नई दिल्ली: क्या सरकारी स्कूल में पढ़ कर बच्चों की जिंदगी बर्बाद हो जाती है ? क्या अंग्रेजी मीडियम में पढ़ने से बच्चे हाई-फाई हो जाते हैं ? क्या हाई क्लास में पहुंचने का सिर्फ एक ही तरीका इंग्लिश मीडियम स्कूल ही है ?


हिंदी हैं वतन के देश में अंग्रेजी माई-बाप बन चुकी है. और बड़े अंग्रेजीदा स्कूल में पढ़ाने की ख्वाहिश मां-बाप के पैरों की बेड़ियां. ऐसे ही कुछ माता पिता ने नोएडा और गाजियाबाद में बेतहाशा स्कूल फीस बढ़ाने का विरोध किया. नौबत यहां तक आ पहुंची है कि बच्चों की स्कूल फीस भरने के लिए माता पिता को लोन लेना पड़ रहा है?


जाहिर है हिंदी सरकारी स्कूलों की इसी कमी का अंग्रेजी स्कूल जमकर फायदा उठा रहे हैं.

District Information System for Education के मुताबिक 2008 से 2009 में कुल 1.5 करोड़ बच्चे अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ते थे. इसी दौरान 8.3 करोड़ बच्चे हिन्दी माध्यम के स्कूलों में पढ़ते थे. लेकिन 2013-2014 आते आते इंग्लिश मीडियम दो करोड़ नब्बे लाख हो गए. जबकि 2013-2014 में हिंदी स्कूलों में 10.4 करोड़ बच्चे ही हो पाए. इस तरह पांच सालों में इंग्लिश मीडियम में बच्चों की संख्या दो गुना हो गई. जबकि हिंदी मीडियम में सिर्फ 20 प्रतिशत बच्चे ही बढ़ पाए.

चौंकाने वाली बात ये है कि अंग्रेजी स्कूलों में सबसे ज्यादा जो नए बच्चे जुड़े हैं जो हिंदी प्रदेशों के हैं. हिन्दी भाषी राज्यों में 2008 से 2014 तक सबसे ज्यादा अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने वाले बच्चों की संख्या बढ़ी है. 2008 से 2014 के बीच में बिहार में 47 हजार प्रतिशत अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने वाले बच्चों की संख्या बढ़ी है.

उत्तर प्रदेश में 1000 गुना, हरियाणा में 525 प्रतिशत, झारखण्ड में 458 प्रतिशत और राजस्थान में 209 प्रतिशत, अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने वाले बच्चों की संख्या बढ़ी है. आंकड़े बता रहे हैं हो कि अंग्रेजी को लेकर जड़ें समाज में बहुत गहरी हो चुकी हैं. आखिर इस सोच को लेकर लोगों की मानसिकता के पीछे असल वजह क्या है.

माता पिता अपने सपनों को अपने बच्चों के जरिए जी रहे हैं. लेकिन माता पिता को ऐसा करने के लिए कौन मजबूर कर रहा है. क्या अंग्रेजी नहीं आने की वजह से करियर में पिछड़ना इसकी वजह तो नहीं है. क्या अंग्रेजी नौकरी दिलाने और सैलरी बढ़ाने में रोल निभाती है.

जाहिर है अंग्रेजी की यही चमक उसे दूसरी भाषाओं से जरूरी बना रही है. लेकिन क्या अंग्रेजी की धमक सिर्फ रोजगार में ही है. क्या रिश्तों में भी ये बात बनाती और बिगाड़ती है. लेकिन अंग्रेजी के इस बोलबाले के बीच एक बड़ा सवाल ये है कि अगर कामयाबी के लिए अंग्रेजी इतनी ही जरूरी होती तो चीन, रूस और जापान जैसे देश बिना अंग्रेजी को सिरमौर बनाए कैसे कामयाब हो गए. क्या हम अपने बच्चों पर दूसरी भाषा का बोझ डालकर गलती तो नहीं कर रहे.

तो जानकारों की मानें तो अंग्रेजी पढ़ाने के चक्कर में हम अपने ही बच्चों पर अत्याचार कर रहे हैं. तो क्या इस समस्या का कोई हल नहीं है. क्या कोई ऐसा सरकारी स्कूल नहीं है जो उचित फीस लेकर अच्छी शिक्षा देता हो. इस सवाल का जवाब जानने के लिए हमने दिल्ली के एक स्कूल का दौरा किया जिसे देखकर अंदाजा नहीं लगता कि ये सरकारी हिंदी स्कूल है. अगर सरकार चाहे तो सरकारी स्कूलों में भी अच्छी शिक्षा मिल सकती है.

ऐसे में ABP न्यूज की मांग है कि पूरे देश में एक बोर्ड एक पाठ्यक्रम और एक फीस की व्यवस्था लागू की जाए. ताकि अमीर हो चाहे गरीब अच्छी शिक्षा सबको बिना भेदभाद के मिल सके.