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Draupadi Murmu: दिल में दर्द-चेहरे पर मुस्कान, काफी संघर्ष भरा रहा है द्रौपदी मुर्मू का रायरंगपुर से रायसीना हिल्स तक का सफर

Draupadi Murmu: नया इतिहास रचनेवाली देश की पहली महिला आदिवासी राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू का जीवन काफी चुनौतियों भरा रहा है. जानिए उनके रायरंगपुर से रायसीना हिल्स तक के सफर की कहानी...

Draupadi Murmu: द्रौपदी मुर्मू ने देश की पहली महिला आदिवासी राष्ट्रपति बन इतिहास रच दिया है. हमेशा हंसती-मुस्कुराती दिखने वाली द्रौपदी मुर्मू की अपनी जीवन यात्रा काफी संघर्षों से भरी रही है. ओडिशा के मयूरभंज जिले के उपरबेड़ा गांव का नाम भी कम ही लोग जानते होंगे जहां द्रौपदी मुर्मू का जन्म हुआ. आज ये गांव वीवीआईपी गांव हो गया है और दूसरे रायरंगपुर भी आज सुर्खियों में है, जहां द्रौपदी मुर्मू ने अपने जीवन का काफी समय गुजारा और यहीं से उनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत हुई. 

रायरंगपुर से रायसीना हिल्स तक मुर्मू का सफर...

द्रौपदी मुर्मू का जन्म 1958 में हुआ था. उनके पिता और दादा गांव की पंचायत के प्रमुख थे. पढ़ने और आगे बढ़ने को लेकर द्रौपदी मुर्मू में इस कदर ललक थी कि स्कूलिंग के बाद आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने अपना रास्ता खुद बनाया और पहुंच गईं भुवनेश्वर. जहां से वो ग्रेजुएट हुईं. फिर ओडिशा सचिवालय में उनकी क्लर्क की नौकरी लग गई, बाद में उन्होंने एक बैंक कर्मचारी श्याम चरण मुर्मू से ब्याह रचाया और बन गईं द्रौपदी मुर्मू.

शिक्षिका बन बच्चों को पढ़ाया

द्रौपदी मुर्मू का ओडिशा के मयूरभंज जिले के रायरंगपुर इलाके में काफी समय गुजरा...यहां वो अपने पति के साथ रहीं. यहीं उन्होंने घर बनाया...नब्बे के दशक के शुरुआती समय में उन्होंने यहां के अरबिंदो स्कूल में कुछ समय के लिए टीचिंग भी की. वो भी बहुत ही कम मानदेय पर. वो बच्चों को हिंदी, उड़िया, गणित, भूगोल जैसे विषय पढ़ाती थीं और लोग चकित होते थे कि आखिर ये पढ़ी-लिखी आदिवासी महिला कौन है जो बिना किसी स्वार्थ्य के बच्चों को पढ़ा रही है.

पहली बार पार्षद का चुनाव लड़ीं और जीतीं

समाज के प्रति द्रौपदी मुर्मू के सेवाभाव को देखकर वो बहुत से लोगों की नजरों में आईं. यहीं पर उनकी राजनीति में एंट्री की राह खुली. मयूरभंज जिले में बड़ी तादाद में संथाली आबादी थी और द्रौपदी मुर्मू संथाली चेहरा रही हैं. लिहाजा 1997 में बीजेपी ने द्रौपदी मुर्मू को नोटिफाइड एरिया कमेटी यानी NAC की पार्षद के चुनाव में उतार दिया और वो पहला ही चुनाव जीत गईं. बतौर पार्षद अपने काम से उन्होंने सबको अपना मुरीद बना दिया. यहीं से मुर्मू की राजनीति को पंख लगने शुरू हुए.

पार्षद से बन गईं विधायक

बतौर पार्षद चर्चा में आईं मुर्मू को बीजेपी ने साल 2000 में पहली बार विधायकी का चुनाव लड़वाया और वो जीत भी गईं. फिर साल 2004 में भी वो दोबारा विधायक बनीं. तब बीजेडी और बीजेपी का गठबंधन चुनाव जीता था और मुर्मू को नवीन पटनायक के नेतृत्व वाली सरकार में पहले परिवहन और वाणिज्य और फिर पशुपालन मंत्री बनाया गया. फिर वो 2009 का लोकसभा चुनाव हार गईं. इसके बाद के कुछ साल द्रौपदी मुर्मू के जीवन में बड़ी आपदा लेकर आए.

द्रौपदी के लिए छह साल रहे दुखद और संघर्ष भरे

2009 का सिर्फ लोकसभा चुनाव की हार ही नहीं,  अगले छह साल तक द्रौपदी मुर्मू के जीवन के बहुत दर्दनाक और बहुत उथल-पुथल वाले साल रहे. उन छह साल में उन्होंने अपने परिवार के तीन सबसे अहम सदस्यों को खोया. 2009 में उनके सबसे बड़े बेटे लक्ष्मण मुर्मू का असमय निधन हुआ, चार साल बाद ही 2013 में काल ने उनके छोटे बेटे को छीन लिया. इस आघात से वो उबरी भी नहीं थीं कि साल 2014 में उनके पति श्याम चरण मुर्मू का भी निधन हो गया. इससे द्रौपद्री मुर्मू बुरी तरह से टूट गई थीं

ऐसे दर्द भरे दौर में वो आध्यात्म की शरण में चली गईं. वो ब्रह्मकुमारी से जुड़ गईं. फिर आया साल 2015 जहां से हम द्रौपद्री मुर्मू को एक नई भूमिका में देखते हैं. साल 2015 में उन्हें झारखण्ड का राज्यपाल नियुक्त किया गया. उस समय झारखंड में बीजेपी के रघुबरदास की सरकार थी.

एक क्लर्क, एक शिक्षिका से अपनी जीवन यात्रा शुरू करने वाली द्रौपदी मुर्मू अब देश के सर्वोच्च पद पर पहुंच गई हैं. वाकई ये भारतीय लोकतंत्र की खूबसूरती है. द्रौपदी मुर्मू सार्वजनिक जीवन में उन विरले लोगों में से हैं जो बहुत मामूली पृष्ठभूमि से आईं हैं. लेकिन नई बुलंदियों तक पहुंचने के बावजूद उन्होंने विनम्रता नहीं छोड़ी. उन्होंने बहुत सरल और साधारण जीवन जिया है. 

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