EWS Quota: ईडब्ल्यूएस आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट सोमवार को करेगा फैसला, सरकार ने किया रिजर्वेशन का बचाव
EWS Quota Case: चीफ जस्टिस उदय उमेश ललित की अध्यक्षता वाली 5 जजों की बेंच ने 7 दिनों तक मामले को विस्तार से सुना और फैसला सुरक्षित रखा था.
EWS Reservation Case: आर्थिक आधार पर दिए गए आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट सोमवार (7 नवंबर) को फैसला देने जा रहा है. सामान्य वर्ग के निर्धन तबके को जनवरी 2019 में यह आरक्षण दिया गया था. सरकारी नौकरी और उच्च शिक्षा में दिए गए इस 10 प्रतिशत आरक्षण को असंवैधानिक करार देने की मांग की गई है. चीफ जस्टिस उदय उमेश ललित की अध्यक्षता वाली 5 जजों की बेंच ने 7 दिनों तक मामले को विस्तार से सुना और 27 सितंबर को फैसला सुरक्षित रखा था.
चीफ जस्टिस के अलावा बेंच के बाकी 4 सदस्य जस्टिस दिनेश माहेश्वरी, एस रविंद्र भाट, बेला एम त्रिवेदी और जमशेद बी. पारडीवाला हैं. इन पांच जजों की बेंच में से चीफ जस्टिस यू यू ललित और जस्टिस एस रविंद्र भाट फैसला पढ़ेंगे. यह देखना होगा कि सभी 5 जजों का एक ही निष्कर्ष है या निर्णय बहुमत के आधार पर होगा. आगे बढ़ने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि आर्थिक आधार पर दिए गए इस आरक्षण की व्यवस्था संविधान में संशोधन कर बनाई गई है.
संविधान संशोधन को चुनौती
संविधान के 103वें संशोधन के जरिए अनुच्छेद 15 और 16 में नए प्रावधान जोड़े गए. अनुच्छेद 15 और 16 संविधान के वह हिस्से हैं जो सरकार को कमजोर और वंचित तबके को दूसरों के बराबर लाने के लिए विशेष व्यवस्था करने का अधिकार देते हैं.
इसमें अब तक सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर वंचित वर्ग का प्रतिनिधित्व बढ़ाने पर जोर था, लेकिन अनुच्छेद 15 और 16 दोनों में एक-एक नया उप-अनुच्छेद 6 जोड़कर आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को शिक्षा और नौकरी में बढ़ावा देने का प्रबंध किया गया. इसी अनुच्छेद 15(6) और 16(6) की वैधता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है.
आरक्षण विरोधियों की दलील
आपको इस विषय की जानकारी नहीं है तो आपके मन में पहला सवाल यह उठेगा कि गरीबों को आरक्षण देने में क्या गलत है? आखिर क्यों इसके खिलाफ 20 से अधिक याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हुईं? सबसे पहले हम यही समझ लेते हैं. इसके लिए हमें EWS आरक्षण के विरोध में दी गई दलीलों को देखना होगा.
- आरक्षण का उद्देश्य सदियों से सामाजिक भेदभाव झेलते आ रहे वर्ग का उत्थान है. आर्थिक आधार पर आरक्षण देना संविधान की मूल भावना के खिलाफ है.
- अगर कोई तबका आर्थिक रूप से कमज़ोर है, तो उसकी सहायता दूसरे तरीके से की जानी चाहिए.
- अब तक चले आ रहे आरक्षण का आधार जातीय नहीं था. पिछड़ेपन और भेदभाव झेलने के आधार पर कुछ राज्यों में ब्राह्मणों को भी SEBC श्रेणी के तहत आरक्षण मिला है, लेकिन नया 10 प्रतिशत आरक्षण जातीय भेदभाव करता है. यह कहता है कि सिर्फ सामान्य वर्ग को ही आरक्षण मिलेगा.
- सरकार को अगर गरीबी के आधार पर आरक्षण देना था, तो इस 10 प्रतिशत आरक्षण में भी एससी, एसटी और ओबीसी के लिए व्यवस्था बनाई जानी चाहिए थी.
- बिना जरूरी आंकड़े जुटाए आरक्षण का कानून बना दिया गया है.
- सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण को 50 फीसदी तक सीमित रखने का फैसला दिया था, इस प्रावधान के जरिए उसका भी हनन किया गया है
सरकार ने क्या कहा?
सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार की तरफ से तत्कालीन अटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल और सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने इस आरक्षण का बचाव किया. एक नजर उनकी मुख्य दलीलों पर डाल लेते हैं.
- संविधान के अनुच्छेद 38 और 46 में सरकार का यह कर्तव्य बताया गया है कि वह हर तरह की असमानता को दूर करने की कोशिश करे. अनुसूचित जाति और जनजाति के अलावा दूसरे कमज़ोर वर्ग के भी उत्थान का प्रयास करे.
- आर्थिक रूप से कमज़ोर तबके को समानता का दर्जा दिलाने के लिए ये व्यवस्था ज़रूरी है.
- कुल आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत रखना कोई संवैधानिक प्रावधान नहीं. सिर्फ सुप्रीम कोर्ट का फैसला है.
- तमिलनाडु में 68 फीसदी आरक्षण है. इसे हाई कोर्ट ने मंजूरी दी. सुप्रीम कोर्ट ने भी रोक नहीं लगाई.
- आरक्षण का कानून बनाने से पहले संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में ज़रूरी संशोधन किए गए थे.
- उच्च शिक्षा में EWS आरक्षण से किसी दूसरे वर्ग का नुकसान नहीं हुआ है. देश भर के कॉलेजों में 2 लाख 13 हज़ार 766 सीटें बढ़ाई गई हैं. शिक्षण संस्थानों को इसका ढांचा विकसित करने के लिए केंद्र सरकार ने 4 हज़ार 315 करोड़ रुपये दिए हैं.
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