Ambedkar Jayanti 2023: डॉ बी.आर.आंबेडकर को लोग संविधान निर्माता के तौर पर या फिर उनके अनुसूचित जाति के लिए किए गए काम की वजह से जानते हैं, लेकिन ऐसी कौन सी घटनाएं थीं? जिससे वो सोचने पर मजूबर हो गए कि थे उनके साथ भेदभाव हो रहा है और अपनी आत्मकथा 'वेंटिग फॉर ए वीजा' में उनका ये दर्द लफ्जों में छलक आया.
इसे लेकर बाबा साहब भीमराव आंबेडकर लिखते हैं कि जाति के आधार पर हुए भेदभाव को दो तरीके से बताया जा सकता है. पहला इस बारे में जानकारी दी जाए और दूसरा अपने साथ हुए असमान व्यवहार के बारे में बोला जाए. उन्होंने दूसरा तरीका चुनते हुए अपने साथ हुए अनुभव बताए.
वो लिखते हैं, "मुझे महार जाति का होने से यह तो पता था कि क्लास में सबसे अलग बैठना होगा. पानी पीने के लिए मास्टर की ही नहीं चपरासी की इजाजत होना जरूरी था और बाल बाहर से नहीं कटवा सकते थे, क्योंकि कोई भी अपवित्र नहीं होना चाहता था." कुछ ऐसी ही घटनाएं हुई जिसने उनके बालमन पर गहरा असर डाला. ऐसी घटनाओंं का आज बाबा साहब की जयंती पर जिक्र करते हैं.
कोरेगांव जाने के दौरान क्या हुआ?
बाबा आंबेडकर ने लिखा है, "पहली घटना 1901 की है. पिता सतारा के कोरेगांव में कैशियर की नौकरी कर रहे थे. तब यहां बंबई सरकार (महाराष्ट्र सरकार) अकाल पीड़ित किसानों को काम देने के लिए तालाब खुदवा रही थी." उन्होंने आगे लिखा कि अपनी मां की मौत के बाद वो अपने बड़े भाई, बड़ी बहन के दो बेटों (बहन की भी मृत्यु हो चुकी थी) के साथ सतारा में अपनी बुर्जुग काकी के साथ रहते थे.
सतारा में गर्मी की छुट्टियों पड़ने पर आंबेडकर बड़े भाई और बड़ी बहन के दो बेटों संग पिता से मिलने के लिए निकले. सभी लोग घर से नए कपड़ों में सतारा के सबसे पास के रेलवे स्टेशन मसूर पहुंचे. वहां आंबेडकर सभी के साथ पिताजी के चपरासी का इंतजार करने लगे, लेकिन काफी देर बाद भी कोई नहीं आया.
आंबेडकर ने लिखा, ''कुछ टाइम बाद स्टेशन मास्टर आए और उन्होंने हमारा टिकट देखकर सवाल किया कि कहां जाना है? दरअसल उन्हें हमारे कपड़े देखकर अंदाजा नहीं हुआ कि हम महार जाति से हैं. ऐसे में जब उन्हें पता लगा तो उनके चेहरे के हाव भाव बदल गए."
वो अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि इसके अलावा स्टेशन पर खड़ी कोई भी बैलगाड़ी ज्यादा पैसा देने के बाद भी अपवित्र होने के डर से हमे बैठाना नहीं चाहती थी. कुछ देर बाद स्टेशन मास्टर हमारे पास आए और उन्होंने सवाल किया कि क्या तुम लोग बैलगाड़ी चला सकते हो?
इस पर हमने हां कहा और फिर गाड़ी वाले तैयार हो गए क्योंकि एक तो उन्हें ज्यादा पैसे मिल रहे थे और उन्हें गाड़ी भी नहीं चलानी पड़ रही थी. इस तरह काफी मुश्किलों के बाद हम कोरेगांव पहुंचे. यहां पता लगा कि पिता के पास हमारी लिखी हुई चिट्ठी ही नहीं पहुंची थी कि हम आ रहे हैं. उनके चपरासी उन्हें हमारा लेटर देना भूल गए थे.''
आंबेडकर लिखते हैं कि उनके साथ यह सब तब हुआ जब वो महज नौ साल के थे. ऐसे में इस घटना ने उनके दिमाग पर अमिट छाप छोड़ी.
बडौदा में नहीं मिला होटल
विदेश में पढ़ाई करने के दौरान आंबेडकर बड़ौदा आए क्योंकि उनके वहां रहने और पढ़ने लिखने का खर्चा महाराजा बड़ौदा स्टेट ने दिया था. इस वजह से उन्हें महाराजा के लिए काम करना था, लेकिन यहां आने पर सबसे बड़ा सवाल था कि वो रहेंगे कहां?
आंबेडकर लिखते हैं कि बाहर पढ़ने के दौरान उनके मन से चला गया था कि वो अछूत हैं, लेकिन भारत आने पर यह सब फिर से उनको याद आ गया. उन्हें इतना पता था कि हिंदूओं के होटल उन्हें नहीं मिलेंगे इसलिए वो पारसी होटल पहुंचे, लेकिन यहां भी सिर्फ पारसियों को ही रहने की अनुमति थी. ऐसे में उन्होंने होटल की देखभाल करने वालों के साथ मिलकर झूठ बोला कि वो पारसी हैं. यह नाटक ज्यादा दिन तक नहीं चला सका.11वें ही दिन कुछ लोग डंडे लेकर उनके सामने आ खड़े हो हुए.
आंबेडकर लिखते हैं कि जब मैं ये याद करता हूं मेरी आंखों में आंसू आ जाते हैं. ये मैं कभी भूल नहीं सकता कि दर्जनों लोग मुझसे कह रहे हैं कि निकल जाओ. मुझे ये एहसास हुआ कि हिंदूओं के साथ-साथ मैं पारसियों के लिए भी अछूत हूं.
डॉ बी.आर.आंबेडकर का पैर क्यों टूटा?
बाबा साहब आंबेडकर बताते हैं कि 1929 में बंबई सरकार ने अनुसूचित जाति (SC) पर हो रहे अत्याचारों की जांच को लेकर एक कमेटी गठित की थी. इसके सदस्य वो भी थे. इसके लिए वो चालिसगांव पहुंचते. यहां इंतजार कर रहे एससी लोग उनसे ठहरने को कहते हैं, लेकिन वो घूलिया गांव में जांच कर वापस लौट जाने चाहते थे. काफी कहने के बाद वो घूलिया के बाद फिर चालिसगांव आते हैं.
चालिसगांव से एससी जाति के लोग आंबेडकर को महारवाड़ा एक घोड़ागाड़ी से ले जाते हैं. इस सफर के दौरान एक गाड़ी से घोड़ागाड़ी को टक्कर लग गई. इसकी वजह से आंबेडकर पुल पर पथरीली जमीन पर गिर गए. इससे उनका पैरा टूट गया. इसके बाद उन्हें पता चला था कि कोई भी तांगावाला उन्हें ले जाने को तैयार नहीं था. इसलिए उनको लेने आए लोगों में से ही एक ने तांगा चलाया क्योंकि वो इसे चलाने का अभयस्त नहीं था. इस वजह से हादसा हुआ.
'क्या आपके धर्म ने यह ही सिखाया है'
बाबा साहब ने आंदोलन के साथियों के साथ घूमना तय किया. इसे लेकर उन्होंने सबसे पहले हैदराबाद में औरंगाबाद स्थित दौलताबाद किले में जाने का फैसला किया. यहां जाने के दौरान आंबेडकर और उनके साथियों के कपड़े धूल से भर गए थे, ऐसे में दौलताबाद किले के पास पहुंचते ही उन्हें यहां एक पानी से भरा हुआ टैंक दिखाई दिया था. इससे उनके साथ के कुछ लोगों ने हाथ पैर धो लिए थे. इस पर बवाल हो गया. एक बूढ़ा मुसलमान उनकी तरफ आया और जोर से चिल्लाया कि तुमने पानी खराब कर दिया. उसने ये सवाल किया कि क्या तुम लोग अपनी औकात भूल गए हो?
आंबेडकर ने इस बुजुर्ग से कहा, "क्या आपके धर्म ने यह ही सिखाया? अगर हम मुसलमान बन जाएं तो क्या फिर तुम हमें पानी पीने दोगे? " इसके बाद माहौल थोड़ा शांत हुआ और उन्हें किले के अंदर इस शर्त के साथ जाने दिया गया कि वो लोग पानी नहीं छू सकते. बाबा साहब लिखते हैं कि इससे हमें पता लगता है कि एक अछूत शख्स हिंदू के लिए ही नहीं बल्कि मुसलमान और पारसी के लिए भी अछूत ही होता है.
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