प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट के खिलाफ दाखिल याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट गुरुवार, 5 दिसंबर को सुनवाई करेगा. मामला चीफ जस्टिस संजीव खन्ना की अध्यक्षता वाली 3 जजों की बेंच के सामने लगा है. इन याचिकाओं में 1991 के इस कानून को प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट को अन्यायपूर्ण बताते हुए रद्द करने की मांग की गई है.
याचिकाकर्ताओं का कहना है कि यह कानून हिंदू, सिख, बौद्ध और जैन समुदाय के खिलाफ है. इसके रहते वह उन पवित्र स्थलों पर दावा नहीं कर सकते, जिनकी जगह पर विदेशी आक्रमणकारियों ने जबरन मस्ज़िद बना दी थी. 2020 में दाखिल याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने 12 मार्च 2021 को नोटिस जारी किया था. लेकिन अब तक केंद्र ने कोई स्टैंड नहीं लिया है. कोर्ट कई बार केंद्र सरकार को जवाब दाखिल करने के लिए समय दे चुका है.
धार्मिक स्थलों का सर्वे रोकने से कोर्ट कर चुका है मना
पिछले साल जुलाई में हुई सुनवाई में जमीयत उलेमा ए हिंद के लिए पेश वकील वृंदा ग्रोवर ने इन याचिकाओं का विरोध किया था. उन्होंने देश भर में अलग-अलग धार्मिक स्थलों पर दावे को लेकर चल रहे मुकदमों पर रोक लगाने की भी मांग की थी. लेकिन कोर्ट ने इससे मना कर दिया था.
क्या है मामला?
1991 का प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट सभी धार्मिक स्थलों की स्थिति 15 अगस्त 1947 वाली बनाए रखने की बात कहता है. इसे चुनौती देने वाली कई याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हुई हैं. इन याचिकाओं में इस कानून को मौलिक और संवैधानिक अधिकारों के विरुद्ध बताया गया है. कहा गया है कि यह कानून हिंदू, जैन, सिख और बौद्ध समुदाय को अपना अधिकार मांगने से वंचित करता है.
धार्मिक-सांस्कृतिक अधिकार की दलील
सुप्रीम कोर्ट में वकील अश्विनी उपाध्याय के अलावा बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी, विश्व भद्र पुजारी पुरोहित महासंघ जैसे कई याचिकाकर्ताओं ने कानून को चुनौती दी है. उन्होंने कहा है कि किसी भी मसले को कोर्ट तक लेकर आना हर नागरिक का संवैधानिक अधिकार है. लेकिन 'प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट' नागरिकों को इस अधिकार से वंचित करता है. यह न सिर्फ न्याय पाने के मौलिक अधिकार का हनन है, बल्कि धार्मिक आधार पर भी भेदभाव है.
जमीयत भी पहुंचा है कोर्ट
सुन्नी मुस्लिम उलेमाओं का संगठन जमीयत उलेमा ए हिंद भी मामले में सुप्रीम कोर्ट पहुंचा है. जमीयत ने कहा है कि अयोध्या विवाद के फैसले में सुप्रीम कोर्ट यह कह चुका है कि बाकी मामलों में प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट का पालन होगा. इसलिए, अब इस कानून को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई नहीं होनी चाहिए. इस तरह की सुनवाई से मुस्लिम समुदाय में डर और असुरक्षा का माहौल बनेगा.
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