Diwali 2021 Green Crackers: दिवाली का त्योहार है और बाजारों में रौनक है. हर घर में बड़े जोर शोर से दिवाली की तैयारियां चल रही है. वही पटाखों के बिना दिवाली फीकी है. लेकिन प्रदूषण और कोरोना के नॉर्म्स को देखते हुए कई राज्यों में पटाखों की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया गया है.


हालांकि, कुछ राज्यों ने ग्रीन पटाखे बेचने की परमिशन दी गई है. कर्नाटका ने भी ग्रीन पटाखें जलाने की अनुमति दी है. आपको बता दें कि ग्रीन पटाखे कम प्रदूषण फैलाते हैं और नेचर फ्रेंडली माने जाते हैं. ग्रीन पटाखे सामान्य पटाखों की तरह ही दिखते हैं. इन पटाखों को जलाने पर आवाज भी सामान्य पटाखों की तरह निकलती है. 


ग्रीन पटाखों में कच्चे माल का प्रयोग किया जाता


दरअसल, सामान्य पटाखों को जलाने पर नाइट्रोजन और सल्फर गैस भारी मात्रा में निकलते हैं जो कि हमारे वायुमण्डल के लिए बहुत हानिकारक हैं. वहीं ग्रीन पटाखों को जलाने पर इन हानिकारक गैसों में 30 से 40 फीसदी तक कमी हो जाती है. साथ ही इन ग्रीन पटाखों में दावा यह भी किया गया है कि पहले जहां सामान्य पटाखों में 160 डेसिबल तक का साउंड रहता था वहीं घट कर 125 डेसिबल किया गया है.


इन पटाखों में कम कच्चे माल का प्रयोग किया जाता है और पार्टिक्युलेट मैटर (PM) कम रखा जाता है जिससे यह कम धमाके के बाद कम प्रदूषण करता है. इसके साथ ही ग्रीन पटाखों को फोड़ने पर 10 प्रतिशत ही गैसें निकलती है.


लेकिन क्या वाकई कर्नाटक सरकार के द्वारा दिए गए आदेश के अनुसार ग्रीन क्रैकर्स ही बेचे जा रहे हैं? एबीपी न्यूज़ ने इसकी बेंगलुरु समेत कर्नाटका बॉर्डर तक इसकी पड़ताल की. हमने करीब 7 से 8 दुकानों में इसकी पड़ताल की. जहां बोर्ड तो बाहर ग्रीन क्रैकर्स का लगा है लेकिन हकीकत कुछ और ही सामने आई.


ग्रीन पटाखों की शुद्धता को जांचा जा सकता है


आप ग्रीन पटाखों की शुद्धता को चेक करना चाहते है तो NEERI नाम के ऐप के स्कैन के जरिए पहचान कर सकते हैं. हमने भी ऐसा ही किया. इन दुकानों में मिल रहे ग्रीन क्रैकर्स के लेबल के साथ इन पटाखों को हमने चेक किया. 80% से ज्यादा पटाखों पर किसी भी तरह का कोई क्यूआर कोड नहीं मिला. यानी केवल ग्रीन फायर वर्क्स के स्टिकर के साथ इन पटाखों को बेचा जा रहा है. और जिन पर क्यूआर कोड मिला वह क्यूआर कोड इनवेलिड निकले. हमने नीरी एप के जरिए इन क्यूआर कोड को स्कैन करने की कोशिश की तो कुछ स्कैन ही नहीं हुए तो कुछ इनवैलिड QR साबित हुए.


साफ है कि ग्रीन फायरवर्क्स के नाम पर आम पटाखें बेचे जा रहे हैं. इससे पहले हमारी रिपोर्ट में दिखाया था कि किस तरह सिवकाशी से आने वाले ये पटाखें क्या वाकई प्रदूषण के मानकों पर खरे उतरते हैं? जब जब शिवकाशी का नाम ज़हन में आता है तो नाम सबसे पहले आतिशबाज़ी का आता है. आये भी क्यों न, देश में शिवकाशी आतिशबाज़ी का गढ़ जो माना जाता है. देश के 95% पटाखें इसी शिवकाशी में तैयार किये जाते है. वहां बनने वाले पटाखों और आतिशबाजी में से 75 प्रतिशत की खपत उत्तर भारत में होती है.


ग्रीन पटाखों पर लगे हैं क्यूआर कोड


दरअसल ग्रीन पटाखों पर हरे रंग का ग्रीन क्रैकर्स का स्टीकर लगा है और साथ ही बारकोड या क्यूआर कोड लगे हैं. हरें रंग वाली स्टीकर और QR कोड इस बात की पुष्टि करते है कि ये ग्रीन पटाखे हैं और उन केमिकल्स से बने है जो सीएसआईआर और NEERI द्वारा जांच किए गए हैं.


हालांकि यह दावा किया गया था कि आप इन पटाखों के निर्माता और इनमें इस्तेमाल हुए केमिकल के बारे में जानना चाहते हैं तो इनके ऊपर लगें बारकोड को स्कैन कर सकते हैं. लेकिन इन पटाखों पर बार कोड और QR कोड इंवैलिड नजर आए. फायर वर्क इंडस्ट्री में कई सूत्रों ने यह भी बताया कि तमाम दावों के बावजूद हकीकत यह है कि इस साल का टोटल प्रोडक्शन ग्रीन क्रैकर्स का केवल 3 से 4 फ़ीसदी है. यानी साधारण क्रैकर्स को ही ग्रीन क्रैकर्स का लेबल लगाकर बेचा जा रहा है.


ग्रीन क्रैकर्स में बेन हुए केमिकल का नहीं किया जाता इस्तेमाल


साथ ही एक और हकीकत यह भी है कि NEERI ने ग्रीन क्रैकर्स बनाने का जो फार्मूला फायर वर्क इंडस्ट्री को मुहैया कराया है वो 1070 फैक्ट्रीज में से केवल 348 फैक्ट्रियों को ही अवेयर किया गया है. यानी बाकी की फैक्ट्रियां पटाखों के नाम पर प्रदूषण ही मार्केट में बेचने वाली है. हालांकि दावा यह भी किया गया था की ग्रीन क्रैकर्स में बेन हुए केमिकल लिथियम, आर्सेनिक, बेरियम, लेड का इस्तेमाल नहीं किया जाएगा.


जबकि इस पर भी दावा झूठा निकला और इस बार के पटाखों में केवल 30 फ़ीसदी नीरी द्वारा दिए गए केमिकल और बाकी 70% सामान्य केमिकल्स का इस्तेमाल किया गया है. आपको बता दें कि पटाखों में एलुमिनियम, एंटी मोनी सल्फाइड, बेरियम नाइट्रेट, कॉपर कंपाउंड्स, हेक्सा क्लोरो बेंजीन, लेड डाइऑक्साइड/नाइट्रेट/ क्लोराइड, लिथियम कंपाउंड्स, मरक्यूरी, नाइट्रिक ऑक्साइड जैसे भारी केमिकल्स का इस्तेमाल किया जाता है. इन तमाम लापरवाही के बावजूद सरकार इस पर कोई कदम उठाती दिखाई नहीं दे रही.


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