकेगी.


छिड़काव के ठीक 15 दिन बाद खेत कि स्तिथि का जायज़ा लेने ABP न्यूज़ की टीम पहुंची. पहले की स्तिथि की अपेक्षा खेत में पराली की तस्वीर बिल्कुल अलग थी. काफी हद तक पराली गल चुकी है. सैम्पल लेने पहुंची पूसा रिसर्च इंस्टीट्यूट की टीम की प्रिंसिपल साइंटिस्ट डॉ लिवलीन शुक्ला ने बताया कि पराली करीब 90 फीसदी तक गल चुकी है. और खेत जोतने के लिये तैयार है. जिस किसान के खेत मे छिड़काव किया गया था वो भी काफी सन्तुष्ट हैं.


यह किसानों के लिए अच्छा विकल्प- वैज्ञानिक


ABP न्यूज़ से बात करते हुए डॉ लिवलीन शुक्ला ने कहा कि जिस दिन छिड़काव किया था उस दिन से आज सिर्फ 15 दिन हुए हैं. इस समय तक करीब 90 फीसदी पराली गल चुकी है. पानी सूखते ही बहुत आराम से गेहूं की बुआई की जा सकती है. यह जीवाणुओं का छिड़काव करके हम खेत में ही पराली को गला कर खाद बना रहे हैं. यह किसानों के लिए एक बहुत अच्छा विकल्प है. जैसे-जैसे गेहूं की उपज होगी तो किसानों को पता चलेगा कि पराली अंदर डालने से काफी लाभ हुआ है किसान खुद देख सकेंगे कि यूरिया का खाद डालना बेहतर है या जीवाणुओं का छिड़काव करना बेहतर है.


मिट्टी की गुणवत्ता पर इस छिड़काव का क्या असर होगा इसका भी पूरा परीक्षण किया जायेगा. डॉ लिवलीन शुक्ला ने बताया कि अभी मिट्टी के अंदर सारी पराली गल चुकी है और खाद के रूप में परिवर्तित हो चुकी है. आज 15 दिन बाद सैंपल ले कर जा रहे हैं फिर 25 दिन बाद में लेकर जाएंगे. इसके बाद जब गेहूं की उपज होगी तो कटाई के समय भी मिट्टी का सैंपल लेकर जाएंगे. पूरी स्टडी करेंगे कि शुरू से लेकर गेहूं की उपज तक भूमि में क्या सुधार हुआ है. मुख्य रूप से देखेंगे कि कार्बन, नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और जीवाणुओं की संख्या बढ़ी है या नहीं.


पंजाब और सोनीपत में भी छिड़काव


डॉ शुक्ला ने बताया कि पूसा की इस तकनीक का इस्तेमाल पिछले एक हफ्ते में पंजाब के गुरदासपुर, अमृतसर, मूंगा और मलोट में किया गया है. इसके साथ ही हरियाणा के सोनीपत में छिड़काव किया गया है. अब स्थिति यह है कि किसान हमें खुद फोन करके कह रहे हैं कि आप हमारे यहां कर छिड़काव करिए.


हिरनकी गांव के जिस किसान सुमित के खेत में छिड़काव किया गया उनका कहना है कि परिणाम से वो काफी संतुष्ट हैं. पहले रसायनिक खाद डालकर गलाते थे. लेकिन हमें इस बार कुछ भी नहीं डालना पड़ा है, बहुत फायदा है. अब 10 तारीख के करीब सीधा इसमें जुताई करेंगे. हर साल पराली से परेशान रहते थे आग लगाने की भी सोचते थे या फिर पानी डालकर गलाते थे. लेकिन उसमें भी पराली रह जाती थी. सुमित के मुताबिक पराली से निजात पाने के लिये पहले रोटावेटर लगाते थे फिर कल्टीवेटर लगाते थे तीन चार चीजें लगाने के बाद खेत से पराली हटा पाते थे. इस बार एक ही रोटावेटर लगाया है और बड़े आराम से जुताई के लिए खेत तैयार हो गया है.


बुआई में अब 1500 रुपए तक खर्च आएगा- किसान


खर्च के सवाल पर किसान सुमित ने कहा कि बायो डिकम्पोजर के छिड़काव के लिए एक रुपए भी खर्च नहीं हुए, सारा खर्चा सरकार ने उठाया है. हमें 15 दिन में दवाई का छिड़काव सफल नज़र आ रहा है और हम काफी संतुष्ट हैं. जहां दवाई का छिड़काव नहीं हुआ उस खेत मे 2 बार जुताई करनी पड़ती है और पानी भी ज्यादा खर्च होता है, जिससे समय और रुपए की ज्यादा बर्बादी होती है. जिस खेत में बायो डिकम्पोजर का छिड़काव नहीं होता था वहां 3000 रुपए का खर्च आता था लेकिन अब बायो डिकम्पोजर से पराली गल गयी है इसलिए सिर्फ बुआई करनी होगी और खर्च भी 1500 रुपए तक आएगा.


क्या है बायो डिकम्पोज़र तकनीक?


पराली को खाद में बदलने के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान ने 20 रुपये की कीमत वाली 4 कैप्सूल का एक पैकेट तैयार किया है. 4 कैप्सूल से पराली पर छिड़काव के लिए 25 लीटर तरल पदार्थ बनाया जा सकता है और 1 हेक्टेयर में इसका इस्तेमाल कर सकते हैं.


तरल पदार्थ बनाने के लिये पहले 5 लीटर पानी में 100 ग्राम गुड़ उबालना है और ठंडा होने के बाद घोल में 50 ग्राम बेसन मिलाकर कैप्सूल घोलना है. इसके बाद घोल को 10 दिन तक एक अंधेरे कमरे में रखना होगा, जिसके बाद पराली पर छिड़काव के लिए तरल पदार्थ तैयार हो जाता है. दिल्ली सरकार ने नजफगढ़ के खड़खड़ी नाहर गांव में घोल बनाने के लिये एक निर्माण केंद्र बनाया है जहां बड़े पैमाने पर घोल बनाने का काम चल रहा है.


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