नई दिल्ली: घरेलू हिंसा कानून के प्रावधान के तहत एक महिला को अपने साथ ससुर के घर में भी आश्रय पाने का अधिकार है. उसे सिर्फ इस आधार पर मना नहीं किया जा सकता कि आश्रय के लिए आवेदन देते वक्त वह उस घर में नहीं रह रही थी. सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि पति के किसी भी रिश्तेदार का मकान जिसमें महिला कभी घर की तरह रही हो, कानून के तहत ‘शेयर्ड हाउसहोल्ड’ माना जाएगा.
घरेलू हिंसा कानून, 2005 के तहत किसी भी महिला को आश्रय का अधिकार दिया गया है. धारा 2(s) विवाहित महिला को पति के किसी भी ‘शेयर्ड हाउसहोल्ड’ यानी ‘साझा मकान’ में आसरा पाने का हक देती है. 2006 में ‘एस आर बत्रा बनाम तरुणा बत्रा’ मामले के फैसले में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एस बी सिन्हा और मार्कण्डेय काटजू की बेंच ने इसकी परिभाषा को सीमित कर दिया था.
उन्होंने माना था कि जिस मकान में महिला वर्तमान में रह रही हो, या जो पति का अपना या किराए का मकान हो या संयुक्त परिवार के जिस घर में पति का भी हिस्सा हो, उसी को शेयर्ड हाउसहोल्ड माना जाएगा. उसी में महिला आश्रय के लिए दावा कर सकती है.
2006 के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने यह माना था कि आश्रय के लिए महिला का दावा पति पर बनता है, उसके माता-पिता पर नहीं. महिला पति के अधिकार वाले मकान में आसरा मांग सकती है, लेकिन महिला के सास-ससुर जिस घर के मालिक हों, वहां इस तरह का दावा नहीं कर सकती.
आज जस्टिस अशोक भूषण, आर सुभाष रेड्डी और एम आर शाह की बेंच ने इस परिभाषा को बदल दिया. इसे व्यापक कर दिया. इस फैसले में यह माना गया है कि महिला पति के किसी भी रिश्तेदार के मकान में कभी घर की तरह रही हो, उसे ‘शेयर्ड हाउसहोल्ड’ में गिना जाएगा. यानी सास-ससुर के मकान में पहले रह चुकी महिला को यह कह कर आश्रय से वंचित नहीं किया जा सकता कि वह आवेदन देते वक्त वहां नहीं रह रही थी या पति का उस संपत्ति में हिस्सा नहीं है.
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