नई दिल्ली: शहरी विकास मंत्रालय की संसदीय कमेटी की शुक्रवार को हुई बैठक में स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से प्रजेंटेशन दिया गया जिसमें चौकाने वाले तथ्य सामने आए हैं. एक रिसर्च के मुताबिक 2016 से 2019 के बीच महज 4 दिन ही दिल्ली की आबोहवा ठीक रही, जबकि 366 दिन सबसे प्रदूषित रहे. प्रदूषण के चलते लोगों को सांस लेने में दिक्कत हो रही है, जिससे लोग ज्यादा छींकेंगे और ड्रॉपलेट्स ज्यादा समय तक हवा में रह सकते हैं.
इस वजह से कोरोना संक्रमण बढ़ने की संभावना अधिक है.


संसदीय समिति को स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से यह भी जानकारी दी गई कि प्रदूषण के कारण और इससे जुड़े बीमारियों के कारण भारत में 12.5 फीसदी लोगों की मौत होती है. वहीं प्रदूषण के कारण भारत में लोगों की औसत उम्र में 1.7 साल कम हुई है. इसके साथ ही साथ एक बात यह भी सामने आई कि दुनिया के 30 सबसे प्रदूषित शहरों में भारत के 21 शहर है. दिल्ली में प्रदूषण के कारण 1.7 गुना जीवन रिस्क बढ़ गया है. इसके चलते एक अनुमान के मुताबिक प्रतिवर्ष 10,000 से लेकर के 30,000 तक लोगों की मौत हो रही है.


"प्रदूषण और कोविड-19 के बीच संबंध का ठोस प्रमाण नहीं"
अमेरिका में तीन हजार से अधिक काउंटी पर किए गए एक नए अध्ययन से पता चला है कि जो लोग ‘पीएम 2.5’ सूक्ष्म कणों के संपर्क में अधिक समय तक रहते हैं, कोविड-19 से उनकी मौत होने की आशंका बढ़ जाती है. इस रिसर्च के सामने आने के बाद पहले से ही प्रदूषण की समस्या से जूझ रहे उत्तर भारत के क्षेत्रों में महामारी के रुख और उससे होने वाली मौतों की दर के प्रति चिंता बढ़ गई है. लेकिन कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि पीएम 2.5 और कोविड-19 से होने वाली मौत के बीच अभी तक कोई प्रामाणिक संबंध स्थापित नहीं हुआ है.


हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों का मानना है कि 'पीएम 2.5' कणों के संपर्क में अधिक समय तक रहने पर फेफड़ों में 'एसीई-2 रिसेप्टर' प्रोटीन अधिक मात्रा में उत्पन्न होते हैं. जिनसे कोरोना वायरस को शरीर की कोशिकाओं में घुसने में सहायता मिलती है. वैज्ञानिकों का मानना है कि वायु प्रदूषण के संपर्क में अधिक समय तक रहने से लोगों की रोग प्रतिरोधक क्षमता पर भी विपरीत असर पड़ता है.


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