जयपुरः काम कोई छोटा बड़ा नहीं होता इसलिए शर्म कैसी? पेट की आग बुझाने के लिए हमें मिट्टी खोदनी और ढोनी पड़ रही है वर्ना मैं भी प्राइवेट स्कूल में बच्चों को पढ़ाने का काम कर रही थी. ये कहना है स्नातक तक पढ़ाई कर चुकी मनरेगा मज़दूर सीता वर्मा का. सीता इन दिनों जयपुर जिले के जोबनेर में महज़ दो सौ बीस रुपए की दैनिक मजदूरी पर काम कर रही हैं.


ये कहानी अकेली सीता वर्मा की नहीं है. उसके जैसी कई पढ़ी लिखी महिलाएं इन दिनों मनरेगा के कामों में मजदूरी करके अपने परिवार का पेट पालने को विवश हैं. कोरोना के प्रकोप ने लोगों से उनके रोज़गार छीन लिए तो भीषण गर्मी में सीता और उसके जैसी महिलाएं मज़दूरी करने लगीं. सीता की नौकरी तो लॉकडाउन की बलि चढ़ गई और आठ से दस हज़ार की मासिक आमदनी बंद हो गई.


पति जिस फैक्ट्री में काम कर रहे थे, वो भी बंद. तो परिवार के सामने जीवन यापन का संकट खड़ा हो गया. मनरेगा की आसलपुर साइट पर मैट का काम कर रहे विकलांग संग्राम सिंह तो दो विषय में एम ए और बीएड किए हुए हैं, लेकिन उनकी भी नौकरी कोरोना खा गया. घर में चार भाई और हैं, लेकिन सबका रोज़गार कोरोना ने लील लिया अब सिर्फ़ मनरेगा की रोज़ाना मिल रही मजदूरी के भरोसे घर चल रहा है.


इसी तरह मनरेगा की एक अन्य साइट पर फावड़ा से तपती दोपहर में मिट्टी खोदकर सिर पर मिट्टी की परात ढोने वाली सुमन और विमला भी स्नातक तक पढ़ी हुई हैं, लेकिन किसी के पास रोज़गार नहीं है ऐसे में एक मात्र सहारा मनरेगा है.


इस साइट के मैट रामवतार भी बीएड की डिग्री ले चुके हैं, मगर उस डिग्री का क्या काम जो नौकरी भी ना दिला सके. राजस्थान में मनरेगा के तहत सरकारी आंकड़ों के मुताबिक चालीस लाख लोगों को सरकार ने रोजगार दिया हुआ है. इनमें बहुत से श्रमिक काफी ज़्यादा पढ़े लिखें हैं. इनके मज़दूरी करने की विवशता कोरोना की वजह से पनपी है.


महामारी ने पढ़े लिखे लोगों का रोज़गार छीन लिया तो घर परिवार को पालने की ज़िम्मेदारी ने इन सभी को मज़दूर बना डाला. इनकी मजबूरी की दास्तान ये बताने के लिए काफ़ी है कि कोरोना सिर्फ़ लोगों की जान ही नहीं, बल्कि उनकी खुशहाल ज़िंदगी भी छीन रहा है. कोई नहीं जानता कि कब हालात सुधरेंगे और कब अच्छे दिन आएंगे.