नई दिल्ली: अयोध्या भूमि विवाद पर जल्द सुनवाई से सुप्रीम कोर्ट ने मना कर दिया है. बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने पूजा के अधिकार का हवाला देते हुए जल्द सुनवाई की मांग की थी. लेकिन चीफ जस्टिस जे एस खेहर की अध्यक्षता वाली बेंच ने सुनवाई की तारीख जल्द तय करने से मना कर दिया.

इससे पहले 21 मार्च को स्वामी ने जल्द सुनवाई की मांग सुप्रीम कोर्ट के सामने रखी थी. तब जजों ने उन्हें सलाह दी थी कि सभी पक्ष आपसी सहमति से मसला सुलझाने की कोशिश करें. आज जब स्वामी दोबारा कोर्ट में पेश हुए तो समझौते वाले बिंदु पर चर्चा ही नहीं हुई. मामले के मूल पक्षकारों ने स्वामी की तरफ से मसला उठाने का विरोध शुरू कर दिया. उन्होंने कहा कि स्वामी का इस सिविल विवाद से कोई लेना-देना नहीं है. उन्होंने मामले के मूल पक्षकारों को बिना जानकारी दिए कोर्ट में मामला रख दिया.

इस पर बेंच की अध्यक्षता कर रहे चीफ जस्टिस जे एस खेहर ने स्वामी से पूछा, "क्या आप इस मामले में मूल पक्ष नहीं हैं?" स्वामी ने कहा, "नहीं. मैंने ऐसा दावा कभी किया भी नहीं. मैं तो पूजा करने के अपने संवैधानिक हक की बात कर रहा हूं. जल्द फैसला न होने से मेरा ये अधिकार बाधित हो रहा है."

इस पर कोर्ट ने कहा, "अभी हम जल्द सुनवाई की तारीख तय नहीं कर सकते." स्वामी ने कुछ समय बाद दोबारा अपनी मांग उठाने की इजाज़त मांगी. लेकिन बेंच ने उस पर कोई टिप्पणी नहीं की.

6 साल से लंबित है मामला

ये मामला 6 साल से भी ज़्यादा से सुप्रीम कोर्ट में लंबित है. 30 सितंबर 2010 को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अयोध्या में विवादित ज़मीन के 3 हिस्से करने का आदेश दिया था. 2 हिस्से हिन्दू पक्ष को और 1 हिस्सा सुन्नी वक्फ बोर्ड को दिया गया था. इसके खिलाफ सभी पक्षों ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की. 9 मई 2011 को सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के फैसले पर रोक लगाई.

कोर्ट ने मामले के दस्तावेजों के अंग्रेजी अनुवाद और कोर्ट रिकॉर्ड के डिजिटलाइजेशन का आदेश दिया. मामले से जुड़े पक्षों के मुताबिक अभी भी ये प्रक्रिया पूरी नहीं हुई है. इसलिए सुनवाई में वक़्त लग सकता है.

हाई कोर्ट का फैसला

30 सितम्बर 2010 को इलाहाबाद हाई कोर्ट के जस्टिस सुधीर अग्रवाल, एस यू खान और डी.वी. शर्मा की बेंच का फैसला आया. बेंच ने 2.77 एकड़ विवादित ज़मीन को तीन बराबर हिस्सों में बांटने का आदेश दिया.

-- बेंच ने ये तय किया कि जिस जगह पर रामलला की मूर्ति स्थापित है उसे रामलला विराजमान को दे दिया जाए.

-- राम चबूतरा और सीता रसोई वाली जगह निर्मोही अखाड़े को दिया जाए.

-- बचा हुआ एक तिहाई हिस्सा सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड को दिया जाए.

फैसले का आधार

हाई कोर्ट ने आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया को विवादित ज़मीन की खुदाई कर रिपोर्ट देने को कहा था. खुदाई के नतीजों के आधार पर बेंच ये माना कि बाबरी मस्जिद से पहले वहां पर एक भव्य हिन्दू मंदिर था.

रामलला के वर्षों से मुख्य गुम्बद के नीचे स्थापित होने और उस स्थान पर ही भगवान राम का जन्म होने की मान्यता को भी फैसले में तरजीह दी गई.

हालांकि, कोर्ट ने ये भी माना कि इस ऐतिहासिक तथ्य की भी अनदेखी नहीं की जा सकती की वहां साढ़े चार सौ सालों तक एक ऐसी इमारत थी जिसे मस्जिद के रूप में बनाया गया था. बाबरी मस्जिद के बनने के पहले वहां मौजूद मंदिर पर अपना हक़ बताने वाले निर्मोही अखाड़े के दावे को भी अदालत ने मान्यता दी.

फैसले से सभी पक्ष असंतुष्ट रहे

हालांकि, हाई कोर्ट ने अपने फैसले में सभी पक्षों के दावों में संतुलन बनाने की कोशिश की लेकिन कोई भी पक्ष इस आदेश से संतुष्ट नहीं हुआ.

पूरी ज़मीन पर अपना दावा जताते हुए रामलला विराजमान की तरफ से हिन्दू महासभा ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की. दूसरी तरफ सुन्नी सेंट्रल वक़्फ़ बोर्ड ने भी हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी.

बाद में कई और पक्षों ने भी सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की. इन याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 9 मई 2011 को हाई कोर्ट के आदेश पर रोक लगा दी. सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर हैरानी भी जताई कि जब किसी पक्ष ने ज़मीन के बंटवारे की मांग नहीं की थी तो हाई कोर्ट ने ऐसा फैसला कैसे दिया.