विशेष: सरकार से इकरार की उम्मीद में खड़े, इनकार के मारे हुए किसान
हर बातचीत के बाद सरकार और मज़बूती से किसानों के लिए बनाने कानूनों को किसानों के पक्ष में बता रही है और किसान और मज़बूती से इन नए कानूनों का विरोध करने का रास्ता अख्तियार कर रहे हैं.
मिर्ज़ा अतहर ज़िया का एक शेर है.
तेरी दहलीज़ पे इक़रार की उम्मीद लिए
फिर खड़े हैं तिरे इंकार के मारे हुए लोग.
पिछले करीब एक महीने से दिल्ली की दहलीज पर सरकार के इन्कार के मारे हुए हजारों किसान जमा हैं. इस उम्मीद में कि मोदी सरकार उनकी बातों को सुनेगी. इस उम्मीद में कि सरकार तीनों नए कृषि कानूनों को वापस लेगी. लेकिन पांच बार की नाकाम कोशिश के बाद भी जब बात छठी बार बातचीत की आती है, तो किसान मायूस नहीं होते. वो मुतमइन हैं कि उनकी आवाज का असर होगा.
उनकी इस उम्मीदी के पीछे खड़ी दिखती हैं वो आवाजें, जिन्हें कई बार सुनकर भी अनसुना कर दिया जाता है. टिकरी बॉर्डर पर किसान आंदोलन के बीच एक ऐसी ही आवाज मिली बलविंदर सिंह के रूप में. बलविंदर सिंह करीब 10 साल पहले पंजाब छोड़कर लंदन चले गए थे. गए तो थे वर्क परमिट पर, लेकिन वो वहां जम गए. हॉन्सलो में उन्होंने एक मिठाई की दुकान खोली और ब्रिटिश टेस्ट के हिसाब से नाम रखा चार्ल्स स्वीट सेंटर. भाई भी साथ आ गए. दुकान अच्छी चल पड़ी. लेकिन जब दिल्ली की सीमाओं पर पंजाब-हरियाणा के किसानों का जुटना शुरू हुआ तो बलविंदर सिंह खुद को लंदन में नहीं रोक सके. वो लौट आए हैं. अब टिकरी बॉर्डर पर देश की सबसे बड़ी कार कंपनी मारुति के शोरुम के सामने लंगर लगा दिया है. मिठाइयां बनाने वाले ये हाथ अब छोटी-छोटी मशीनों से किसानों के लिए पूरियां बना रहे हैं.
वो कहते हैं कि जब अपने देश में अपनी ज़मीन नहीं बचेगी तो फिर लंदन में रहकर क्या ही फायदा. बलविंदर सिंह की तरह और भी ऐसे लोग हैं, जिन्होंने अपना घर-बार कारोबार छोड़कर इस आंदोलन में शामिल होने का फैसला किया है. अमेरिका के ग्रीन कार्ड होल्डर हरपाल सिंह भी एक ऐसे ही शख्स हैं. अमेरिका में हर महीने साढे़ तीन लाख रुपये की सैलरी पाते थे. लेकिन अब वो भी इस आंदोलन में शरीक होने के लिए नौकरी छोड़कर दिल्ली की दहलीज पर जमा हैं. ऐसे ही पंजाब के और भी तमाम लड़के हैं, जिन्हें कनाडा जाने का वीजा मिला हुआ है. टिकट तक करवा रखी थी फ्लाइट्स की. लेकिन आंदोलन शुरू हुआ तो उन्होंने अपनी टिकट कैंसल करवा दी है और इस आंदोलन में शामिल होकर किसानों के लिए खाना बना रहे हैं.
आंदोलन में शरीक लोगों से आप अलग-अलग बात करिए, आपको अलग-अलग कहानियां मिलेंगी. जालंधर के एक किसान ये कहते हुए मिल गए कि उनके पास चार किले की खेती है. अगर पीएम मोदी इन कानूनों को वापस ले लें तो वो अपने पूरे खेत में पीएम मोदी की प्रतिमा लगवा देगा और वो भी सरदार पटेल से भी ऊंची. पैसे भी किसानों के ही होंगे, सरकारी खजाने के नहीं. आप उस किसान की बातों में अतिशयोक्ति देख सकते हैं. ऐसा है भी. उसके बस की बात नहीं है कि वो अपने पूरे खेत में पीएम मोदी की प्रतिमा लगवा दे और इसके लिए देशभर के किसानों से घूम घूमकर चंदा वसूल करे.
लेकिन वो फिलहाल टिकरी बॉर्डर पर है. इस उम्मीद में कि उसकी मुराद पूरी होगी. इस उम्मीद में कि उसके जैसे हजारों-लाखों लोगों की मुराद पूरी होगी. लेकिन क्या सच में उसकी मुराद पूरी होगी. क्या सच में सरकार और किसान के बीच बात बनेगी और कोई बीच का रास्ता निकलेगा. या फिर ये आंदोलन यूं ही चलता रहेगा. ये सवाल इसलिए है, क्योंकि हर बातचीत के बाद सरकार और मज़बूती से किसानों के लिए बनाने कानूनों को किसानों के पक्ष में बता रही है और किसान और मज़बूती से इन नए कानूनों का विरोध करने का रास्ता अख्तियार कर रहे हैं. अहमद फराज का एक शेर है.
मुंतज़िर किस का हूं टूटी हुई दहलीज़ पे मैं,
कौन आएगा यहां कौन है आने वाला.
किसानों को इंतजार है सरकारी नुमाइंदों का कि वो उनकी टूटी हुई दहलीज पर आएं और बात करें, लेकिन क्या सरकार के नुमाइंदे वहां तक पहुंच पाएंगे, जहां किसान उन्हें बुलाना चाहते हैं.
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