नई दिल्ली:  देशभर में दुर्गा पूजा का जश्न मनाया जा रहा है. हर तरफ मां दुर्गा के जयकारों की गूंज है. जब बात दुर्गा पूजा की होती है तो बंगाल का पूजा सबसे खास होता है. बंगाल में दुर्गा और काली की आराधना दुनियाभर में मशहूर है. मां दुर्गा के आने पर ढोलक की गुंज और चरणों में सिंदूर अर्पण करने का खास रिवाज है. यहां के भव्य पंडाल और उसकी सजावट लोगों का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करते हैं.


बंगाल में दुर्गा पूजा की ख्याति का श्रेय कृत्तिबास ओझा को जाता है. कृत्तिबास ओझा ने वाल्मीकि की रामायण का बांग्ला संस्करण 'श्री राम पंचाली' लिखी थी. यह पहली बार था जब संस्कृत के अलावा किसी दूसरी भाषा में रामायण की रचना की गई. कृत्तिबास ओझा के इस 'श्री राम पंचाली' ने बंगाल में दुर्गा पूजा को मशहूर कर जन-जन तक पहुंचा दिया. इसमें पहली बार शक्तिपूजा के बारे में लिखा था.


'श्री राम पंचाली' में राम का रावण को हराने के लिए के लिए शक्ति पूजा का जिक्र है. इसमें इस बात का जिक्र है कि जब राम को लगा कि रावण से युद्ध करना कठिन है तो जामवंत ने उनकी चिंता को देखकर उन्हें शक्ति की पूजा करने को कहा.


इसके बाद महाकवि निराला ने भी 'राम की शक्ति पूजा'  में इसका जिक्र किया है. उन्होंने बताया है कि कैसे राम के मनोबल को टूटते हुए देख जामवंत ने कहा था कि उनके साथ केवल नैतिक बल है लेकिन कोई भी लड़ाई केवल नैतिक बल से नहीं जीती जा सकती, उसके लिए तो ‘मौलिक शक्ति’ का साथ जरूरी है. जामवंत कहते हैं, ‘शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन! छोड़ दो समर जब तक सिद्धि न हो, रघुनंदन!’ जामवंत की इन बातों का मतलब देवी दुर्गा की नौ दिनों तक कठोर साधना से था.


इस तरह अपने 'श्री राम पंचाली' से कृत्तिबास ओझा ने बंगाल के घर-घर तक दुर्गा पूजा को महत्व को बताया. इसके अलावा भी कृत्तिबास ने एक और महत्वपूर्ण काम किया. वह काम यह था कि उन्होंने बंगाल की शाक्त संप्रदाय और वैष्णव संतों के बीच की दूरियां मिटा दीं. दरअसल शाक्त संप्रदाय के लोग बंगाल में देवी शक्ति पूजा की में यकीन करता है. वहीं दूसरी तरफ वैष्णव संत हैं जो राम और कृष्ण की पूजा करते हैं. कृत्तिबास ओझा ने अपने 'श्री राम पंचाली' के जरिए एक ओर राम के स्वरूप को स्थापित किया तो वहीं दूसरी ओर शक्ति यानी नारी की अहमियत भी बरकार रखी. 'श्री राम पंचाली' के जरिए कृत्तिबास ओझा ने  बंगाल में जिस दुर्गा पूजा को ख्याति दिलाई वह शताब्दियों से जारी है.


बंगाल में कब शुरू हुई  दुर्गा पूजा


बंगाल में दुर्गा पूजा के इतिहास को लेकर कोई ठोस सबूत नहीं मिलता है लेकिन जो जानकारी मिलती है उसके अनुसार शक्ति की पूजा तो यहां सदियों से हो रही थी. लेकिन पहली बार मूर्ति स्थापना साल 1790 में हुई. हुगली के बारह ब्राह्मणों ने दुर्गा पूजा के सामूहिक अनुष्ठान की शुरूआत की, जहां मां दुर्गा की विशाल मूर्ति स्थापित हुई. इससे पहले  मूर्तियां विशाल पंडालों की जगह घरों में स्थापित होती थीं.


कैसे मनाया जाता है बंगाल मे दुर्गा पूजा


पश्चिम बंगाल में दु्र्गा पूजा 10 दिन का मनाया जाता है. ढाक की धुनों के साथ मां दुर्गा पंडालों में विराजित होती हैं. सप्तमी दुर्गापूजा का पहला दिन होता है. महाअष्टमी को संधिपूजा होती है जो अष्टमी और नवमी का संधिकाल होता है. इसके बाद नवमी को पूजा की जाती है.


इस तरह बंगाल में 'शक्ति पूजा' का विशेष महत्व है


कृत्तिबास के रामायण में तमाम चुनौतियों के बीच सुंदर सामंजस्य होने के चलते यह धीरे-धीरे पूरे बंगाल में मशहूर होती चली गई. इसके साथ ही मां दुर्गा भी वहां के जनमानस में लोकप्रिय होती गईं. यही नहीं पिछली पांच शताब्दियों में दुर्गा पूजा और दशहरा न केवल बंगाल बल्कि देश के दूसरे इलाकों का भी महत्वपूर्ण त्योहार बन चुका है.